माँझी

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ले चल कश्तीबान उस पार
है दरिया एक आधार
समंदर की तरंगे रहे पुकार
ले चल कश्तीबान उस पार
बीच समंदर में लगता त्रास बार-बार
खेता चल कश्ती मेरे यार
बारिश की बूंदे रहे पुकार
चंचला बुला रही शैतान
ले चल कश्तीबान उस पार
तम बनता जा रहा मेरे आखिर का आधार
कश्ती की शिकस्त रूप, बताता उसकी कैफियत
देख समंदर का नैराश्य, करता कश्ती का श्रृंगार
ले चल, ले चल कश्तीबान मुझे उस पार
कुछ छड़ पहले थे सब हमराज
देख कश्ती का हालात, करते रण का आगाज
हयात की सारी खताए, कुछ लम्हे याद आ रहे है
मेरी रूह को , मेरे ऐतबार को हरा रहे हैं
देख अपनी कैफियत , करता खुद के वजूद का तिरस्कार
ले चल कश्तीबान उस पार
समंदर मुझे अब तुमसे खौफ़ नही
तुम गहरे मगर मेरा अंत नहीं
हैं सफ़र दूर नहीं
ठहरना मत मेरे माँझी
कोई यहां छोर नही

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