मन ही बंधन, मन ही मुक्ति

-हृदयनारायण दीक्षित

आनंद सबकी इच्छा है। सुख, स्वस्ति और आनंद का प्रत्यक्ष क्षेत्र यही प्रकृति है। यहां शब्द हैं, रूप, रस, गंध और स्पर्श आनंद के उपकरण हैं लेकिन आनंद की अनुभूति का केंद्र भीतर है। भौतिकवादी भाषा में कहें तो सारा मजा’मन’ का है लेकिन मन है कि भागा-भागा फिरता है। मन की ताकत शरीर की ताकत से बड़ी है। मन आया तो एक पल में ही हम यहां से वहां। शरीर की यात्रा के लिए साधन चाहिए, समय चाहिए लेकिन मन बंजारा है। निहायत घुमंतू, न पासपोर्ट, न वीजा लेकिन दुनिया के सभी देशों की यात्रा। मन विषयी भी है। सो बंधनकारी भी है। मन बुध्दि को भी हांक लेता है तब बुध्दि की युक्ति काम नहीं आती। बुध्दि और मन का मेल विरल है, दोनो मिल जाते हैं तो ‘मनीषा’ कहलाते हैं और मनीषा वाले लोग कहे जाते हैं मनीषी। मनीषा का अर्थ है ‘मन का शासक’। मन और ईशा (शासक) मिलकर ही मनीषा है। कृष्ण ने अर्जुन को स्थिर प्रज्ञा के लिए यही उपाय बताया था लेकिन अर्जुन ने मन का चरित्र बताया हे कृष्ण! मन बड़ा चंचल है, इसे नियंत्रित करना वायु पकड़ने से भी कठिन है। गीता बाद की है, महाभारत वैदिकाकल के बाद की घटना है। ऋग्वेद के ऋषि ‘मन’ की ताकत, प्रवृत्ति और प्रकृति से बखूबी परिचित थे। मन की क्षमता का खूबसूरत प्रयोग ही सांसारिक सफलता है।

प्रकृति की ऊर्जा बहुआयामी है। वैदिक ऋषि विराट् को देखकर भाव विभोर होते हैं, स्तुति करते हैं। इसलिए ऋग्वेद के देवताओं की नामावली लंबी है। ऋग्वेद में ‘मन’ भी एक देवता हैं आ तु एतु मनः पुनः क्रत्वे दक्षाय जीवसे, ज्योक च सूर्य दृशे- सतत् दक्ष-कर्म के लिए और दीर्घकाल तक सूर्य दर्शन के लिए श्रेष्ठ मन का आवाहन है। (10.57.4) पूर्वजों पितरों से यही स्तुति है पुनर्नः पितरो मनोददातु दैत्यो जनः – पूर्वज पितर हमारे मन को सत्कर्मो में प्रेरित करें। (वही, 5) सुख आनंद का क्षेत्र यही संसार और प्रत्यक्ष कर्म हैं लेकिन मन देव यहां वहां भागते है। ऋग्वेद की स्तुतियों में गजब का इहलोकवाद/भौतिकवाद है दिव्यलोक, भूलोक तक चले गए मन को वापिस लाते हैं। अस्थिर मन को दूरवर्ती प्रदेशों से वापिस लाते हैं। जो मन समुद्र या अंतरिक्ष लोक या सूर्य देव तक चला गया है, उसे वापिस लाते हैं। दूर से दूरस्थ, पर्वत, वन या अखिल विश्व में भ्रमणशील मन अथवा भूत या भविष्यत् में गए मन को भी वापिस लाते हैं। (10.58.1-12) सभी 12 मंत्रों के अंत में एक वाक्य समान रूप से जुड़ा हुआ है क्योंकि संसार में ही आपका जीवन है – तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे। यहां संसार माया नहीं यथार्थ है।

