टेक्नोलॉजी

भटकें नहीं ब्लागर

-डा. सुभाष राय

ब्लॉगों की दुनिया धीरे-धीरे बड़ी हो रही है. अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों के प्रति जन्मते अविश्वास के बीच यह बहुत ही महत्वपूर्ण घटना है. कोई भी आदमी अपनी बात बिना रोक-टोक के कह पाए, तो यह परम स्वतंत्रता की स्थिति है. परम स्वतंत्र न सिर पर कोऊ. यह स्वाधीनता बहुत रचनात्मक भी हो सकती है और बहुत विध्वंसक भी. रोज ही कुछ नए ब्लॉग संयोगकों से जुड़ रहे हैं. मतलब साफ है कि ज्यादा से ज्यादा लोग न केवल अपनी बात कहना चाह रहे हैं बल्कि वे यह भी चाहते हैं कि लोग उनकी बात सुने और उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करें. यह प्रतिक्रिया ही आवाज को गूंज प्रदान करती है, उसे दूर तक ले जाती है. जब आवाज दूर तक जाएगी तो असर भी करेगी. पर क्या हम जो चाहते हैं वह सचमुच कर पा रहे हैं? क्या हम ऐसी आवाज उठा रहे हैं जो असर करे? और सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि हमें कैसे पता चले कि हमारी बात का असर हो रहा है या नहीं?

यहाँ एक बात समझने की है कि लोग एक पागल के पीछे भी भीड़ की शक्ल में चल पड़ते हैं, एक नंगे आदमी का भी पीछा करते हैं और उसका भी जो सचमुच जागरूक है, जो बुद्ध है, जो जानता है कि लोगों कि कठिनाइयाँ क्या हैं, उनका दर्द क्या है, उनकी यातना और पीड़ा क्या है. जो यह भी जानता है कि इस यातना, पीड़ा या दुःख से लोगों को मुक्ति कैसे मिलेगी. अगर हम लोगों से कुछ कहना चाहते हैं तो यह देखना पड़ेगा कि हम इन तीनों में से किस श्रेणी में हैं. कहीं हम कुछ ऐसा तो नहीं कहना चाहते जो लोग सुनना ही नहीं चाहते और अगर सुनते भी हैं तो सिर्फ मजाक उड़ाने के लिए. यह निरा पागलपन के अलावा कुछ और नहीं है. एक ब्लॉग पर मुझे एक तथाकथित क्रांतिकारी की गृहमंत्री को चुनौती दिखाई पड़ी. उस वक्त जब नक्सलवादियों ने दर्जनों जवानों की हत्या कर दी थी, वे महामानव यह एलान करते हुए दिखे कि वे खुलकर नक्सलियों के साथ हैं, गृह मंत्री जो चाहे कर लें. उनकी पोस्ट के नीचे कई टिप्पणियाँ थीं, जिनमें कहा गया था, पागल हो गया है. जो सचमुच पागल हो गया हो, वह व्यवहार में इतना नियोजित नहीं हो सकता, इसीलिए उस पर अधिक ध्यान नहीं जाता पर जो पागलपन का अभिनय कर रहा हो, जो इस तरह लोगों का ध्यान खींचना चाह रहा हो, वह भीड़ तो जुटा लेगा, पर वही भीड़ उस पर पत्थर भी फेंकेगी, उसका मजाक भी उड़ाएगी.

कुछ लोग खुलेपन के नाम पर नंगे हो जाते हैं. नग्नता सहज हो तो कोई ध्यान नहीं देता. जानवर कपडे तो नहीं पहनते, पर कौन रूचि लेता है उनकी नग्नता में? छोटे बच्चे अक्सर नंगे रहते हैं, पर कहाँ बुरे लगते हैं? यह सहज होता है. बच्चे को नहीं मालूम कि नंगा रहना बुरी बात है, पशुओं को इतना ज्ञान नहीं कि नंगापन होता क्या है, यह बुरा है या अच्छा. पर जो जानबूझकर नंगे हो जाते हैं ताकि लोग उनकी ओर देखें, उन्हें घूरे या उनकी बात सुनें, वे असहज मन के साथ प्रस्तुत होते हैं. यह नग्नता खुलेपन के तर्क से ढंकी नहीं जा सकती. ऐसे लोग भी मजाक के पात्र बन जाते हैं. असहज प्रदर्शन होगा तो असहज प्रतिक्रिया भी होगी. लोग फब्तियां कसेंगे, हँसेंगे और हो सकता है, कंकड़, पत्थर भी उछालें.

कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जो किसी की प्रतिक्रिया की परवाह नहीं करते, भीड़ भी जमा करना नहीं चाहते, लोगों का ध्यान भी नहीं खींचना चाहते पर अनायास उनकी बात सुनी जाती है, उनके साथ कारवां जुटने लगता है, उनकी आवाज में और आवाजें शामिल होने लगाती हैं. सही मायने में वे जानते हैं कि क्या कहना है, क्यों कहना है, किससे कहना है. वे यह भी जानते हैं कि उनके कहने का, बोलने का असर जरूर होगा क्योंकि वे लोगों के दर्द को आवाज दे रहे हैं, समाज की पीड़ा को स्वर दे रहे हैं, सोये हुए लोगों को लुटेरों का हुलिया बता रहे हैं. केवल ऐसे लोग ही समय की गति में दखल दे पाते हैं. असल में ऐसे ही लोगों को मैं स्वाधीन कह सकता हूँ. स्व और कुछ नहीं अपने विवेक और तर्क की बुद्धि है. अगर व्यक्ति विवेक-बुद्धि के अधीन होकर चिंतन करता है, तो वह समस्या की जड़ तक पहुँच सकता है. फिर यह समझना कठिन नहीं रह जाता कि समाधान के लिए करना क्या है.

आजकल ब्लॉगों पर लिख रहे हजारों लोग इन्हीं तीन श्रेणियों में से किसी न किसी में मिलेंगें. अगर आप किसी लेखन की गंभीरता और शक्ति का मूल्यांकन टिप्पड़ियों की संख्या से करेंगे तो गलती करेंगे. बहुत भद्दी और गन्दी चीज ज्यादा प्रतिक्रिया पैदा कर सकती है. कई बार ज्यादा प्रतिक्रिया आकर्षित करने के लिए लोग ब्लॉगों पर इस तरह की सामग्री परोसने से बाज नहीं आते. अभी हाल में एक ब्लॉग अपने अश्लील आमंत्रण के लिए बहुत चर्चित हुआ था. वहां टिप्पणियों की बरसात हो रही थी. पर इस नाते उस गलीच लेखन को श्रेष्ठ नहीं ठहराया जा सकता. चर्चा में आने की व्याकुलता कोई रचनात्मक काम नहीं करने देगी. ऐसे ब्लॉगों के होने का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि वे उन लोगों को भी विचलित करते हैं जो किसी गंभीर दिशा में काम करते रहते हैं. मेरी इस बात का अर्थ यह भी नहीं लगाया जाना चाहिए कि जहाँ ज्यादा टिप्पणियाँ आतीं हैं, वह सब इसी तरह का कूड़ा लेखन है. ब्लॉगों की इस भीड़ में भी वे देर-सबेर पहचान ही लिए जाते हैं, जो सकारात्मक और प्रतिबद्ध लेखन में जुटे हैं. चाहे वे सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर विचारोत्तेजक टिप्पणियाँ हों, चाहे ह्रदय और मस्तिष्क को मंथने वाली कविताएं हों, चाहे देखन में छोटे लगे पर घाव करे गंभीर वाली शैली में लिखे जा रहे व्यंग्य हों. सैकड़ों की सख्या में ऐसे ब्लाग दिखाई पड़ते हैं, जो अपनी यह जिम्मेदारी बखूबी निभा रहे हैं. उनसे हमें उम्मीद रखनी होगी.

दरअसल निजी और सतही स्तर पर गुदगुदाने वाले प्रसंगों से हटकर हम ब्लॉगरों को अपने समय की समस्याओं पर केन्द्रित होने की जरूरत है. भ्रष्टाचार, गरीबी, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, सामाजिक रुढियों से उपजी दर्दनाक विसंगतियां और मनुष्यता का अवमूल्यन आज हमारे देश की ज्वलंत समस्याएं हैं. आदमी चर्चा से बाहर हो गया है, उसे केंद्र में प्रतिष्ठित करना है. सत्ता के घोड़ों की नकेल कसकर रखनी है, ताकि वे बेलगाम मनमानी दिशा में न भाग सकें. इन विषयों पर समाचार माध्यमों में भी अब कम बातें होती हैं. वे विज्ञापनों के लिए, निजी स्वार्थों के लिए बिके हुए जैसे लगने लगे हैं. पूंजी का नियंत्रण पत्रकारों को जरूरत से ज्यादा हवा फेफड़ों में खींचने नहीं देता. वे गुलाम बुद्धिवादियों की तरह पाखंड चाहे जितना कर लें पर असल में वे वेतन देने वालों की वंदना करने, उनके हित साधने और कभी-कभार उनके हिस्से में से अपनी जेब में भी कुछ डाल कर खुश हो लेने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं कर पाते. ऐसी विकट स्थिति में अगर ब्लागलेखन की अर्थपूर्ण स्वाधीनता अपनी पूरी ताकत के साथ सामने आती है तो वह लोकतंत्र के पांचवें स्तम्भ की तरह खड़ी हो सकती है. जिम्मेदारियां बड़ी हैं, इसलिए हम सबको मनोरंजन , सतही लेखन और शाब्दिक नंगपन से मुक्त होकर वक्त के सरोकार और मनुष्यता के प्रति प्रतिबद्धता के साथ आगे आकर अग्रिम मोर्चे की खाली जगह ले लेनी है. मैं मानता हूँ कि अनेक लोग सजग और सचेष्ट हैं, अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं पर आशा है सभी ब्लागर बंधु अपना कर्तव्य और करणीय समझ सही पथ का संधान करेंगे.