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भारत में दान करने की प्रथा से गरीब वर्ग का होता है कल्याण

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भारत में हिंदू सनातन संस्कृति के संस्कारों में दान दक्षिणा की प्रथा का अलग ही महत्व है। भारत में विभिन्न त्यौहारों एवं महापुरुषों के जन्म दिवस पर मठों मंदिरों, गुरुद्वारों एवं अन्य पूजा स्थलों पर समाज के सम्पन्न नागरिकों द्वारा दान करने की प्रथा अति प्राचीन एवं सामान्य प्रक्रिया है। गरीब वर्ग की मदद करना ईश्वर की सबसे बड़ी सेवा माना जाता है। समाज में आपस में मिल बांटकर खाने पीने की प्रथा भी भारत में ही पाई जाती है और यह प्रथा भारतीय समाज में बहुत आम है। परिवार में आई किसी भी खुशी की घटना को समाज में विभिन्न वर्गों के बीच आपस में बांटने की प्रथा भी भारत में ही पाई जाती है। इस उपलक्ष में कई बार तो बहुत बड़े स्तर पर सामाजिक एवं धार्मिक आयोजन भी किए जाते हैं। जैसे जन्म दिवस मनाना, परिवार में शादी के समारोह के पश्चात समाज में नाते रिश्तेदारों, दोस्तों एवं मिलने वालों को विशेष आयोजनों में आमंत्रित करना, आदि बहुत ही सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा हैं। एक अनुमान के अनुसार भारत के विभिन्न मठों, मंदिरों, गुरुद्वारों एवं अन्य पूजा स्थलों पर प्रतिदिन 10 करोड़ से अधिक नागरिकों को प्रसादी के रूप में भोजन वितरित किया जाता है।       साथ ही, पूरी दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है, जिसमें निवासरत नागरिक, चाहे वह कितना भी गरीब से गरीब क्यों न हो, अपनी कमाई में से कुछ राशि का दान तो जरूर करता है। भारतीय शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि हिंदू सनातन संस्कृति के अनुरूप, महर्षि दधीच ने तो, देवताओं को असुरों पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से, अपने शरीर को ही दान में दे दिया था, जिसे इतिहास में उच्चत्तम बलिदान की संज्ञा भी दी जाती है। आज के युग में जब अर्थ को अत्यधिक महत्व प्रदान किया जा रहा है, तब अधिक से अधिक धनराशि का दान करना ही शुभ कार्य माना जा रहा है। इस दृष्टि से वैश्विक स्तर पर नजर डालने पर ध्यान में आता है कि दुनिया में सबसे बड़े दानदाता के रूप में आज भारत के टाटा उद्योग समूह के श्री रतन टाटा का नाम सबसे ऊपर उभर कर सामने आता है। इस सूची में टाटा समूह के संस्थापक श्री जमशेदजी टाटा का नाम भी बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है, जिन्होंने अपने जीवन में शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक उत्थान के क्षेत्र में 8.29 लाख करोड़ रुपए की राशि का महादान किया था। इसी प्रकार, श्री रतन टाटा के नेतृत्व में टाटा समूह ने वर्ष 2021 तक 8.59 लाख करोड़ रुपए की राशि का महादान किया था। आप अपनी कमाई का बहुत बड़ा हिस्सा गरीब वर्ग की सहायतार्थ दान में दे देते थे। श्री रतन टाटा केवल भारत स्थित संस्थानों को ही दान नहीं देते थे बल्कि वैश्विक स्तर पर समाज की भलाई के लिए कार्य कर रहे संस्थानों को भी दान की राशि उपलब्ध कराते थे। आपने वर्ष 2008 के महामंदी के दौरान अमेरिका स्थित कार्नेल विश्वविद्यालय को 5 करोड़ अमेरिकी डॉलर का दान प्रदान किया था। श्री रतन टाटा ने आर्थिक समस्याओं से जूझ रहे छात्रों को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने के उद्देश्य से जे. एन. टाटा एंडाउमेंट, सर रतन टाटा स्कॉलर्शिप एवं टाटा स्कॉलर्शिप की स्थापना कर दी थी। श्री रतन टाटा चूंकि अपनी कमाई का बहुत बड़ा भाग दान में दे देते थे, अतः उनका नाम कभी भी अमीरों की सूची में बहुत ऊपर उठकर नहीं आ पाया। इस सूची में आप सदैव नीचे ही बने रहे। श्री रतन टाटा जी के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवन काल में इतनी बड़ी राशि का दान किया था कि आज विश्व के 2766 अरबपतियों के पास इतनी सम्पत्ति भी नहीं है। यूं तो टाटा समूह ने भारत राष्ट्र के निर्माण में बहुत ही अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, परंतु कोरोना महामारी के खंडकाल में श्री रतन टाटा के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। जिस समय पूरा विश्व कोरोना महामारी से जूझ रहा था, उस समय श्री रतन टाटा ने न केवल भारत बल्कि विश्व के कई अन्य देशों को भी आर्थिक सहायता के साथ साथ वेंटिलेटर, व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (पीपीई) किट, मास्क और दस्ताने आदि सामग्री उपलब्ध कराई। श्री रतन टाटा के निर्देशन में टाटा समूह ने इस खंडकाल में 1000 से अधिक वेंटिलेटर और रेस्पिरेटर, 4 लाख पीपीई किट, 35 लाख मास्क और दास्ताने और 3.50 लाख परीक्षण किट चीन, दक्षिणी कोरिया आदि देशों से भी आयात के भारत में उपलब्ध कराए थे।  श्री रतन टाटा के पूर्वज पारसी समुदाय से थे और ईरान से आकर भारत में रच बस गए थे। श्री रतन टाटा ने न केवल भारतीय हिंदू सनातन संस्कृति के संस्कारों को अपने जीवन में उतारा, बल्कि इन संस्कारों का अपने पूरे जीवनकाल में अक्षरश: अनुपालन भी किया। इन्हीं संस्कारों के चलते श्री रतन टाटा को आज पूरे विश्व में सबसे बड़े दानदाता के रूप में जाना जा रहा है।     