प्रीति कुमारी
परिवार स्थायी एवं सार्वभौमिक संस्था है, परन्तु प्रत्येक स्थान पर इसके स्वरूप में भिन्नता पायी जाती है। उदाहरणार्थ – पश्चिमी देशों में मूल परिवार या दाम्पत्य परिवार की प्रधानता थी तो भारतीय गांव में संयुक्त परिवार या विस्तृत परिवार की। परिवार के अभाव में हम समाज की कल्पना नहीं कर सकते हैं। आगस्त काम्टे ने परिवार को समाज की आधारभूत इकाई कहा है। समाजशास्त्री परिवार को संस्था और समूह दोनों मानते हैं। परिवार मनुष्य के जीवन का बुनियादी पहलू है। भारत में तो परिवार का और भी महत्व है क्योंकि आदिकाल से ही यह वृद्धों का मुख्य आश्रय रहा है जो उनकी भावनात्मक शारीरिक व आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। संयुक्त परिवार व्यवस्था में वृद्धों को अपेक्षानुरूप सुरक्षा, सम्मान, आत्मीयता व मानसिक संतुष्टि प्राप्त थी। संयुक्त पूंजी, संयुक्त निवास तथा संयुक्त उत्तरदायित्व के कारण आर्थिक सुरक्षा होने तथा परिवार की सत्ता वृद्ध व्यक्तियों के हाथों में केन्द्रित होने के कारण परिवार में उनका प्रभुत्व था परन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में औद्योगीकरण, नगरीकरण, प्रवजन, आधुनिकीकरण, नवीन आर्थिक व्यवस्था तथा सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि ने परिवार की परम्परागत, संरचनात्मक व प्रकार्यात्मक प्रकृति को विखंडित कर दिया है तथा उनके स्थान पर एकाकी परिवारों का प्रचलन बढ़ा है जो युवा पीढ़ी के लिए उपयुक्त व सुविधाजनक सिद्ध हो रहा है। संयुक्त परिवार के टूटने का महत्वपूर्ण कारण नित्य बढता उपभोक्तवाद है।जिसने व्यक्ति को अधिक महत्वाकांक्षी बना दिया है। अधिक सुविधाएँ पाने की लालसा के कारण पारिवारिक सहनशक्ति समाप्त होती जा रही है और स्वास्थ्यपरता बढ़ती जा रही है। अब वह अपनी खुशियाँ परिवार या परिवारजनों में नहीं बल्कि अधिक सुख साधन जुटा कर ढूढ़ता है, यही संयुक्त परिवार के बिखरने का कारण बन रहा है। एकल परिवार में रहते हुए मानव भावनात्मक रूप से विकलांग होता जा रहा है। आज के युवा के लिए बुजुर्ग व्यक्ति घर में विद्यमान मूर्ति की भाँति होता है जिसे सिर्फ दो वक्त की रोटी, कपड़ा और दवा – दारू की आवश्यकता होती है। उनके नजरिये के अनुसार बुजुर्ग लोग अपना जीवन जी चुके होते है। उनकी सम्पूर्ण इच्छाएँ, भावनाएं, आवश्यकताएं सीमित होती हैं, जबकि वर्तमान का बुजुर्ग एक अर्द्धशतक वर्ष पहले के मुकाबले अधिक शिक्षित है एंव मानसिक स्तर भी अधिक अनुभव के कारण अपेक्षाकृत ऊँचा है। अत: वह अपने जीवन के अंतिम प्रहार की प्रतिष्ठा से जीने की लालसा रखता है। वह वृद्धावस्था को अपने जीवन की दूसरी पारी के रूप में देखता है जिसमें उस पर कोई जिम्मेदारियों का बोझ नहीं होता वह निष्क्रिय न बैठकर मनपसंद के कार्य करने की इच्छा रखता है चाहे आमदनी हो या न हो। परिवार पर बढ़ते आर्थिक बोझ, शहरों में आवासीय समस्याओं, अत्यधिक मंहगाई व सीमित आय के कारण परिवार के युवा सदस्य माता -पिता को अपने साथ रखने में असमर्थ हैं। जो संयुक्त परिवार शेष हैं भी वे परम्परागत आदर्शों में बहुत दूर हट चुके हैं। पीढ़ी अंतराल पश्चिमी रंग – ढंग और नवीन सोच के कारण पुरानी व नई पीढ़ी में टकराव स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है। फलतः वृद्धिजन न केवल पारिवारिक देखभाल से वंचित हो रहे हैं वरन् पर्याप्त संस्थागत साधनों के अभाव में परिवार में वृद्धों के प्रति उपेक्षा की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। बच्चों में बढ़ रही स्वायत्तता की भावना के परिणामस्वरूप माता – पिता व बच्चों के सम्बन्ध शिथिल हो रहे हैं। पारिवारिक विघटन से उत्पन्न इस रिक्तता को ओल्ड एज होम एवं अन्य सहायता समूहों द्वारा भरने की कोशिश की जा रही है। परन्तु ओल्ड एज होम एवं सहायता समूहों द्वारा परिवार की सुरक्षा एवं उत्साह का उपस्थापन नहीं किया जा सकता। अत: परिवार को संतुष्टि व स्थायित्व प्रदान करने हेतु एक स्वस्थ सामाजिक परिप्रेक्ष्य की नितांत आवश्यकता है।