पश्चिम बंगाल में हार के बावजूद बढ़ी भाजपा की उम्मीदें

योगेश कुमार गोयल

            महाराष्ट्र में भाजपा का सारा खेल 25 वर्षों से भी अधिक समय से उसी की सहयोगी रही शिवसेना ने बिगाड़ दिया, हरियाणा में 90 में से 75 सीटें जीतने का ख्वाब संजो रही भाजपा को कुल 40 सीटें ही नसीब हुई और वह बहुमत के आंकड़े से 6 सीटें पीछे रह गई। 25 नवम्बर को पश्चिम बंगाल में तीन विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों में भाजपा की धुर विरोधी ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने तीनों सीटें झटककर भाजपा को जबरदस्त झटका दिया है। इन सीटों पर हुए चुनाव में सात लाख से भी अधिक मतदाताओं में से 75.34 फीसदी ने कुल 18 उम्मीदवारों की किस्मत का फैसला किया था और बाजी मारी तृणमूल के उम्मीदवारों ने। इस उपचुनाव पर पूरे देश की नजरें केन्द्रित थी क्योंकि इस राज्य में भाजपा मुख्य प्रतिद्वंदी पार्टी के रूप में उभर रही थी, जिसने लोकसभा चुनाव में पहली बार 18 सीटों पर रिकॉर्ड जीत दर्ज की थी। दूसरी ओर प्रदेश में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के लिए भी यह उपचुनाव अग्निपरीक्षा के समान था। लोकसभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन करने के बाद पूरे उत्साह के साथ 2021 के विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुटी भाजपा पश्चिम बंगाल की सत्ता से ममता बनर्जी को बेदखल करने के ख्वाब देख रही थी लेकिन 28 नवम्बर को सामने आए उपचुनाव के इन अप्रत्याशित परिणामों ने भाजपा नेतृत्व के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं।

            लोकसभा चुनाव के बाद यह पहला अवसर था, जब पश्चिम बंगाल में भाजपा और तृणमूल कांग्रेस चुनावी समर में एक-दूसरे के आमने-सामने थे। पश्चिम बंगाल में जिन तीन सीटों पर उपचुनाव हुए, उनमें पश्चिम मेदिनीपुर जिले की खड़गपुर, नदिया जिले की करीमपुर और उत्तर दिनाजपुर की कालियागंज सीट शामिल थी। पिछले विधानसभा चुनाव में इनमें से एक सीट तृणमूल कांग्रेस, दूसरी भाजपा और तीसरी कांग्रेस की झोली में गई थी। इन तीनों सीटों में से दो सीटें तो ऐसी थी, जिन पर तृणमूल कांग्रेस लाख कोशिशों के बावजूद पिछले बीस वर्षों से जीत हासिल नहीं कर पा रही थी।

            2016 में हुए विधानसभा चुनाव में खड़गपुर विधानसभा सीट से भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष दिलीप घोष चुने गए थे, जिनके लोकसभा चुनाव जीतने के बाद इस सीट से इस्तीफा देने से यह सीट खाली हो गई थी। तृणमूल कांग्रेस के प्रदीप सरकार ने भाजपा उम्मीदवार प्रेमचंद्र झा को 20788 मतों के बड़े अंतर से हराकर यह सीट भाजपा से छीन ली। भाजपा के लिए यह बड़ा झटका इसलिए माना जा रहा है क्योंकि यह उसके प्रदेशाध्यक्ष दिलीप घोष का गढ़ माना जाता है। करीमपुर सीट से तृणमूल की महुआ मोइत्रा विधायक चुनी गई थी, उन्होंने भी कृष्णानगर संसदीय सीट से चुनाव जीतने के बाद करीमपुर सीट से इस्तीफा दे दिया था। यहां से तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार बिमलेंदु सिन्हा रॉय ने भाजपा प्रत्याशी जयप्रकाश मजूमदार को 24073 मतों के भारी अंतर से हराया। इस तरह इस सीट पर तृणमूल का कब्जा बरकरार रहा। कालियागंज सीट कांग्रेस विधायक परमथनाथ रॉय के निधन के बाद खाली हुई थी। कांग्रेस ने उन्हीं की सुपुत्री धृताश्री को मैदान में उतारा था, जो मुकाबले में तीसरे स्थान पर रही। इस सीट पर तृणमूल कांग्रेस के तपनदेव सिन्हा ने भाजपा के कमल चंद्र सरकार को 2418 वोटों से हराते हुए यह सीट तृणमूल की झोली में डाल दी।