टाटा समूह का वर्णन तो यहां केवल उदाहरण के रूप में किया जा रहा है। अन्यथा, भारत में ऐसे कई औद्योगिक घराने हैं जिन्होंने अपनी पूरी संपत्ति को ही ट्रस्ट के माध्यम से समाज के उत्थान एवं समाज की भलाई के लिए दान में दे दिया है। प्राचीन भारत में यह कार्य राजा महाराजाओं द्वारा किया जाता रहा हैं। हिंदू सनातन संस्कृति के विभिन्न शास्त्रों में यह वर्णन मिलता है कि ईश्वर ने जिसको सम्पन्न बनाया है, उसे समाज में गरीब वर्ग की भलाई के लिए कार्य करना चाहिए। यह सहायता गरीब वर्ग को सीधे ही उपलब्ध कराई जा सकती है अथवा ट्रस्ट की स्थापना कर भी गरीब वर्ग की मदद की जा सकती है। वर्तमान में तो निगमित सामाजिक दायित्व (सी एस आर – कोरपोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी) के सम्बंध में कानून की बना दिया गया है। जिन कम्पनियों की सम्पत्ति 500 करोड़ रुपए से अधिक है अथवा जिन कम्पनियों का वार्षिक व्यापार 1000 करोड़ रुपए से अधिक है अथवा जिन कम्पनियों का वार्षिक शुद्ध लाभ 5 करोड़ से अधिक है, उन्हें इस कानून के अंतर्गत अपने वार्षिक शुद्ध लाभ के दो प्रतिशत की राशि का उपयोग समाज की भलाई के लिए चलाई जा रही परियोजनाओं पर खर्च करना आवश्यक होता है। इन विभिन्न मदों पर खर्च की जाने वाली राशि का प्रतिवर्ष अंकेक्षण भी कराना होता है, ताकि यह जानकारी प्राप्त की जा सके राशि का सदुपयोग समाज की भलाई के लिए किया गया है एवं इस राशि का किसी भी प्रकार से दुरुपयोग नहीं हुआ है।  भारत में गरीब वर्ग/परिवारों को गरीबी रेखा से ऊपर लाने में समाज में सम्पन्न वर्ग द्वारा किए जाने वाले दान आदि की राशि से भी बहुत मदद मिलती है। निगमित सामाजिक दायित्व (सी एस आर) योजना के अंतर्गत चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं का सीधा लाभ भी समाज के गरीब वर्ग को ही मिलता है। अतः विश्व में शायद भारत ही एक ऐसा देश है जहां सरकार एवं समाज मिलकर गरीब वर्ग की भलाई हेतु कार्य करते हुए दिखाई देते हैं। इसीलिए ही अब यह कहा जा रहा है कि हिंदू सनातन संस्कृति का विस्तार यदि वैश्विक स्तर पर होता है तो, इससे पूरे विश्व का ही कल्याण हो सकता है एवं बहुत सम्भव है कि वैश्विक स्तर पर गरीबी का नाश होकर चहुं ओर खुशहाली फैलती दिखाई दे।                 प्रहलाद सबनानी 

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आर्थिकी राजनीति

सांस्कृतिक संगठनों के नेतृत्व में स्वच्छता अभियान को दी जा सकती है गति

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आज पूरे देश के विभिन्न नगरों में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन की स्थिति बहुत चुनौतीपूर्ण बनी हुई है। इन नगरों में प्रतिदिन सैकड़ों/हजारों टन कचरा उत्पन्न होता है, जिसे इन नगरों की नगर पालिकाओं/नगर निगमों द्वारा एकत्र किया जाता है। कचरे की मुख्य श्रेणियों में जैविक अपशिष्ट, प्लास्टिक, कागज, धातु और कांच शामिल रहते हैं। कुछ नगरों में संग्रहण के पश्चात, कचरे को प्रसंस्करण संयंत्रों में भेजा जाता है, परंतु कुछ नगरों में नागरिकों की भागीदारी और कचरे के उचित निपटान की कमी एक प्रमुख चुनौती बनी हुई है। इस प्रकार देश के विभिन्न नगरों में कचरा प्रबंधन एक बड़ी समस्या के रूप में विद्यमान है। भारत में कचरे का मुख्य निपटान लैंडफिल साइटों पर किया जाता है, लेकिन यहां कचरे की सॉर्टिंग का अभाव है। अधिकांश कचरे को बिना छांटे सीधे लैंडफिल में डाला जाता है, जिससे पुनर्चक्रण की प्रक्रिया प्रभावित होती है। इसके अलावा, लैंडफिल साइट्स पर कचरे का उचित प्रबंधन नहीं किया जाता और इसका प्रदूषण मिट्टी और जल स्रोतों तक फैलता है। कुछ नगरों में कई कॉलोनियों में सीवेज का पानी खुले में बहाया जाता है। इससे जल स्रोतों का प्रदूषण होता है और जल जनित बीमारियों का खतरा बढ़ता है। खुले में सीवेज के निस्तारण से दुर्गंध और अस्वच्छ वातावरण भी उत्पन्न होता है, जिससे नागरिकों को स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है। कई नगरों में नागरिक अक्सर सड़कों, सार्वजनिक स्थानों, पार्कों और धार्मिक स्थलों पर कचरा फेंक देते हैं। यह शहर की स्वच्छता को प्रभावित करता है और प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहुंचाता है। खासकर धार्मिक आयोजनों और प्रसाद वितरण के बाद खुले में कचरा फैलाने की आदत अधिक देखी जाती है। इससे न केवल गंदगी फैलती है, बल्कि यह धार्मिक स्थलों की पवित्रता और स्थानीय पारिस्थितिकी को भी प्रभावित करता है। इसी प्रकार, कई नगरों में वायु प्रदूषण की समस्या तेजी से बढ़ रही है। एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) कई बार 200 से 300 के बीच रहता है, जो “अस्वस्थ” श्रेणी में आता है। इसके कारणों में प्रमुख हैं: (1) औद्योगिक प्रदूषण – विभिन्न उद्योगों से निकलने वाले