लेखकीय एवं संपादकीय काहिली तथा हिन्दी का बिगड़ता स्वरूप

ब्रज बिहारी कुमार 

विश्व की सभी भाषाएँ दूसरी भाषाओं से शब्द ग्रहण करती है और विकसित होती हैं। अंग्रेजी में ऐसा सर्वाधिक हुआ है। उस भाषा में दूसरी भाषाओं से आगत शब्दों की संख्या विश्व की किसी भी भाषा की तुलना में अधिक है। हिन्दी में भी अंग्रेजी, अरबी, फारसी, तुर्की आदि भाषाओं से आये शब्दों की संख्या हजारों में है। आगत शब्दों को ग्रहण करने के लिए कुछ नियमों का पालन आवश्यक होता है, जो निम्नलिखित हैं:

1. शब्द ग्रहण करनेवाली भाषा में आगत शब्दों के लिए अपने शब्द नहीं होते।

2. आगत शब्दों पर शब्द ग्रहण करनेवाली भाषा के ध्वनि नियम लागू होते हैं और वे शब्द उस में भाषा रचपच जाते हैं।

3. आगत शब्द उस भाषा के व्याकरण के अनुसार प्रयुक्त होते हैं।

 

हिन्दी भाषा में इन बातों का पालन नहीं किया जा रहा है। इस बात को भुलाया जा रहा है कि भारतीय भाषाओं का साहित्य अत्यन्त प्राचीन तथा समृद्ध रहा है। यही बात इन भाषाओं के शब्द सम्पदा के विषय में भी कहीं जा सकती है। दुर्भाग्य की बात है कि अपनी समृद्ध शब्द-सम्पदा के होते हुए भी इन भाषाओं, विशेषत: हिन्दी में, अंग्रेजी, फारसी एवं अरबी शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से किया जाने लगा है। हिन्दी बोलते या लिखते समय अंग्रेजी शब्दों एवं वाक्यों के प्रयोग से इस भाषा का स्वरूप विकृत होता जा रहा है। हिन्दी एक पिजिन या फिर क्रेओल भाषा बनती जा रही है। यह एक दोगली भाषा तथा दोगली संस्कृति की वाहक बनती जा रही है। भाषायी अराजकता तेजी से फैल रही है।

 

स्थिति भयावह है। आनेवाली पीढ़ी के लिए अपनी भाषायी पहचान खोने का खतरा वास्तविक होता जा रहा है। समस्या का निदान आवश्यक है।

 

हिन्दी में इस भाषायी अराजकता के कुछ कारण नीचे दिए जा रहे हैं :

1. हिन्दी लेखकों एवं सम्पादकों की काहिली: लेखक कुछ लिखने या बोलने के समय अपने दिमाग पर जोर देना नहीं चाहते; आलस्यग्रस्त रहते हैं। सम्पादक जो कुछ आता है, भाषा पर ध्यान न देकर छाप देते हैं।

 

2. हिन्दी लेखकों की तीव्र्र हीनता-ग्रन्थि : उनमें यह दिखाने की प्रबल इच्छा होती है कि वे अंग्रेजी भी जानते हैं। उनमें से कई अंग्रेजी शब्दों का उच्चारण करते समय यथा-संभव अंग्रेजी उच्चारण की नकल तथा उस भाषा के कुछ व्याकरण के नियमों; जैसे ”स्कूल्स”, ”स्कूलों” नहीं, का परिपालन करते हैं।

 

3. लिपि एवं भाषा के विभेद को भुलाया जा रहा है। इस बात को ध्यान में नहीं रखा जा रहा है कि देवनागरी लिप्यान्तरण से कोई शब्द हिन्दी का नहीं हो जाता है।

 

4. समाचार माध्यमों – अखबारों, पत्रा-पत्रिकाओं, रेडियो, दूरदर्शन – में भाषा नीति का अभाव भी हिन्दी की दुर्दशा का प्रमुख कारण है। समाचार माध्यम लगातार इस भाषा का स्वरूप बिगाड़ रहे हैं। दूरदर्शन में देवनागरी शीर्षक को हटाकर हिन्दी फिल्मों/धारावाहिकों तक के शीर्षक रोमन लिपि में देने का प्रचलन बढ़ रहा है।

 

5. वामपंथी रूझान के लेखक/पत्रिकाएं अनावश्यक रूप से कठिन विदेशी शब्दों का प्रयोग तथा प्रचलित शब्दों का तद्भवीकरण करती हैं। इस देश का पढ़ा-लिखा वर्ग अपने बच्चों को हिन्दी सिखाने पर बल नहीं देता। उसका भ्रम है कि मातृभाषा सीखी नहीं जाती, स्वयं आ जाती है। देश के जागरूक तबके को तो कम से कम इस बात को स्वीकार करके उसे कार्यरूप देना ही चाहिए कि मातृभाषा भी सीखी ही जाती है। हिन्दी भी सीखी ही जानी चाहिए।

 

समाज का नव-धनाढय तथा अंग्रेजी शिक्षितों का बहुत बड़ा वर्ग अपनी पहचान खोने के आत्म सम्मोहन से ग्रस्त है। शेष समाज, उसकी भाषा, लोक-जीवन, लोक- संस्कृति, परम्परा आदि से उसकी दूरी उसके सम्मान एवं आधुनिकता का मापदण्ड बनती जा रही है। इस घातक प्रवृति पर लगाम लगाना आवश्यक है। कुबेर नाथ राय हिन्दी के जाने माने ललित निबंधकार रहे हैं। अपने एक निबंध में उन्होंने पूर्वी उत्तर प्रदेश से बिहार आयी एक बारात का उल्लेख किया है। विद्यापति के एक सुन्दर सुमधुर पद का रिकार्ड बज रहा था, जिसे सुनकर कुछ बाराती नाक भौं सिकोड़ रहे

थे। फिर एक भोंड़ी सी गजल का रिकार्ड बजाया जाने लगा, जिसे सुनकर वे सभी उछल पड़े और वाह वाह करने लगे। उनका आचरण उसी प्रवृत्ति को दिखा रहा था।

(त्रैमासिक पत्रिका ‘चिंतन-सृजन’ – वर्ष 1, अंक 2, अक्‍टूबर-दिसम्‍बर 2003 की संपादकीय टिप्‍पणी) 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,690 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress