कविता

कश्मीरी (विस्थापित) कविता

बंदिनी देवी

 

हम निराश हो रहे हैं देवी ज्येष्ठा

कि हमारी भूमिकाएं उलट गई हैं

और अब हमारी बारी है

तुम्हारी रक्षा करने की

मूर्तिचोरों और मूर्तिभंजकों की

दुष्ट योजनाओं को विफल करने की

जो हमारी भूमि पर मंडरा रहे हैं।

 

हमने तुम्हारे लिए बाड़ बना दिया है

और अब हमें खिड़की-दर्शन से संतोष करना होगा

जब उगते सूर्य के प्रकाश में

लोहे की छड़ें तुम्हारी छवि को बाधित करती हैं।

वह भी किंतु हमें अधूरा उपाय ही लगता है,

क्योंकि वे हठधर्मी और तरीके ढूँढ रहे हैं

तुम्हें उठा ले जाने को,

और हमने तुम्हें एक अधिक सुरक्षित

बंद कमरे में लोहे के परकोटे में पहुँचा दिया है

द्वार पर पहरे के साथ!

फिर भी हमारे मन में भय होता है

कि कहीं पहरेदार षडयंत्रकारियों में न बदल जाएं

और अपहरणकर्ताओं से न मिल जाएं।

 

क्या इस यंत्रणा से मुक्ति का कोई मार्ग है,

हमारी रक्षिका,

इस के अतिरिक्त कि तुम अ-दृश्य हो

इसी निर्झर के हृदय में समा जाओ

(जहाँ से, युगों पूर्व

तुम हमारे हृदय पर शासन करने उदित हुई थीं)

और अपने पुनःअवतरण काल की प्रतीक्षा करो

जब तक हम हिसाब चुकता कर लें,

अपनी अभिशप्त घाटी में?

 

(श्रीनगर, अप्रैल 1988)