
ब्रहत हो स्वत्व ब्रह्म गति धाता,
परम सत्ता का स्वाद चख पाता;
अहं को फिर कहाँ है भा पाता,
सृष्टि को अपनी समझ रस लेता !
दोष दूजों में तब न लख पाता,
समझ हर अपना द्वैत ना रहता;
किए सहयोग तब चला होता,
योग की हर कड़ी मगन रहता !
घड़ी हर घट में ध्यान कर चलता,
घाट हर ठाठ देख मुस्काता;
तटस्थित रह के तीर हर रमता,
राह हर चमन देख ख़ुश रहता !
योजना कोई तब कहाँ रहती,
प्रयोजन उनके सब हुआ होता;
सृष्ट की सेवा लगा नित होता,
बना सेवक वो सब तका होता !
ह्रास ना होता वेग बहु वरता,
त्रास भी व्यथित उसे ना करता;
चले आयाम विविध वह होता,
प्रयोग प्रभु के ‘मधु’ किया होता !
✍? गोपाल बघेल ‘मधु’