हालांकि यह पहले से ही तय था कि सोनिया गांधी जल्द ही राहुल पर पार्टी की बड़ी जिम्मेदारी डालेंगी, डाल भी दी थी महासचिव बना कर, मगर जैसे ही उन्हें किसी अज्ञात बीमारी का इलाज कराने के लिए विदेश जाना पड़ा, उन्हें चार दिग्गजों के कार्यवाहक ग्रुप का सदस्य बना दिया। समझा यही जा रहा था कि सोनिया एकाएक सारा भार उन पर फिलहाल नहीं डालेंगी, मगर इलाज करवा कर लौटने के बाद के हालात से यह साफ हो गया सोनिया में अब वह ऊर्जा नहीं रही है कि तूफानी चुनावी दौरे कर सकें। अथवा विवादास्पद विषयों पर मैराथन बैठकें ले सकें। उसी का परिणाम है पार्टी के लिए सर्वाधिक प्रतिष्ठा का सवाल बने आगामी उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में प्रचार का श्रीगणेश राहुल को करना पड़ा। जाहिर तौर पर उत्तरप्रदेश के चुनाव जहां कांग्रेस का भविष्य तय करने वाले हैं, वहीं राहुल के लिए भी अग्निपरीक्षा के समान हैं। इसी चुनाव में उनकी नेतृत्व क्षमता की वास्तविक परीक्षा होनी है।
यह सर्वविदित ही है कि कांग्रेस की कमान वंश परंपरा से जुड़ी हुई है, इस कारण सोनिया के बाद देर-सवेर राहुल को ही मोर्चा संभालना था। कांग्रेस के अंदरखाने से छन-छन कर आ रही खबरों में तो यहां तक बताया जा रहा है कि सोनिया के स्वास्थ्य कारणों की वजह से जल्द ही राहुल को पार्टी का कार्यवाहक अध्यक्ष बनाया जा सकता है। अर्थात सोनिया समयबद्ध तरीके से जिस प्रकार राहुल पर भार बढ़ाती जा रही थीं, उस अनुमान से पहले ही राहुल पर बड़ी जिम्मेदारी आ पड़ी है। उनके लिए चुनौती इस कारण भी अधिक है क्योंकि यूपीए सरकार का दूसरा कार्यकाल सर्वाधिक जलालत भरा रहा है। सरकार को लगभग असफल ही करार दिया जाने लगा है। एक महत्वपूर्ण पहुल ये भी है कि उनको राजीव और सोनिया की तरह का संवेदनापूर्ण माहौल हासिल नहीं है। हालांकि प्रोजेक्ट भले ही यह किया जा रहा है कि राहुल युवाओं के आइकन के रूप में उभरेंगे, मगर सच ये है कि उनके व्यक्तित्व में राजीव और सोनिया की तरह की चमक और आकर्षण नहीं है। कई बार इसी कारण चर्चा उठती रही है कि कांग्रेस का बेड़ा पार करना है तो प्रियंका को आगे लाना होगा। कांग्रेस नेता भी इस राय से इत्तफाक रखते हैं, मगर कदाचित सोनिया गांधी ऐसा नहीं करना चाहतीं। वे जानती हैं कि प्रारंभिक दौर में ही यदि प्रियंका को आगे कर दिया तो राहुल में जो भी संभावना मौजूद होगी, उसकी भ्रूण हत्या हो जाएगी।
बहरहाल, राहुल की कांग्रेस में अब जो भूमिका है, उसे देखते हुए जाहिर तौर पर मीडिया उनकी हर एक हरकत पर नजर रखने लगा है। उनके एक-एक बयान पर तीखी टीका-टिप्पणी होती है। मसलन इसी बयान को ही लीजिए कि उत्तरप्रदेश के युवा महाराष्ट्र में भीख मांगने क्यों जाते हैं, इस पर लगभग सभी प्रमुख न्यूज चैनलों ने जम कर लाइव बहस करवाई। राहुल ने जिस भी संदर्भ में यह बयान दिया हो, मगर उनके इस बयान को कच्चा और अदूरदर्शी जरूर माना गया। हालत ये हो गई कि उनकी पार्टी के नेताओं को लाइव बहस में भारी परेशानी झेलनी पड़ी। अभी तो शुरुआत भर है। सब जानते हैं कि मीडिया की धार आजकल काफी तीखी है, कई बार पटरी से उतरी हुई भी होती है, कई बार निपटाओ अभियान सी प्रतीत होती है, उसका मुकाबला वे कैसे कर पाते हैं, कुछ कहा नहीं जा सकता।
