बजट २०११-१२ : विसंगतियों का पिटारा…..

वर्तमान बजट पर देश के अर्थशास्त्रियों के सिरमौर कहे जाने वाले हमारे माननीय प्रधानमंत्री जब वित्तमंत्री जी को शाबासी देते हैं तो मेरे जैसे अज्ञानी की अनचाहे ही बजट के बारे में उत्सुकता होना स्वाभाविक ही है ,जब उत्सुकता है तो विषयांतरगत आद्द्योपंत बजट पर माथा-पच्ची भी जरुरी हो जाती है. यह मानवीय स्वभाव की ही विशेषता नहीं बल्कि मानवेतर प्राणियों में भी प्राय: देखा गया है कि व े अपना हित अनहित पहचानते हैं .गोस्वामी तुलसीदास जी ने बहुत सटीक कहा है –

’हित अनहित पशु पक्षिंह जाना ….”

अब यदि किसी देश की जनता अपने द्वारा चुनी गई सरकार से जो अपेक्षाएं रखती है और वे पूरी होतीं हैं तो यह जनता और राजनीतिज्ञों की जागरूकता का परिणाम है और यदि जनता को लगता है कि उसके जनादेश का सम्मान नहीं हो रहा और उसे मूर्ख बनाया जा रहा है कुछ करना चाहिए यथा संयुक-संघर्ष जैसा कुछ तो भी यह जनता की सामूहिक हितेषी –

सजगता का ही परिणाम होगा .किन्तु जब जनता को लगातार मूर्ख बनाया जाता रहे; नेतृत्व निरापद नकारात्मक नीतियों पर चलता रहे और प्रचार माध्यमों की ताकत से सब कुछ सहनीय बना दिया जाय तो यह जनता और नेतृत्व दोनों की सेहत के लिए ठीक नहीं है .यु पी ऐ सरकार का यह बजट भी अपने पूर्ववर्ती बजटों की प्रति-छाया मात्र है .जिस तरह से विगत १० वर्षों में{यु पी ऐ प्रथम के कामं न मिनिमम प्रोग्राम को छोड़कर र्थिक सुधारों के बहाने जन-कल्याण की हितकारक मदों से पूर्ववर्ती विभिन्न सरकारों ने पल्ला झाडा और राजकोषीय घाटे की पूर्ती के लिए देश की निम्न मध्यमवर्गीय जनता पर इसका बोझ लादा; वह देश की जी डी पी को कितना आगे ले गया यह तो कोई महा-मूढमती भी बता देगा. कम से कम हजारों किसानो की आत्महत्या और देश के चमकदार साढ़ेचार दर्ज़न ’मिलियेनर्स’की उपलब्धी तो इस आर्थिक नीति का ही परिणाम है .जि समें ऐसें बजट बनाये जाते हैं जिन पर मानवीय-मूल्यों की वरक का कवर तो चढ़ा हो किन्तु उस आर्थिक नियामक पिटारे के अन्दर विसंगतियों की चासनी में लूट और भृष्टाचार का लालीपाप ही अंतिम निष्कर्ष के रूप में हर बार शेष रह जाता है .

महान क्लासिक व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल ने अपने ख्यातनाम उपन्यास ’राग दरवारी’ में ठीक ही लिखा है कि’ ”इस देश कि अर्थव्यवस्था उस उस पुराने ट्रक इंजन कि तरह है जिसका एक्सीलिरेटर टॉप गियर में बार-बार डालने पर भी वह थर्ड में खुद-ब-खुद जाकर दम तोड़ने लगता है ” इस पूंजीवादी व्यवस्था का यह स्थाई-भाव है कि यह ”सुपर मुनाफों ”कि ओर भागती है. जिसे हमारे विद्वान वित्तमंत्री जी :आर्थिक विकास की दर’ कहते हैं वो और कुछ नहीं सिर्फ देशी-विदेशी निवेशकों को लाल-कालीन बिछाकर ”पुटियाने” का व्यावसायिक तरीका मात्र है .