वेस्ट पदार्थों का उचित निपटान नहीं होने के चलते विभिन्न उद्योग नगरों में प्रदूषण फैलाते हैं। (2) वाहनों से प्रदूषण – बढ़ते वाहनों की संख्या और पुराने वाहनों से निकलने वाले धुएं के कारण प्रदूषण में वृद्धि हो रही है। (3) धूल – सड़क निर्माण और निर्माण कार्यों से निकलने वाली धूल भी वायु प्रदूषण को बढ़ाती है, जो सांस के रोगों को जन्म देती है। आज भारत में विभिन्न नगरों में स्वच्छता की समस्याओं के हल में नागरिकों की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण बन गई है। नागरिकों द्वारा खुले में कचरा फेंकने, जानवरों को खुले में खाना देने और धार्मिक आयोजनों में प्रदूषण फैलाने जैसी आदतें स्वच्छता की स्थिति को और अधिक खराब करती हैं। (1) सार्वजनिक स्थानों पर कचरा फेंकना – लोग अक्सर सड़कों, पार्कों और धार्मिक स्थलों पर कचरा छोड़ देते हैं। (2) जानवरों को खाना देना – नागरिकों द्वारा सड़क पर गायों और कुत्तों को खाना देना एक सामान्य प्रथा है, लेकिन इसके बाद कचरे का सही निपटान नहीं किया जाता। पन्नियां भी यदा-कदा फेंक दी जाती हैं। (3) धार्मिक आयोजनों में प्रदूषण – धार्मिक स्थानों पर पूजा सामग्री और प्रसाद के पैकेट खुले में फेंके जाते हैं, जिससे स्वच्छता की स्थिति बिगड़ती है।इसमें भंडारे वाले स्थान प्रमुखता से हैं।  हालांकि भारत सरकार द्वारा स्वच्छता के लिए पूरे देश में ही अभियान चलाया जा रहा है, परंतु इस कार्य में विभिन्न सरकारी विभागों के अतिरिक्त समाज को भी अपनी भूमिका का निर्वहन गम्भीरता से करना होगा। यदि समाज और सरकार इस क्षेत्र में मिलकर कार्य करते हैं तो सफलता निश्चित ही मिलने जा रही है। केंद्र सरकार द्वारा चलाए जा रहे स्वच्छ भारत अभियान के तहत विभिन्न नगरों में कई प्रयास किए गए हैं। घर-घर शौचालय का निर्माण कराया गया है एवं कचरा संग्रहण की व्यवस्था की गई है इससे कुछ हद्द तक स्वच्छता जागरूकता कार्यक्रम सफल रहे हैं, लेकिन कचरे का निपटान और सार्वजनिक स्थलों की सफाई में अभी भी सुधार की बहुत अधिक गुंजाइश है। कुछ नगरों को तो स्मार्ट सिटी परियोजना के तहत भी कई अतिरिक्त योजनाएं मिली हैं। इन योजनाओं में स्मार्ट कचरा प्रबंधन, स्मार्ट पार्किंग, और डिजिटल स्वच्छता निगरानी जैसी परियोजनाएं शामिल हैं। इन कदमों से कचरे के प्रबंधन में सुधार और स्वच्छता बनाए रखने में मदद मिली है। कचरा प्रबंधन के क्षेत्र में विभिन्न नगरों के सामने आ रही विभिन्न समस्याओं के हल हेतु समाज द्वारा दिए गए कई सुझावों पर अमल किया जाकर भी अपने अपने नगर में स्वच्छता के अभियान को सफल बनाया जा सकता है। विभिन्न नगरों को आज स्वच्छता के लिए 3R (Reduce, Reuse, Recycle) के सिद्धांत को अपनाने की महती आवश्यकता है। प्लास्टिक कचरे से सड़कें बनाना (Plastic Waste Roads) का कार्य बड़े स्तर पर हाथ में लिया जा सकता है। कचरे से ऊर्जा उत्पन्न करने (Waste-to-Energy Projects) के सम्बंध में विभिन्न प्राजेक्ट्स हाथ में लिए जा सकते हैं।  इको-फ्रेंडली शौचालयों (Eco-Friendly Toilets) का निर्माण भारी मात्रा में होना चाहिए। कचरे से धन उत्पन्न करने (Waste-to-Wealth) सम्बंधी योजनाओं को गति दी जा सकती है, इससे न केवल कचरा प्रबंधन में मदद मिलेगी बल्कि इन क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियों को भी गति मिलेगी। त्यौहारों के समय भारी मात्रा में बनाई जा रही भगवान की मूर्तियों का विसर्जन करते समय नगर स्तर पर स्वयसेवकों की टोलीयां बनाई जानी चाहिए जो विसर्जन सम्बंधित गतिविधियों पर अपनी पारखी नजर बनाए रखें ताकि भगवान की मूर्तियों का विसर्जन न केवल पूरे विधि विधान से सम्पन्न हो बल्कि इन मूर्तियों के अवशेष किसी भी प्रकार से कचरे का रूप न ले पायें, इसका ध्यान भी रखा जाना चाहिए।  अफ्रीकी देश रवांडा में, प्रत्येक माह के अंतिम शनिवार को एक घंटे के लिए पूरा देश अपने सभी कार्य रोककर सामूहिक सफाई में हिस्सा लेता है। इसे उमुगांडा कहा जाता है, और यह एक सामाजिक पहल है जिसका उद्देश्य न केवल स्वच्छता को बढ़ावा देना है, बल्कि समुदाय में एकजुटता और जिम्मेदारी की भावना को भी प्रोत्साहित करना है। इस एक घंटे के दौरान, नागरिक सार्वजनिक स्थानों, सड़कों और अन्य सामुदायिक क्षेत्रों को साफ करते हैं। यह पहल सरकार से लेकर स्कूलों के बच्चों तक सभी को शामिल करती है, और यह सामूहिक सफाई का एक बड़ा अभियान बन जाता है। उमुगांडा केवल स्वच्छता तक सीमित नहीं है; यह सामाजिक एकता और सामूहिक प्रयास को बढ़ावा देने का एक तरीका है। भारत के विभिन्न नगरों में भी इस प्रकार की गतिविधियों को बढ़ावा दिया जा सकता है।  