उधर विपक्ष भी जानता है कि कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने का यह मौका सर्वाधिक मुफीद है। इस कारण विपक्षी दल भी उन पर ताबड़तोड़ हमला करने को आमादा हैं। उनके हमले पार्टी की बजाय व्यक्तिगत ज्यादा होते हैं, मगर इसमें दोष आरोप लगाने वालों का नहीं, क्योंकि यह पार्टी टिकी ही व्यक्तिवाद और वंशवाद पर है। पूर्व में इंदिरा गांधी और राहुल गांधी के समय में भी सीधे उन पर टीका-टिप्पणी हुआ करती थी। ऐसे में राजनीतिक विश्लेषक यही मानते हैं कि भले ही उम्र के लिहाज से राहुल अब परिपक्व हो गए हैं, मगर अनुभव के लिहाज से अभी वे कच्चे ही हैं। अर्थात जिस कठिन डगर पर उन्हें आगे चलना है, उसके लिए बहुत कुछ सीखना अभी बाकी है।
ताजा दौरा तो फिर भी चुनावी है, इस कारण गहमागहमी ज्यादा है, मगर राहुल को उत्तर प्रदेश के पिछले दौरे में भी कुछ युवा संगठनों का कड़ा विरोध झेलना पड़ा था। विधानसभा चुनावों से पहले युवकों व छात्रों से सीधा संवाद स्थापित करने के लिए निकलने पर उन्हें आरक्षण, महंगाई और भ्रष्टाचार के सर्वाधिक चर्चित मुद्दों के साथ ही अपनी राजनीतिक पृष्ठभूमि तक से संबंधित सैकड़ों सवालों का सामना करना पड़ा। उनमें युवाओं को जोश भले ही नजर आया, मगर अनेक सवालों का संतोषजन जवाब न मिलने पर अनुभव की कमी भी साफ नजर आई। वाराणसी, इलाहाबाद, आगरा व लखनऊ में उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा। हालांकि यह सही है कि युवा उनके प्रति आकर्षित हैं, मगर साथ ही विरोध भी कम नहीं है। शायद ही कोई ऐसी सभा अथवा कार्यक्रम रहा हो, जहां उन्हें जिंदाबाद के साथ मुर्दाबाद की आवाजें नहीं सुननी पड़ी हों। लोगों में राहुल से अधिक उनकी सरकार के प्रति नाराजगी है, मगर पार्टी के राजकुमार होने के नाते इसे झेलना तो उन्हें ही होगा।
राहुल जब बोलता है, तो, नेता नहीं, अभिनेता की भाँति बोलता हुआ प्रतीत होता है।
उसे वक्तृत्व की शिक्षा देनेवाला, प्रभावी वक्तृत्व कलाकार है, यह स्पष्ट हो जाता है।
कुछ आरोह अवरोह और हाथों का हिलाना, अंगुलि निर्देश सारा ठीक सिखाया लगता है।
पर राहुल की कठिनाई दूसरी है। वह है शासन का भ्रष्ट, अक्षम कारभार। मनमोहन सिंह जी के बदले कोई भी होता, तो जैसा इन्दिरा जी ने नेतृत्व की अवहेलना करते हुए, अपना पैर जमाया था, वैसे शक्ति दिखा चुका होता।
पर मन्मोहन सिंह जी, इतिहास में, आज तक के सभी प्रधान मन्त्रियों में निम्न तम गिने जाने की भारी सम्भावना है।
राहुल भी कांग्रेस के डूबते सूरज की अगुवाई करने वाला ही समझा जा सकता है।
पर फिर पता नहीं, इस भारत की भोली जनता, नारों पर और वोटोंपर बिकती जनता, जाति, जमाती, धर्म-मज़हब-सम्प्रदाय से प्रभावित जनता, और नियंत्रित वोटींग मशिनों के कारण कुछ भी हो सकता है। आप सोचिए।
भोली गरीब जनता राहुल बाबा के झोंपडी भेंट से ही प्रभावित हो गयी, तो कुछ कहा नहीं जा सकता।
प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद
इस लेख का राइटर कौन है, जो बिना नाम के अपनी बात कह रहा है