            उपचुनाव में मिली जीत को तृणमूल कांग्रेस भले ही धर्मनिरपेक्षता और एकता के पक्ष में तथा एनआरसी के खिलाफ जनादेश बताते हुए कह रही हो कि भाजपा को सत्ता के अहंकार और बंगाल के लोगों का अपमान करने के लिए सबक मिला है और उपचुनाव में तीनों सीटें हारने के बाद भाजपा नेताओं में भी भले ही निराशा देखी जा रही हो लेकिन अगर तस्वीर का दूसरा पहलू देखें तो तृणमूल को इन नतीजों को देखकर ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। दरअसल भाजपा को पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले जितने वोट मिले हैं, वे पिछली बार से काफी ज्यादा हैं और यही कारण है कि कहा जा रहा है कि भाजपा इन सीटों पर हारकर भी हारी नहीं है। उसके लिए अच्छी खबर यही है कि वह न सिर्फ इन तीनों सीटों पर दूसरे स्थान पर रही बल्कि उसका वोट प्रतिशत 2016 के विधानसभा चुनाव में मिले मतों के मुकाबले बहुत ज्यादा बढ़ा है और इस बढ़े हुए वोट प्रतिशत ने हार के बावजूद 2021 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी की उम्मीदें बढ़ा दी हैं।

            2016 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को कालियागंज सीट पर केवल 27 हजार वोट मिले थे और वह तीसरे स्थान पर रही थी जबकि इस बार पार्टी के मतों में तीन गुना बढ़ोतरी हुई और वह करीब 2400 वोटों के अंतर से दूसरे स्थान पर रही। कालियागंज उपचुनाव में भाजपा को करीब 95 हजार मत मिले जबकि कांग्रेस को 19 हजार से भी कम मत प्राप्त हुए। इसी प्रकार करीमपुर विधानसभा सीट पर भी भाजपा को 2016 में 23302 वोट मिले थे जबकि उपचुनाव में उसे 78 हजार से भी ज्यादा मत प्राप्त हुए। इस सीट पर जहां तृणमूल के मतों में करीब दस हजार वोटों की बढ़ोतरी देखी गई, वहीं भाजपा को पिछले चुनाव के मुकाबले करीब 55 हजार वोट ज्यादा मिले, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती।

            उपचुनाव परिणामों से यह भी साबित हुआ है कि मतदाताओं ने इस राज्य में भाजपा और तृणमूल कांग्रेस को छोड़कर कांग्रेस सहित वाम दलों को भी पूरी तरह नकार दिया है। उपचुनाव में पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और माकपा तीन वर्षों के बाद एक साथ चुनाव लड़ती दिखाई दी किन्तु उनकी दाल नहीं गली। चुनाव परिणामों का विश्लेषण करने पर साफ पता चलता है कि माकपा अथवा संयुक्त रूप से वाम मोर्चा की चुनाव में किस कदर दुर्गति हुई है। स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि उनका पारम्परिक वोटर उनसे कितना दूर छिटक गया है। उपचुनावों के जरिये एक प्रकार से मतदाताओं ने यह स्पष्ट संकेत देने का प्रयास किया है कि 2021 में होने वाले विधानसभा चुनाव में मुख्य मुकाबला ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच ही होगा। हालांकि भाजपा को उपचुनावों को लेकर आत्ममंथन करना होगा कि उसके ‘मिशन पश्चिम बंगाल’ में कहां कमी रह गई कि वह अपना गढ़ खड़गपुर भी नहीं बचा पाई, जहां से उसे लोकसभा चुनाव के दौरान रिकॉर्ड 93425 मत प्राप्त हुए थे। उपचुनावों के दौरान तृणमूल ने यह अवश्य साबित कर दिखाया है कि पश्चिम बंगाल में अभी भी सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत वही है और भाजपा को अपनी राजनीतिक ताकत दिखाने के लिए यहां सीधे उसी से टकराना होगा। हालांकि यह कहना असंगत नहीं होगा कि उपचुनावों में दिख रही भाजपा की हार सही मायनों में भाजपा की नहीं बल्कि कांग्रेस-वाममोर्चा की स्पष्ट हार है। बहरहाल, इन उपचुनाव नतीजों से कोई अंतिम निष्कर्ष निकाल लेना जल्दबाजी ही होगी।

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