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना के 100वें वर्ष में प्रवेश कर चुका है एवं विजयादशमी 2025 को 100 वर्ष का महान पर्व सम्पन्न होगा। संघ के स्वयंसेवक समाज में अपने विभिन्न सेवा कार्यों को समाज को साथ लेकर ही सम्पन्न करते रहे हैं। अतः इस शुभ अवसर पर, भारत के प्रत्येक जिले को, अपने स्थानीय स्तर पर समाज को विपरीत रूप से प्रभावित करती, समस्या को चिन्हित कर उसका निदान विजयादशमी 2025 तक करने का संकल्प लेकर उस समस्या को अभी से हल करने के प्रयास प्रारम्भ किए जा सकते हैं। किसी भी बड़ी समस्या को हल करने में यदि पूरा समाज ही जुड़ जाता है तो समस्या कितनी भी बड़ी एवं गम्भीर क्यों न हो, उसका समय पर निदान सम्भव हो सकता है। अतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, एक सांस्कृतिक संगठन होने के नाते, समाज को साथ लेकर पर्यावरण में सुधार हेतु विभिन्न नगरों में स्वच्च्ता अभियान को चलाने का लगातार प्रयास कर रहा है। इसी प्रकार, अन्य धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठनों को भी आगे आकर विभिन्न नगरों में इस प्रकार के अभियान चलाना चाहिए।  प्रहलाद सबनानी 

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ब्याज दरों में अब कमी होनी ही चाहिए

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भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर श्री शक्तिकांत दास ने अपने वर्तमान कार्यकाल का अंतिम मुद्रा नीति वक्तव्य (मोनेटरी पॉलिसी स्टेट्मेंट) दिनांक 06 दिसम्बर 2024 को प्रातः 10 बजे जारी किया है। इस मुद्रा नीति वक्तव्य में रेपो दर में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं करते हुए इसे पिछले 22 माह से (अर्थात 11 मुद्रा नीति वक्तव्यों से) 6.5 प्रतिशत पर स्थिर रखा गया है। यह संभवत: भारतीय रिजर्व बैंक के इतिहास में सबसे अधिक समय तक स्थिर रहने वाली रेपो दर है। इस बढ़ी हुई रेपो दर का भारत के आर्थिक विकास पर अब विपरीत प्रभाव होता हुआ दिखाई दे रहा है क्योंकि वित्तीय वर्ष 2024-25 की द्वितीय तिमाही में भारत में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर घटकर 5.4 प्रतिशत तक नीचे आ गई है। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा प्रत्येक दो माह के अंतराल पर मुद्रा नीति वक्तव्य जारी किया जाता है, परंतु पिछले 11 मुद्रा नीति वक्तव्यों में रेपो दर में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया गया है। जबकि, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति की दर कुछ समय तक तो लगातार 6 प्रतिशत के सहनीय स्तर से नीचे बनी रही है। भारतीय रिजर्व बैंक ने वित्तीय वर्ष 2024-25 के दौरान उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित औसत मुद्रा स्फीति के अनुमान को 4.5 प्रतिशत से बढ़ाकर 4.8 प्रतिशत कर दिया है। इसका आश्य यह है कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित खुदरा मुद्रा स्फीति की दर संभवत: वित्तीय वर्ष 2024-25 की तृतीय तिमाही में भी अधिक बनी रह सकती है। इसके पीछे खाद्य पदार्थों (विशेष रूप से फल एवं सब्जियों) की कीमतों में लगातार हो रही वृद्धि, एक मुख्य कारण जिम्मेदार हो सकता है। परंतु, क्या ब्याज दरों में वृद्धि कर खाद्य पदार्थों की कीमतों को नियंत्रित किया जा सकता है? उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित खुदरा मुद्रा स्फीति की दर को आंकने में खाद्य पदार्थों का भार लगभग 40 प्रतिशत है। यदि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति में से खाद्य पदार्थों के भार को अलग कर दिया जाय तो यह आंकलन बनता है कि कोर पदार्थों की मुद्रा स्फीति की दर नियंत्रण में बनी हुई है। खाद्य पदार्थों की कीमतों को बाजार में फलों एवं सब्जियों की आपूर्ति बढ़ाकर ही नियंत्रित किया जा सकता है, न कि ब्याज दरों में वृद्धि कर। इस वर्ष मानसून का पूरे देश में विस्तार ठीक तरह से नहीं रहा है, कुछ क्षेत्रों में बारिश की मात्रा अत्यधिक रही है एवं कुछ क्षेत्रों बारिश की मात्रा बहुत कम रही है, जिसका प्रभाव खाद्य पदार्थों की उत्पादकता पर भी विपरीत रूप से पड़ा है, जिससे अंततः खाद्य पदार्थों की कीमतों में उच्छाल देखा गया है।  बाद के समय में, अच्छे मानसून के पश्चात भारत में आने वाली रबी मौसम की फसल बहुत अच्छी मात्रा में आने की सम्भावना है क्योंकि न केवल फसल के कुल रकबे में वृद्धि दर्ज हुई है बल्कि पानी की पर्याप्त उपलब्धता के चलते फसल की उत्पादकता में भी वृद्धि होने की पर्याप्त सम्भावना है। इन कारकों के चलते आगे आने वाले समय में खाद्य पदार्थों की एवं उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित खुदरा मुद्रा स्फीति की दर निश्चित ही नियंत्रण के रहने की सम्भावना है। इससे, निश्चित ही रेपो दर को कम करने की स्थिति निर्मित होती हुई दिखाई दे रही है। साथ ही, अमेरिका सहित यूरोप के विभिन्न देशों में भी ब्याज दरों को लगातार कम करने का चक्र प्रारम्भ हो चुका है, जिसका प्रभाव विश्व के अन्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर भी पड़े बिना नहीं रहेगा। दूसरी ओर, भारतीय रिजर्व बैंक ने वित्तीय वर्ष 2024-25 में सकल घरेलू उत्पाद में होने वाली वृद्धि दर के अनुमान को 7.2 प्रतिशत से घटाकर 6.6 प्रतिशत कर दिया है। क्योंकि, यह वृद्धि दर द्वितीय तिमाही में घटकर 5.4 प्रतिशत की रही है। वित्तीय वर्ष 2024-25 की द्वितीय तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर  के कम रहने के कई विशेष कारण रहे हैं। देश में लोकसभा चुनाव के चलते केंद्र सरकार को अपने पूंजीगत खर्चों एवं सामान्य खर्चों में भारी कमी करना पड़ी थी। इसके बाद विभिन्न राज्यों में विधानसभा चुनावों के चलते इन राज्यों द्वारा किए जाने वाले सामान्य खर्चों में अतुलनीय कमी की गई थी। जिससे अंततः नागरिकों के हाथों में खर्च करने लायक राशि में भारी कमी हो गई। दूसरे, इस वर्ष भारत में मानसून भी अनियंत्रित सा रहा है जिससे कृषि क्षेत्र में उत्पादन प्रभावित हुआ एवं ग्रामीण इलाकों में नागरिकों की आय में कमी हो गई। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न देशों में अस्थिरता बनी रही, जिसके कारण भारत से विभिन्न उत्पादों के निर्यात प्रभावित हुए। इस अवधि में विनिर्माण के क्षेत्र एवं माइनिंग के क्षेत्र में उत्पादन भी तुलनात्मक रूप से कम रहा। उक्त कारकों के चलते भारत में वित्तीय वर्ष 2024-25 की द्वितीय तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर बहुत कम रही है। इस द्वितीय तिमाही में विभिन्न कम्पनियों के वित्तीय परिणाम भी बहुत उत्साहजनक नहीं रहे हैं। इनकी लाभप्रदता में आच्छानुरूप वृद्धि दर्ज नहीं हुई है। कम्पनियों के वित्तीय परिणाम उत्साहजनक नहीं रहने के चलते विदेशी संस्थागत निवेशकों ने भारतीय शेयर बाजार से सितम्बर, अक्टोबर एवं नवम्बर माह में 1.50 लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि निकाली है। जिससे भारतीय शेयर बाजार के निफ्टी सूचकांक में 3000 से अधिक अंकों की गिरावट दर्ज हुई है, निफ्टी सूचकांक अपने उच्चत्तम स्तर 26,400 से गिरकर 23,200 अंकों तक नीचे आ गया था। हालांकि अब यह पुनः बढ़कर 24,700 अंकों पर आ गया है और विदेशी संस्थागत निवेशकों ने एक बार पुनः भारतीय शेयर बाजार पर अपना भरोसा जताते हुए अपने निवेश में वृद्धि करना शुरू कर दिया है।  अब देश में कुछ महत्वपूर्ण राज्यों में विधान सभा चुनावों एवं लोक सभा चुनाव के सम्पन्न होने के बाद केंद्र सरकार एवं विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा अपने पूंजीगत खर्चों एवं सामान्य खर्चों में वृद्धि की जाएगी। साथ ही, भारत में त्यौहारी मौसम एवं शादियों के मौसम में भारतीय नागरिकों के खर्चों में अपार वृद्धि होने की सम्भावना है। त्यौहारी एवं शादियों का मौसम भी नवम्बर एवं दिसम्बर 2024 माह में प्रारम्भ हो चुका है। एक अनुमान के अनुसार नवम्बर माह में मनाए गए दीपावली एवं अन्य त्यौहारों पर भारतीय नागरिकों ने लगभग 5 लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि का व्यय किया है। वित्तीय वर्ष 2024-25 के जनवरी 2025 माह (13 जनवरी) में प्रयागराज में कुंभ मेला भी प्रारम्भ होने जा रहा है जो फरवरी 2025 माह (26 फरवरी) तक चलेगा। यह कुम्भ मेला प्रत्येक 12 वर्षों में एक बार प्रयागराज में लगता है। एक अनुमान के अनुसार इस कुम्भ मेले में प्रतिदिन एक करोड़ नागरिक पहुंच सकते हैं। इससे देश में धार्मिक पर्यटन में भी अपार वृद्धि होगी। उक्त सभी कारणों के चलते, भारत में उपभोक्ता खर्च में भारी भरकम वृद्धि दर्ज होगी जो अंततः सकल घरेलू उत्पाद में पर्याप्त वृद्धि को दर्ज करने के सहायक होगी। साथ ही, अक्टोबर 2024 माह में भारत से विविध उत्पादों एवं सेवा क्षेत्र के निर्यात में भी बहुत अच्छी वृद्धि दर दर्ज हुई है। इससे अंततः भारत के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर 7 प्रतिशत से ऊपर बने रहने की प्रबल सम्भावना बनती नजर आ रही है।  साथ ही, भारतीय रिजर्व बैंक ने नकदी रिजर्व अनुपात में 50 आधार बिंदुओं की कमी करते हुए इसे 4.5 प्रतिशत से घटाकर 4 प्रतिशत कर दिया है। इससे 1.16 लाख करोड़ रुपए की राशि भारतीय रिजर्व बैंक से बैकों को प्राप्त होगी एवं इस राशि से बैंकिंग क्षेत्र में तरलता में सुधार होगा एवं बैंकों की कर्ज देने की क्षमता में भी वृद्धि होगी। अधिक ऋणराशि की उपलब्धता से व्यापार एवं उद्योग की गतिविधियों को बल मिलेगा जो देश के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि करने में सहायक होगा।  अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिकी डॉलर के लगातार मजबूत होने से बाजार में रुपए की कीमत लगातार गिर रही है और रुपए की कीमतों को नियंत्रण में रखने के उद्देश्य से भारतीय रिजर्व बैंक को बाजार में डॉलर की आपूर्ति सुनिश्चित करने हेतु अमेरिकी डॉलर को बेचना पड़ रहा है। जिससे, भारत के विदेशी मुद्रा भंडार 70,500 करोड़ अमेरिकी डॉलर के उच्चत्तम स्तर से नीचे गिरकर 65,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर के निचले स्तर पर आ गए हैं। साथ ही, रुपए की कीमत गिरकर 84.63 रुपए प्रति डॉलर के स्तर पर आ गई है। अतः यदि देश में व्यापारिक गतिविधियों में सुधार होता है एवं सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर्ज होती है तो विदेशी निवेश भी भारत में पुनः वृद्धि दर्ज करेगा एवं विदेशी मुद्रा भंडार भी अपने पुराने उच्चत्तम स्तर को प्राप्त कर सकेंगे। कुल मिलाकर भारत में अब ब्याज दरों में कमी करने का समय आ गया है।  प्रहलाद सबनानी