यजुर्वेद ऋग्वेद का परवर्ती है। लेकिन ऋग्वेद के 663 मंत्र ज्यों के त्यों यजुर्वेद में भी हैं। यजुर्वेद के रचनाकाल तक भारतीय दर्शन का समुचित विकास हो चुका है। ऋग्वेद के अनेक सूक्त दार्शनिक है। ऋग्वेद में विश्व दर्शन का झरोखा है। यजुर्वेद यज्ञ प्रधान है लेकिन इसी का आखिरी अध्याय (40वां) ही विश्व की प्रथम उपनिषद् ईशावास्योपनिषद् बना। ईशावास्योपनिषद् दुनिया के तमाम विश्वविद्यालयों के कोर्स में है। कम लोग जानते हैं कि यजुर्वेद के 34वें अध्याय के प्रथम 6 मंत्रों को भी उपनिषद् की मांयता मिली। 6 मंत्रों वाली इस छोटी सी उपनिषद् का नाम ‘शिव संकल्प’ उपनिषद् पड़ा। छहों मंत्र बड़े प्यारे हैं और मनोविज्ञान में रूचि रखने वाले विद्वानों के दुलारे भी हैं। यजुर्वेद का यही हिस्सा मनोविज्ञान या मनः शास्त्र का सम्यक् विवेचन है। यहां मन की शक्तियों को जीवन की सफलता के लिए जोड़ने का संकल्प है। उपनिषद् प्रेमियों ने ठीक ही इसका नाम ‘शिवसंकल्पोपनिषद्’ रखा है। पहले मंत्र में मन का खूबसूरत विश्लेषण है – जैसे जाग्रत अवस्था में यह मन दूर-दूर तक जाता है, वैसे ही सोए हुए व्यक्ति का मन भी दूर-दूर तक भ्रमण करता है। गतिशील यह मन इंद्रियों की ज्योति-संचालक है। यह जीवन ज्योति का माध्यम है। स्तुति है कि यह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो। मन का सबसे बड़ा गुण है विकल्प। यहां, वहां, इधर-उधर, जिधर, किधर, लेकिन, किंतु, परंतु और यथा तथा सब मन के विकल्प हैं। सदा असंतुष्ट रहना उसकी प्रकृति है सो मन विकल्पों का रसिया है। उसकी क्षमता बड़ी है। वही शोक, हताशा, निराशा और विषाद का कारण है सो वही बंधन है, वही हर्ष, उत्साह, प्रसाद का सोपान भी है सो वही मुक्ति का द्वार भी है।

तमाम शास्त्रों व उपनिषदों में एक साथ दोहराया गया मन संबंधी एक श्लोक स्मरणीय है – ‘मन एवं मनुष्याणां कारणं बंधन मोक्षयोः’ – मन ही मनुष्यों के बंधन और मोक्ष का कारण है। फिर बंधन और मोक्ष के बारे में कहते हैं विषयों में आसक्ति बंधन है। विषयों से मुक्त मन मुक्ति है – बंधय विषयासक्तं, मुक्तये निर्विषयं। यजुर्वेद के ऋषि इसी मन को ‘शिव संकल्प’ से जोड़ना चाहते हैं। ऋषि मोक्षकामी नहीं हैं। वे संसार का लोकमंगल चाहते हैं। उनके सपने लौकिक हैं। पूरे सभी 6 मंत्रों के अंत में ऋषियों की एक ही लोकमंगल अभीप्सा है ‘तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु’ – वह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पो वाला हो। दूसरे मंत्र में कहते हैं सत्कर्मी मनीषी जिस मन ने यज्ञ-शुभ कर्म करते हैं, जो मन सभी जीवों के शरीर के भीतर उपस्थित है, वह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पो वाला हो। तीसरे मंत्र में मन को ही ज्ञान, धैर्य और चेतना का धारक बताते है, प्रज्ञान युक्त, धीर और चेतन मन समस्त प्राणियों के अंतःकरण में दिव्य ज्योति स्वरूप है, इसके अभाव में कोई भी कार्य नहीं हो सकता। वह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो। मन अविनाशी है उसकी सामर्थ्य अपरंपार है, कहते हैं, जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य है, जिससे सत्कर्मो को विस्तार मिलता है वह हमारा मन श्रेष्ठ संकल्पो वाला बने।

