क्या सरकार पबजी जैसे हिंसक खेलों को प्रतिबंधित नहीं कर सकती!

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लिमटी खरे

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हाल ही में घटी एक घटना लोगों के बीच चर्चा का विषय बनी हुई है। इस घटना की जानकारी जिसे भी मिली वह स्तब्ध रह गया, लोगों को इस घटना ने पूरी तरह झझकोर कर रख दिया है। मोबाईल पर पबजी नहीं खेलने देने पर एक बेटे ने अपनी जननी माता को मोत के घाट उतार दिया।

लखनऊ में पबजी नामक एक खेल को मोबाईल पर खेलने देने से मना करने पर बेटे के द्वारा अपनी माता की ही गोली मारकर हत्या कर दी गई। इतना ही नहीं वह अपनी बहन के साथ मॉ की लाश को घर पर ही छिपाए रखा। यह एक फौजी के घर का हादसा है। इस मामले में सोशल मीडिया पर खबर वायरल होते ही तरह तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आ रहीं हैं।

ज्यादातर लोग मोबाईल को ही दोष देते नजर आ रहे हैं। वैसे भी कोविड कॉल में बच्चों की ऑन लाईन क्लासेस के चलते मोबाईल से दूर रहने वाले बच्चे अधिकांश समय मोबाईल से चिपके रहने पर मजबूर हो गए थे। सवाल यही खड़ा हुआ है कि क्या वाकई मोबाईल ही इसके लिए जवाबदेह है!

हाल ही की बात है हमारे एक मित्र के नाती के बारे में उनकी पत्नि बड़े चाव से बता रहीं थीं कि हमारा नाती बहुत चंट हो गया है, उसने अपनी दादी के मोबाईल से अपनी मॉ का मोबाईल नंबर डायल कर उसे खोज लिया और फिर वह यूट्यूब पर वीडियो देखने लगा। हमारी पीढ़ी जब शैशव काल में थी, तब हमें चिड़िया, कौआ, मोर, बाल्टी, मग्गा, पेड़ पौधे आदि से रूबरू कराया जाता था। सुबह सवेरे जब स्कूल जाने के लिए उठाया जाता तो कहा जाता था कि कितनी सुंदर चिड़िया आई, देखो . . ., हम भी उठते और बाहर ठण्डी बयार के बीच पक्षियों के कलरव से दो चार हुआ करते।

जब हमारे बच्चे स्कूल जाने की तैयारी में थे तब टीवी का जादू सर चढ़कर बोल रहा था। बच्चों को सुबह कार्टून केरेक्टर डोरीमाल, नोमिता को दिखाकर जगाया जाता था। अब जब उनके बच्चे दो तीन साल के होने लगे तो उन्हें खाना खिलाने के लिए भी अपने मोबाईल पर कार्टून फिल्म लगाकर उनकी उदरपूर्ति करने पर मजबूर होना पड़ रहा है।

आज बच्चे भले ही अपने पैर पर खड़े न हो पाएं पर उस उम्र में वे मोबाईल की टच स्क्रीन पर आपसे ज्यादा तेज उंगलियां चलाते नजर आते हैं। हम भी बहुत खुश होते हैं उनकी हरकतें देखकर, न केवल मन में लड्डू फूटते हैं वरन हम उनका उत्साहवर्धन करते ही नजर आते हैं।

यहां से आरंभ होता है बच्चों का मोबाईल फ्रेंडली होना। अगर हम बच्चों पर ध्यान नहीं देंगे तो बच्चे पबजी जैसे घातक गेम्स की जद में कब चले जाएंगे यह पता भी नहीं चलेगा। जिद करना बच्चों का स्वभाव है पर उनकी कौन सी जिद पूरी करना है किस जिद पर उन्हें समझाना या उनका ध्यान दूरी ओर ले जाना है यह जवाबदेही माता पिता की ही होती है।

आम घरों में जब बच्चा मोबाईल न मिलने पर मचलता है तो बच्चा घर के दूसरे जरूरी कामों में बाधा न बन जाए इसलिए माता या पिता उन्हें मोबाईल थमा देते हैं। कल तक खिलौने पर निर्भर था बच्चों का बचपन पर आज इन खिलौनों की जगह मोबाईल ने ले ली है। मोबाईल ने हमारी और बच्चों की हर परेशानी का हल निकाल दिया है।

बच्चे अपनी मॉ से यह कहकर कि कुछ देर वे गेम खेल लें, अपना मनोरंजन कर लिया करते हैं। इसमें कोई गलत बात नहीं है। अधिकांश माओं ने बच्चों से अपना फेसबुक, व्हाट्सऐप अकाऊॅट बनवाया और धीरे धीरे मोबाईल चलाना सीखा। बच्चे जब मोबाईल खेलते और उस बीच कोई फोन आता तो बच्चा बहुत ही साफाई के साथ बहाने गढ़ देता कि मॉ नहा रही है या सो रही है, वगैरा वगैरा . . .

अब आएं मूल मुद्दे पर कि पबजी जैसे घातक खेल बच्चों को किस अंधेरी सुरंग में ले जा रहे हैं। देश में पोर्न साईट्स बैन हैं, फिर भी आप आसानी से इन पर जा सकते हैं। अनेक खेल प्रतिबंधित हैं, फिर भी आप इन्हें खेल सकते हैं। आखिर भारत सरकार क्या कर रही है।

इन साईट्स या गेम्स में जाने के लिए कोई न कोई गेटवे अर्थात दरवाजा तो होगा, उस दरवाजे को ही अगर बंद कर दिया जाए और जो भी सर्विस प्रोवाईडर अर्थात इंटरनेट सेवा प्रदाता उस दरवाजे को खोलने में मदद करे उस पर भारी भरकम पेनाल्टी लगा दी जाए, फिर देखिए देश में इस तरह की घटनाएं कैसे नहीं रूकतीं!

कहा जाता है कि टीन एज अर्थात 13 (थर्टीन) से 19 (नाईंटीन) में बच्चों को बुरे भले की समझ नहीं होती है। इस दौर में बच्चा आजादी चाहता है और उसके मन में जो आता है वह उसी बात को करना चाहता है। आज इंटरनेट का युग है। बच्चे बहुत ही तेज गति से इंटरनेट की डोर पर संतुलन बनाकर तो चल रहे हैं पर उन्हें यह नहीं पता कि जिस डोर पर वे चल रहे हैं वह अच्छी है अथवा बुरी!

गलत सही समझाने का काम माता पिता ही करते हैं, पर दो तीन दशकों से माता पिता को भी बच्चों को समझाने की फुर्सत नहीं मिल पाती है। वैसे इंटरनेट के मामले में माता पिता को भी अच्छे बुरे का भान शायद नहीं है। आज एक कमरे में ही माता, पिता, बेटा, बेटी सभी अपने अपने मोबाईल पर व्यस्त हैं। माता पिता को नहीं पता कि उनका बच्चा क्या देख रहा है!

बच्चों के साथ बात करने, उसकी संगति, दोस्तों आदि के बारे में पता करने की फुर्सत माता पिता को नहीं रह गई है। देखा जाए तो एक दशक से अधिक समय से हमारे बच्चों को हम कहां संभाल रहे हैं! यह काम तो हमारा मोबाईल ही बखूबी करता चला आ रहा है, फिर हम मोबाईल को कैसे दोषी ठहरा सकते हैं।

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

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