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आर्थिकी राजनीति

भारतीय आर्थिक दर्शन एवं प्राचीन भारत में आर्थिक विकास

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भारत में वेदों, पुराणों एवं शास्त्रों में यह कहा गया है कि मानव जीवन हमें मोक्ष प्राप्त करने के लिए प्राप्त हुआ है। मोक्ष प्राप्ति के लिए अच्छे कर्मों का करना आवश्यक है। अच्छे कर्म अर्थात हमारे किसी कार्य से किसी पशु, पक्षी, जीव, जंतु को कोई दुःख नहीं पहुंचे एवं सर्व समाज की भलाई के कार्य करते रहें। अर्थात, इस धरा पर निवास करने वाले प्रत्येक प्राणी का कल्याण हो, मंगल हो। ऐसी कामना भारतीय सनातन हिंदू संस्कृति में की जाती है। इसी प्रकार, धर्म के महत्व को स्वीकार करते हुए कौटिल्य के अर्थशास्त्र, नारद की नारद स्मृति और याग्वल्य की याग्वल्य स्मृति में कहा गया है कि ‘अर्थशास्त्रास्तु बलवत धर्मशास्त्र नीतिस्थिति’। अर्थात, यदि अर्थशास्त्र के सिद्धांत एवं नैतिकता के सिद्धांत के बीच कभी विवाद उत्पन्न हो जाए तो दोनों में से किसे चुनना चाहिए। कौटिल्य, नारद एवं याग्वल्य कहते हैं कि अर्थशास्त्र के सिद्धांतों की तुलना में यानी केवल पैसा कमाने के सिद्धांतों की तुलना में हमको धर्मशास्त्र के सिद्धांत अर्थात नैतिकता, संयम, जिससे समाज का भला होता हो, उसको चुनना चाहिए। कुल मिलाकर अर्थतंत्र धर्म के आधार पर चलना चाहिए। गुनार मृडल जिनको नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ था एवं जिनकी ‘एशियन ड्रामा’  नामक पुस्तक बहुत मशहूर हुई थी। उन्होंने एक और छोटी किताब लिखी है जिसका नाम है ‘अगेन्स्ट द स्ट्रीम’। इस किताब में उन्होंने अर्थशास्त्र को एक नैतिक विज्ञान बताया है। कुछ वर्ष पूर्व अखबारों में एक खबर छपी थी कि विश्व बैंक ने यह जानने के लिए एक अधय्यन प्रारम्भ किया है कि विकास में आध्यात्म की कितनी भूमिका है। इसी प्रकार दुनिया में यह जानने का प्रयास भी किया जा रहा है कि दरिद्रता मिटाने में धर्म की क्या भूमिका हो सकती है। प्राचीन भारत के वेद-पुराणों में धन अर्जित करने को बुरा नहीं माना गया है। प्राचीन काल में वेदों का एक भाष्यकार हो गया है, जिसका नाम यासक था। यासक ने ‘निघंटू’ नामक ग्रंथ में धन के 28 समानार्थ शब्द बताए हैं, और प्रत्येक शब्द का अलग अलग अर्थ है। दुनिया की किसी पुस्तक में अथवा किसी अर्थशास्त्र की किताब में धन के 28 समानार्थ शब्द नहीं मिलते हैं। भारत के शास्त्रों में धन के सम्बंध में उच्च विचार बताए गए हैं। भारत के शास्त्रों ने अर्थ के क्षेत्र को हेय दृष्टि से नहीं देखा है एवं यह भी कभी नहीं कहा है कि धन अर्जन नहीं करना चाहिए, पैसा नहीं कमाना चाहिए, उत्पादन नहीं बढ़ाना चाहिए। बल्कि दरिद्रता एवं गरीबी को पाप बताया गया है। हां, वेदों में यह जरूर कहा गया है कि जो भी धन कमाओ वह शुद्ध होना चाहिए। ‘ब्लैक मनी’ नहीं होना चाहिए, भ्रष्टाचार करके धन नहीं कमाना चाहिए, स्मग्लिंग करके धन नहीं कमाना चाहिए, कानून का उल्लंघन करते हुए धन अर्जन नहीं करना चाहिए, ग्राहक को धोखा देकर धन नहीं कमाना चाहिए। मनु स्मृति में तो मनु महाराज ने कहा है कि सब प्रकार की शुद्धियों में सर्वाधिक महत्व की शुद्धि अर्थ की शुद्धि है। भारतीय शास्त्रों में खूब धन अर्जन करने के बाद इसके उपयोग के सम्बंध में व्याख्या की गई है। अर्जित किए धन को केवल अपने लिए उपभोग करना, उस धन से केवल ऐय्याशी करना, केवल अपने लिए काम में लेना, अपने परिवार के लिए मौज मस्ती करना, आदि को ठीक नहीं माना गया है। अर्जित किए गए धन को समाज के साथ मिल बांटकर, समाज के हितार्थ उपयोग करना चाहिए। भारत के प्राचीन ग्रंथों में जीवन के उद्देश्य को पुरुषार्थ से जोड़ते हुआ यह कहा गया है कि धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष, इन चारों बातों पर विचार करके मनुष्य को सुखी करने के सम्बंध में विचार किया जाना चाहिए। इसी विचार के चलते भारत के मनीषियों द्वारा अर्थ और काम को नकारा नहीं गया है। कई बार भारत के बारे में वैश्विक स्तर पर इस प्रकार की भ्रांतियां फैलाने का प्रयास किया जाता रहा है कि भारतीय सनातन हिंदू संस्कृति में तो अर्थ और काम को नकार दिया गया है। प्राचीन काल में भी ऐसा कतई नहीं हुआ है। अगर, ऐसा हुआ होता तो भारत सोने की चिड़िया कैसे बनता? हां, भारत के प्राचीन शास्त्रों में यह जरूर कहा गया है कि अर्थ और काम को बेलगाम नहीं छोड़ना चाहिए। अर्थ और काम को मर्यादा में ही रहना चाहिए। धन अर्जित करने पर किसी भी प्रकार का प्रतिबंध नहीं है परंतु यह धर्म का पालन करते हुए कमाना चाहिए। अर्थात, अर्थ को धर्म के साथ जोड़ दिया गया है। इसी प्रकार काम को भी धर्म के साथ जोड़ा गया है। उपभोग यदि धर्म सम्मत और मर्यादित होगा तो इस धरा का दोहन भी सीमा के अंदर ही रहेगा। अतः कुल मिलाकर अर्थशास्त्र में भी नैतिकता का पालन होना चाहिए। प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्र एवं वर्तमान अर्थशास्त्र में यह भी एक बहुत बड़ा अंतर है। आजकल कहा जाता है कि नीति का अर्थशास्त्र से कोई लेना देना नहीं है। जबकि वस्तुतः ऐसी कोई भी अर्थव्यवस्था, अर्थतंत्र और विकास का कोई भी तंत्र जिसमें नैतिकता को स्वीकार न किया जाय वह चल नहीं सकती और वह समाज का भला नहीं कर सकती। अर्थ को प्रदान किए गए महत्व के चलते ही प्राचीनकाल में भारत में दूध की नदियां बहती थीं, भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था, भारत का आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से पूरे विश्व में बोलबाला था। भारत के ग्रामीण इलाकों में निवास कर रहे नागरिक बहुत सम्पन्न हुआ करते थे। कृषि उत्पादकता की दृष्टि से भी भारत का पूरे विश्व में डंका बजता था तथा खाद्य सामग्री एवं कपड़े आदि उत्पादों का निर्यात भारत से पूरे विश्व को होता था। भारत के नागरिकों में देश प्रेम की भावना कूट कूट कर भरी रहती थी तथा उस खंडकाल में भारत का वैभव काल चल रहा था, जिसके चलते ग्रामीण इलाकों में नागरिक आपस में भाई चारे के साथ रहते थे एवं आपस में सहयोग करते थे। केवल ‘मैं’ ही तरक्की करूं इस प्रकार की भावना का सर्वथा अभाव था एवं ‘हम’ सभी मिलकर आगे बढ़ें, इस भावना के साथ ग्रामीण इलाकों में नागरिक प्रसन्नता के साथ अपने अपने कार्य में व्यस्त एवं मस्त रहते थे। प्राचीन काल में भारत में भव्यता के स्थान पर दिव्यता को अधिक महत्व दिया जाता रहा है। भव्यता का प्रयोग सामान्यतः स्वयं के विकास के लिए किया जाता है। जबकि दिव्यता का उपयोग समाज के विकास में आपकी भूमिका को आंकने के पश्चात किया जाता है। भव्यता दिखावा है, भव्यता प्रदर्शन है, अतः केवल भव्यता के कारण किसी का जीवन ऊंचाईयों को नहीं छू सकता है, इसके लिए दिव्यता होनी चाहिए, अर्थात समाज की भलाई के लिए अधिक से अधिक कार्य करना होता है।  अर्थ को धर्म से जोड़ने के साथ ही, प्रकृति के संरक्षण की बात भी भारतीय पुराणों में मुखर रूप से कही गई है। भारतीय सनातन हिंदू संस्कृति के अनुसार नदियों, पहाड़ों, जंगलों, जीव जंतुओं में भी देवताओं का वास है, ऐसा माना जाता है। इसीलिए यह कहा गया है कि इस पृथ्वी पर उपलब्ध संसाधनों का दोहन करें, शोषण नहीं करें। सर जगदीश चंद्र बसु ने एक परीक्षण किया और इस परीक्षण के माध्यम से यह सिद्ध किया कि पेड़ पौधों में भी वैसी ही संवेदना होती है जैसी मनुष्यों में संवेदना होती है। जिस प्रकार मनुष्य रोता है, हंसता है, प्रसन्न होता है, नाराज होता है, इसी प्रकार की संवेदनाएं पेड़ पौधों में भी पाई जाती हैं। सर जगदीश चंद्र बसु ने वैज्ञानिक तरीके से जब यह सिद्ध किया तो दुनिया में तहलका मच गया। जबकि भारतीय शास्त्रों में तो इन बातों का वर्णन सदियों पूर्व ही मिलता है। जब इन तथ्यों को वैज्ञानिक आधार दिया गया तो अब पूरी दुनिया भारत के इन प्राचीन विचारों पर साथ खड़ी नजर आती है। भारतीय मनीषियों ने इसीलिए यह बार बार कहा है कि पेड़ पौधों की रक्षा करें, इन्हें काटें नहीं। क्योंकि, इससे पर्यावरण की रक्षा तो होती ही है, साथ ही, पेड़, पौधों के रूप में एक प्रकार से किसी प्राणी की हत्या करने से भी बचा जा सकता है।  भारतीय संस्कृति में यह भावना रही है कि व्यक्ति का सम्पूर्ण विकास हो एवं उसे पूर्ण सुख की प्राप्ति हो। इसलिए, उक्त उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए ही देश में सामाजिक एवं आर्थिक रचना होनी चाहिए। प्राचीन भारत में इसी नाते व्यक्ति को मान्यता देने के साथ साथ परिवार को भी मान्यता दी गई है। परिवार को समाज में न्यूनतम इकाई माना गया है। व्यक्तियों से परिवार, परिवारों से समाज, समाज से देश और देशों से विश्व बनता है। अतः कुटुंब को भारतीय समाज में अत्यधिक महत्व दिया गया है।  भारतीय शास्त्रों में कुल मिलाकर यह वर्णन मिलता है कि प्राचीन भारत के लगभग प्रत्येक परिवार में गाय के रूप में पर्याप्त मात्रा में पशुधन उपलब्ध रहता था जिससे प्रत्येक परिवार की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति बहुत आसानी से हो जाती थी। गाय के गोबर एवं गौमूत्र से देसी खाद का निर्माण किया जाता था जिसे कृषि कार्यों में उपयोग किया जाता था एवं गाय के दूध को घर में उपयोग करने के बाद इससे दही, घी एवं मक्खन आदि पदार्थों का निर्माण कर इसे बाजार में बेच भी दिया जाता था। इसी प्रकार गौमूत्र से कुछ आयुर्वेदिक दवाईयों का निर्माण भी किया जाता था। अतः कुल मिलाकर परिवार एवं समाज में किसी भी प्रकार की गतिविधि सम्पन्न करने के लिए अर्थ की आवश्यकता महसूस होती है।      अर्थ के विभिन्न आयामों को समझने के लिए भारत के प्राचीन काल में अर्थशास्त्र की रचना की गई थी। आचार्य चाणक्य को भारत में अर्थशास्त्र का जनक कहा जाता है। अर्थशास्त्र को परिभाषित करते हुए कहा जाता है कि नागरिकों को संतुष्टि प्रदान करने (वस्तुओं एवं सेवाओं का भारी मात्रा में उत्पादन कर उसकी आसान उपलब्धता कराना) के उद्देश्य से उत्पादन के साधनों (भूमि, श्रम, पूंजी, आदि) का दक्षतापूर्ण वितरण करना ही अर्थशास्त्र है।  