भाजपा….सूरज ना बन पाये तो, बन के दीपक जलता चल…!

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रामायण का प्रसंग है। भगवान राम कहते हैं, न भीतो मरणादस्मि, केवलम् दूषितो यश: यानि मैं मरने से नहीं डरता, केवल कलंक या अपयश से डरता हूं। आज भाजपा जब अपनी स्थापना के तीस वर्ष पूरे करने जा रही है तो भाजपाजनों को यह ध्यान रखना होगा कि पार्टी के रामराज की भावना का सूत्र भी यही है। इस मामले में आपके लिए अतिरिक्त सावधानी यशेष्ठ है। जब आपमें लोकलाज के प्रति समादर की भावना होगी, उसके अनुकूल आपका आचरण होगा, आपके वाणी, विचार व कर्म में एकात्मता होगी, तभी आपका आभामंडल ऐसा बन पाएगा जिससे प्रेरित होगा परिवार, समूह, तंत्र और राष्ट्र भी। वाल्मिकी रामायण की उपरोक्त पंक्ति “न भीतो..” दोहराते हुए ही अटल जी ने तृण समान प्रधानमंत्री पद को त्याग दिया था। पहली बार प्रधानमंत्री बने श्री वाजपेयी ने संसद में जोड़तोड़ कर विश्वास मत हासिल करने के बजाय एक प्रभावी संभाषण के माध्यम से यही संदेश दिया था कि भाजपा के लिए सत्ता साधन है साध्य नहीं। उस समय का अटल जी का प्रेरक वक्तव्य संसद की एक थाती बन गई। राजनीति शास्त्र का कोई अध्येता दशकों बाद भी जब परिचित होगा इस अटल हुंकार से तो निश्चय ही उसका सर श्रद्घा से विनयत हो जाएगा।

याद रखें…संसद का धरोहर बन चुके उस भाषण को देने का नैतिक बल श्री वाजपेयी में इसलिए ही संचारित हो पाया था, क्योंकि उन्होंने अपनी सरकार को बचाने के लिए किसी अपवित्र रास्ते का सहारा नहीं लिया था। कुछ समय पूर्व का ही सांसदों के खरीद-फरोख्त का कांग्रेसी उदाहरण दुहराने का सरल लेकिन अपवित्र मार्ग अपनाने के बदले उन्होंने पद त्याग श्रेयकर समझा था। कुटिल विपक्ष द्वारा “प्रायोजित अविश्वास” के बदले उन्होंने जनता द्वारा “आयोजित विश्वास” का कठिन लेकिन पुणीत मार्ग अपनाना बेहतर समझा था। भाजपा पुन: जनता के पास गयी, फिर से उसका आदेश प्राप्त करने में सफल रही। फिर श्री वाजपेयी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। लेकिन पुन: षडयंत्रकारी दल एक हुए और एक बार फिर पार्टी को जनादेश प्राप्त करने के लिए प्रस्तुत होना पड़ा। तात्कालीन लोकसभाध्यक्ष श्री बालयोगी ने मात्र एक वोट से सरकार के समापन की घोषणा की। और वह निर्णायक वोट एक ऐसे सांसद का था, जो मुख्यमंत्री बन चुका था। एक तकनीकी खामी का फायदा हुए कांग्रेस अपनी चाल में एक बार और सफल हो गयी थी । लेकिन न भाजपा का सत्य के प्रति विश्वास डिगा और न जनता जनार्दन का भाजपा के प्रति। फिर चुनाव हुए, पार्टी फिर से केंद्रीय सत्ता पर आसीन हुई। “गठबंधन धर्म” के रूप में संसद को एक नया शब्द मिला। और अगले लगभग पांच वर्ष में राजग ने एक ऐसा स्वर्णिम इतिहास लिखा, भाजपा ने रामराज्य के एक ऐसे परिकल्पना को साकार किया, अटलजी ने विकास का एक ऐसा प्रतिमान रचा जो राष्ट्रीय पुरा वैभव की पुनर्स्थापना में मील का पत्थर साबित हुई।

खैर….! अभी-अभी राष्ट्र ने मर्यादा पुरुषोत्तम के प्राकट्य का पर्व रामनवमी मनाया है। भाजपा के स्थापना दिवस का संयोग भी इसी के आस-पास बनता है। पार्टी ३० वर्ष की हो गई। इस मौके पर उस अटल गाथा का बखान करने का आशय यही है कि भाजपाजन अपने को उस कसौटी पर कसें और आत्मावलोकन करें कि आखिर कमी कहां रह गई। सवाल केवल लोकसभा में हार का नहीं है। पार्टी ने मात्र दो सांसदों के साथ अपनी संसदीय यात्रा की शुरुआत की थी, अत: सवाल केवल संसदों या विधानसभाओं में संख्या के कम या ज्यादा होने का भी नहीं है। सवाल केवल यह है कि पार्टी ने अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन में कोताही कहां बरती ? आखिर ऐसा कौन सा मोर्चा रहा, पार्टी जिस पर आंशिक ही सही लेकिन असफल रही। यह प्रश्न आज राष्ट्र के सामने है। वैसे इतना के बावजूद यह तथ्य है कि भाजपा अपने चाल-चिंतन और चरित्र में अपने समकक्ष से मीलों आगे है। हालांकि भाजपा के कार्यकर्तागण भी इसी समाज के हैं, अत: स्वाभाविक रूप से समाज की अच्छाई-बुराइयों का प्रतिनिधित्व करते हैं। बावजूद इसके भाजपा ने राष्ट्रोन्नयन हेतु चिंतन एवं उसके अमलीकरण की एक सुदीर्घ परंपरा विकसित की है। लेकिन यह भी तथ्य है कि श्वेत धवल वस्त्र पर कालिख की एक छींट भी तुरंत दृष्टिगोचर हो जाती है,अन्यथा कई दल तो सराबोर ही हैं भ्रष्टïचार एवं अन्य अनैतिक आचरणों की कालिख में। उन दलों को तो कोई फर्क नहीं पड़ता और दो चार कुकृत्यों को अपने ऊपर लाद लेने से। उनकी तो थाती ही है जाति-मजहब, क्षेत्र, भाषा-भूषा आदि में देश को बांटकर राजनीति करना। चूंकि देश विभिन्न विविधताओं से भरा हुआ है, अत: इन दलों को खाद पानी भी मिलती ही रहेगी। लोगों की भावनाओं से खेलकर, उन्हे भटकाकर या तुष्ट कर ये दल भाजपा तथा राष्ट्र के समक्ष चुनौती बने ही रहेंगे। लेकिन भाजपा को अपना सरोकार व्यापक रखना होगा। उसकी मजबूरी है कि ना तो वह राष्ट्र के प्रति अपनी प्रतिबद्घता से मुंह मोड़ सकती है और न ही तात्कालिक लाभ के लिए किसी तरह के क्षुद्र उपायों का सहारा ले सकती है।

दीनदयाल का दर्शन, मुखर्जी का कर्तव्य, वाजपेयी की तेजस्विता, कुशाभाऊ की सादगी, आडवाणी के संगठन कौशल्य में रची-बसी, पनपी, पुष्पित-पल्लवित, प्रस्फटित, पालित-पोषित यह पार्टी अपने पितृ-पुरूषों के पद चिन्हों पर पदारूढ़ हो, अपनी-अपनी परंपरागत पहचान कायम रखे, यही उसका श्रेय है और यही प्राप्य भी। लेकिन यह तभी संभव होगा जब भाजपाजन यह समझें कि उन्होंने राजनीति को जिस रपटीली राहों पर चलना तय किया है इसमें उन्हें कमल की तरह कीचड़ में खिलने, संघर्षों की पीड़ाओं में पलने, दीप की तरह अंधकार में जलने, बुद्घ की तरह कंटकाकीर्ण मार्गों पर सत्य की तलाश में चलने, हिमनद की तरह पिघल गंगा बनने हेतु सतत्, अविराम प्रयत्नशील रहना होगा। ऊपर जिन नेताओं की चर्चा की गई है, वे भी इसी युग की उपज हैं। इनमें से वाजपेयी, आडवाणी सदृश कुछ तो अभी भी पार्टी को प्रेरणा एवं राष्ट्र को दिशा देने का कार्य कर रहे हैं और कुछ की स्मृति भाजपाजनों के पटल पर ताजा है। आशय यह कि जिन उच्चादर्शों की बात भाजपा या उसका पितृदल जनसंघ करती आयी है उसे अपनी जीवन में अंगीकृत करने वाले लोग भी पार्टी में हैं, रहे हैं। इन लोगों के नक्शे कदम पर चल निश्चय ही एक कार्यकर्ता के रूप में आपकी राह थोड़ी आसान हो जाएगी।

भाजपा के लिए सबसे दुर्भाग्य का क्षण था वह जब पार्टी के कुछ सांसद सवाल के लिए पैसे लेते धरे गए थे। तो इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि मानव ढेर सारी कमजोरियों का पुतला है। और यदि आपके आसपास अपने कुचाग्र पर खुफिया कैमरा रूपी विष चिपकाये आधुनिक पुतनायें मंडराती रहे तो कभी व्यक्ति का फिसल जाना संभव तो है ही। देर सबेर इन इलेक्ट्रॉनिक गणिकाओं का जहर चूसने का कानून और समाज को आगे आना ही होगा। तो पूतनायें आती हैं, आती रहेंगी लेकिन आपको न्यूनतम चारित्रिक दृढ़ता का परिचय देना ही होगा। निश्चित ही अतिमानव या महामानव बनना सबके बूते की बात नहीं। लेकिन अमानव बनने की अपेक्षा तो आपसे कोई नहीं करेगा। भाजपा के ३१ वें वर्षगांठ पर उसके कार्यकर्ताओं को इतना सन्देश देना श्रेयष्कर होगा है कि “सूरज ना बन पाये तो बनके दीपक जलता चल…।”

– पंकज झा

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