कहा जा रहा है की वर्तमान बजट बेहद संतुलित और आर्थिक विकास दर के उच्च अंतर-राष्ट्रीय मानकों के करीब ले जाने की कूबत रखता है, इन्फ्रास्त्रक्चार और निर्माण के क्षेत्र में ,केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों में यत्र – तत्र जनता की हिस्सेदारी को निजी मिल्कियतों में बदलने का जोर भी इस बजट में है ,जो देश को उस तरफ ले जायेगा जहां पर मुसीबतों के पहाड़ टूटा करते हैं , हालाँकि आंगनवाडी सहाय� ��काओं या मनरेगा-मजदूरों की मजदूरी में बढ़ोत्तरी के लिए कुछ सकारात्मक सुझाव माननीय वित्त मंत्री जी ने रखे हैं इसके लिए मैं व्यक्तिश: प्रणव दादा को नमन करता हूँ, उनकी भूरी-भूरी प्रशंसा करता हूँ .किन्तु ५ करोड़ भूमिहीन खेतिहर मजदूरों ,सूखा -पाला-पीड़ित किसानों ,शिक्षित बेरोजगारों की विपन्न अवस्था के लिए आजाद देश में और कितनी पीढ़ियों तक मरना-मिटना होगा?

किसानो के लिए प्रस्तावित कर्ज की राशी चार लाख ७५ हजार करोड़ भले ही निर्धरित की गई हो किन्तु ये पैसा वास्तविक अभ्यर्थियों तक पहुँचाने का विश्वसनीय नेटवर्क कहाँ हैं .? पटवारी -रेवेन्यु इंस्पेक्टर से लेकर राज्यों के मंत्रियों तक और ग्राम-पंचायत के सचिव से लेकर बैंक के मेनेजर तक अधिकांश महा-भृष्टाचार की वैतरणी में गोते लगा रहे हैं .थोक मूल्यों और खुदरा मूल्यों पर सिर्फ चिंता परकट करने से सवा सौ करोड़ की आबादी वाला देश राहत की उम्मीद कैसे कर सकता है . बेरोज़गारी -भत्ता या रोजगार गारंटी की बात करना ,उनकी मांग उठाना क्या सिर्फ मार्क्सवादियों के हिस्से रह गया है .जब तक विदेशों में जमा कालाधन वापिस नहीं लाया जाता, जब तक ,देश के अन्दर भू -माफिया पर अंकुश नहीं लगाया जाता ,जब तक भूमि-सुधार कानून बनाकर उसे सख्ती से अमल में नहीं लाया जाता और आर्थिक विकास के लिए वैक ल्पिक नीतियों का संधारण नहीं किया जाता ,जब तक भृष्टाचार ख़त्म करने की कोई ठोस कार्य योजना नहीं बनाई जाती तब तक ऐसे लोक लुभावन बजटों से-राजाओं ,रादियाओं ,अम्बानियों ,टाटाओं ,कल्मादियों रेड्दियों के साथ-साथ सोने की ईंटों के तलबगार भ्रष्ट अधिकारीयों के वारे-न्यारे होते रहेंगे . ऐसे बजटों से नक्सलवाद से नहीं लड़ा जा सकता .जब तक देश में ७७%लोगों की आमदनी मात्र २० रूपये रोज की रहेगी ,जब तक भारत में नंगा भूँखा इंसान रहेगा तब तक देश में तूफ़ान की संभावना बनी रहेगी .

– श्रीराम तिवारी

2 COMMENTS

  1. लेख बहुत अच्छी है, लेकिन बजट के विश्लेषण में थोड़ी गहरेपण की कमी है. ————-
    ————-
    सोच लोकहितकारी है. ——– एक अच्छी पहल के लिए बधाई.

  2. श्री तिवारी जी बिलकुल सही कह रहे है की यह बजट केवेल विसंगतियों का पिटारा है. यह तो केवेल पुराने सरकूलर का कापी पेस्ट कर के तारीख बदल दी गई है. करोडो नहीं बल्कि अरबो, खरबों, संखो रुपए आम आदमी की लिए रख दो – भ्रष्ट अधिकारी, कर्मचारी, नेता हजम कर जायेंगे – डकार भी नहीं लेंगे. आम आदमी भूखा ही रहेगा तब तक भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लगेगी. कहावत है की घुटना मुड़ता है तो पेट की तरफ ही मुड़ता है. वैसे है भ्रष्ट तंत्र में सब ‘चोर चोर मोसरे भाई है’.
    लार्ड मेकाले ने साड़े तीन साल भारत में रह कर भारत को हजारो साल के लिए गुलाम बना कर चला गया है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,815 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress