बुद्ध और कबीर की पुण्यभूमि में

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मेरे पिछले दो दिन ऐसे बीते, जो जीवन में हमेशा याद रहेंगे। मैंने महात्मा बुद्ध का जन्म स्थान, लुम्बिनी देखा। उनका परिनिर्वाण-स्थल कुशीनगर देखा। संत कबीर के निर्वाण स्थल मगहर के भी दर्शन किए। यहां के अत्यंत लोकप्रिय भाजपा सांसद श्री जगदंबिका पाल का निमंत्रण था कि बस्ती के प्रेस क्लब के नव-निर्वाचित पत्रकारों के समारोह में आप मुख्य अतिथि बनें। सो बन गया। बस्ती में पत्रकारों ने इतनी शालें उढ़ा दीं कि मैं दंग रह गया। महात्मा बुद्ध का जन्म लुम्बिनी में 2500 साल पहले हुआ था। तब यह स्थल भारत में ही था लेकिन अब नेपाल में है। मैं नेपाल कई बार गया लेकिन काठमांडो से लुम्बिनी का रास्ता 10 घंटे का है। किसी भी नेपाली प्रधानमंत्री या नरेश से मैं कहता तो वे हेलिकाॅप्टर या जहाज की व्यवस्था कर देते लेकिन मैं सदा संकोचग्रस्त ही रहा। जगदंबिकाजी ने इस बार सारी व्यवस्था कर दी। मैं चीन, जापान, कोरिया, श्रीलंका, भूटान, नेपाल, अफगानिस्तान और मध्य एशिया के राष्ट्रों में लगभग सभी बौद्ध क्षेत्रों को देख चुका हूं लेकिन लुम्बिनी और कुशीनगर में मुझे जो रोमांच हुआ, वैसा मुझे सिर्फ अजमेर में महर्षि दयानंद के कार्य-स्थल को देखकर हुआ था। इन दोनों महापुरुषों का कोई जोड़ीदार मुझे सारे विश्व में दिखाई नहीं पड़ता, हालांकि दोनों दार्शनिक दृष्टि से दो परस्पर विरोधी सिरों पर खड़े दिखाई पड़ते हैं। दर्शनशास्त्र के छात्र के नाते मैं आस्तिकवाद पर कितने ही गंभीर तर्क करता रहा लेकिन अब मुझे सृष्टि के निमित्त कारण (सृष्टिकर्ता) पर शक होने लगा है। ईसाइयों के एक विश्व सम्मेलन में मैंने बाइबिल के कथन से उल्टा यह भी कह दिया कि ईश्वर मनुष्यों का पिता नहीं है बल्कि मनुष्य ईश्वरों के पिता हैं। मनुष्यों को जैसा ईश्वर पसंद आता है, वैसा ही वे गढ़ लेते हैं। सृष्टि स्वचालित है। यह बुद्ध की दृष्टि है। बुद्ध आत्मा की अमरता, पुनर्जन्म और कर्मफल को मानते हैं। मैं सोचता हूं कि वे सृष्टिकर्ता को नहीं मानते हैं तो भी क्या फर्क पड़ता है ? उसकी जगह उनके भक्तों ने बुद्ध को ही भगवान मान लिया है। कबीर ने मगहर में प्राण त्यागे, क्योंकि वे इस अंधविश्वास को चुनौती देना चाहते थे कि जो काशी में मरे, वह स्वर्ग जाता है और जो मगहर में मरे, वह नरक जाता है। अगले जन्म में वह गधा बन जाता है। कबीर जैसे क्रांतिकारी चिंतक दुनिया में कितने हुए हैं ? कबीर के सैकड़ों दोहे मुझे बचपन से ही कंठस्थ हैं। कभी वे मेरी लालटेन बनते हैं, कभी मेरा कुतुबनुमा, कभी मेरी दूरबीन, कभी मेरी खुर्दबीन, कभी मेरा चश्मा, कभी मेरी बांसुरी, कभी मेरा मरहम और कभी मेरी ठंडाई !

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