प्रार्थना की क्षमता बड़ी है। प्रार्थना का केंद्र हृदय है। प्रार्थना का कर्म भौतिक है, मर्म आधिभौतिक है, प्रभाव रासायनिक है। चंचल मन को लोककल्याण से जोड़ना आसान नहीं है। विकल्पों में ही रमने वाले गतिशील परिवर्तनशील घुमंतू मन को संकल्प के खूंटे से बांधना सामांय काम नहीं है। यजुर्वेद के रचनाकाल में बेशक यज्ञ हैं लेकिन यज्ञ की कार्यवाही भी विकल्प प्रेमी मन को संकल्पों से नहीं जोड़ पाती। सो प्रार्थना ही एक मात्र उपाय है। ऋग्वेद के ऋषि मन को नमस्कार करते हैं। यजुर्वेद के ऋषि सीधे उसी से प्रार्थना करते हैं। मुक्त स्वेच्छाचारी और स्वच्छंद से ही एक जगह, एक केंद्र में रूकने की प्रार्थना पूरी दिलचस्प है। आगे कहते हैं, जिस मन में ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के गान हैं, जैसे रथ के पहिए आरे हैं, जिस मन में संपूर्ण प्रज्ञाओं का ज्ञान है वह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो। आगे मन का स्वभाव और निवास स्थान भी बताते हैं, जो कभी बूढ़ा नहीं होता, अतिवेगशाली है, हृदय में रहता है, कुशल सारथी की तरह अश्वों को नियंत्रित कर ठीक जगह पहुचाता है, वह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो। मन वास्तव में कभी बूढ़ा नहीं होता। बूढ़े थके लोगों का मन भी तेज रफ्तार भागता है। मन इंद्रियों का सारथी है। इंद्रियां उसी के कहे विषय भोग मांगती हैं। इसी मन को लोक कल्याण में लगाने की स्तुतियों में गजब की जिजिवीषा है। ऐसी जिजिवीषा विश्व साहित्य में अंयत्र कहीं नहीं मिलती।

वैदिक कालीन समाज हर्षोल्लास पूर्ण था। दर्शन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भरपूर था। मनोविज्ञान के रहस्यों से अवगत था। वह मनः शक्ति की विराट् ऊर्जा से सुपरिचित था। आधुनिक मनोविज्ञानी मनोविकारों के लिए औषधियां बताते हैं। वैदिक समाज भी तमाम औषधियों से परिचित लेकिन प्रार्थना शक्ति की खोज विश्व समुदाय को भारत की अद्भुत देन है। वैदिक साहित्य में प्रकृति की शक्तियों के प्रति प्रार्थी भाव है। पश्चिमी साहित्य और समाज में प्रकृति की शक्तियों के प्रति भोगवादी आक्रामकता है। मन को सरल और ऋक् रेखा में लाने का उपाय शिव संकल्प की प्रार्थना के अलावा और हो ही क्या सकता था? प्रार्थना का कोई विकल्प नहीं। यजुर्वेद की तमाम प्रार्थनाएं और नमस्कार के विषय भौचक करते हैं। ऋषि कहते हैं – ‘नमो हृस्वाय च वामनाय च नमो वृहते’ – अति छोटे कद वाले को नमस्कार, बौने को नमस्कार और बड़े शरीर वाले को भी नमस्कार है। (16.30) फिर कहते हैं, प्रौढ़ को नमस्कार, वृध्द को नमस्कार, अतिवृध्द को नमस्कार, तरूण को नमस्कार, अग्रणी और प्रथमा को भी नमस्कार है। यही परंपरा ऋग्वेद की भी है इंद नमः ऋषिभ्यः, पूर्वजेभ्यः, पूर्वेभ्यः पथिकद्भ्यः – ऋषियों को नमस्कार, पूर्वजों को नमस्कार, बड़ों को नमस्कार, मार्गद्रष्टाओं को भी नमस्कार है। (10.14.15) प्रार्थना और नमस्कार दरअसल मनः शक्ति संवर्ध्दन के ही अजब-गजब उपकरण हैं।

* लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं।

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