दुनिया में कोई भी विचारक जब कभी भी आर्थिक विकास के बारे में सोचता है अथवा इस सम्बंध में कोई योजना बनाने का विचार करता है तो सामान्यतः उसके सामने मुख्य रूप से यह उद्देश्य रहता है कि उस देश का आर्थिक विकास इस तरह से हो कि उस देश के समस्त नागरिकों की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति बहुत आसानी से होती रहे, वे सम्पन्न बनें एवं खुश रहें। इस प्रकार, नागरिकों में प्रसन्नता का भाव विकसित करने में अर्थ के योगदान को भी आंका गया है। कई बार भारतीय समाज में यह उक्ति भी सुनाई देती है कि “भूखे पेट ना भजन हो गोपाला” अर्थात यदि देश के नागरिकों की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति ही नहीं होगी तो अध्यात्मवाद की ओर वे किस प्रकार मुड़ेंगे। आचार्य चाणक्य जी ने भी कहा है कि धर्म के बिना अर्थ नहीं टिकता, अर्थात धर्म एवं अर्थ का आपस में सम्बंध है। 

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आर्थिकी राजनीति

भारत में सहकारिता आंदोलन को सफल होना ही होगा

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भारत में आर्थिक विकास को गति देने के उद्देश्य से सहकारिता आंदोलन को सफल बनाना बहुत जरूरी है। वैसे तो हमारे देश में सहकारिता आंदोलन की शुरुआत वर्ष 1904 से हुई है एवं तब से आज तक सहकारी क्षेत्र में लाखों समितियों की स्थापना हुई है। कुछ अत्यधिक सफल रही हैं, जैसे अमूल डेयरी, परंतु इस प्रकार की सफलता की कहानियां बहुत कम ही रही हैं। कहा जाता है कि देश में सहकारिता आंदोलन को जिस तरह से सफल होना चाहिए था, वैसा हुआ नहीं है। बल्कि, भारत में सहकारिता आंदोलन में कई प्रकार की कमियां ही दिखाई दी हैं। देश की अर्थव्यवस्था को यदि 5 लाख करोड़ अमेरिकी डालर के आकार का बनाना है तो देश में सहकारिता आंदोलन को भी सफल बनाना ही होगा। इस दृष्टि से केंद्र सरकार द्वारा एक नए सहकारिता मंत्रालय का गठन भी किया गया है। विशेष रूप से गठित किए गए इस सहकारिता मंत्रालय से अब “सहकार से समृद्धि” की परिकल्पना के साकार होने की उम्मीद भी की जा रही है।       भारत में सहकारिता आंदोलन का यदि सहकारिता की संरचना की दृष्टि से आंकलन किया जाय तो ध्यान में आता है कि देश में लगभग 8.5 लाख से अधिक सहकारी साख समितियां कार्यरत हैं। इन समितियों में कुल सदस्य संख्या लगभग 28 करोड़ है। हमारे देश में 55 किस्मों की सहकारी समितियां विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रही हैं। जैसे, देश में 1.5 लाख प्राथमिक दुग्ध सहकारी समितियां कार्यरत हैं। इसके अतिरिक्त 93,000 प्राथमिक कृषि सहकारी साख समितियां कार्यरत हैं। ये मुख्य रूप से ग्रामीण इलाकों में कार्य करती हैं। इन दोनों प्रकार की लगभग 2.5 लाख सहकारी समितियां ग्रामीण इलाकों को अपनी कर्मभूमि बनाकर इन इलाकों की 75 प्रतिशत जनसंख्या को अपने दायरे में लिए हुए है। उक्त के अलावा देश में सहकारी साख समितियां भी कार्यरत हैं और यह तीन प्रकार की हैं। एक तो वे जो अपनी सेवाएं शहरी इलाकों में प्रदान कर रही हैं। दूसरी वे हैं जो ग्रामीण इलाकों में तो अपनी सेवाएं प्रदान कर रही हैं, परंतु कृषि क्षेत्र में ऋण प्रदान नहीं करती हैं। तीसरी वे हैं जो उद्योगों में कार्यरत श्रमिकों एवं कर्मचारियों की वित्त सम्बंधी जरूरतों को पूरा करने का प्रयास करती हैं। इसी प्रकार देश में महिला सहकारी साख समितियां भी कार्यरत हैं। इनकी संख्या भी लगभग एक लाख है। मछली पालन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से मछली सहकारी साख समितियां भी स्थापित की गई हैं, इनकी संख्या कुछ कम है। ये समितियां मुख्यतः देश में समुद्र के आसपास के इलाकों में स्थापित की गई हैं। देश में बुनकर सहकारी साख समितियां भी गठित की गई हैं, इनकी संख्या भी लगभग 35,000 है। इसके अतिरिक्त हाउसिंग सहकारी समितियां भी कार्यरत हैं।  उक्तवर्णित विभिन क्षेत्रों में कार्यरत सहकारी समितियों के अतिरिक्त देश में सहकारी क्षेत्र में  तीन प्रकार के बैंक भी कार्यरत हैं। एक, प्राथमिक शहरी सहकारी बैंक जिनकी संख्या 1550 है और ये देश के लगभग सभी जिलों में कार्यरत हैं। दूसरे, 300 जिला सहकारी बैंक कार्यरत हैं एवं तीसरे, प्रत्येक राज्य में एपेक्स सहकारी बैंक भी बनाए गए हैं। उक्त समस्त आंकडें वर्ष 2021-22 तक के हैं।    इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि हमारे देश में सहकारी आंदोलन की जड़ें बहुत गहरी हैं। दुग्ध क्षेत्र में अमूल सहकारी समिती लगभग 70 वर्ष पूर्व प्रारम्भ हुई है, जिसे आज भी सहकारी क्षेत्र की सबसे बड़ी सफलता के रूप में गिना जाता है। सहकारी क्षेत्र में स्थापित की गई समितियों द्वारा रोजगार के कई नए अवसर निर्मित किए गए हैं। सहकारी क्षेत्र में एक विशेषता यह पाई जाती है कि इन समितियों में सामान्यतः निर्णय सभी सदस्यों द्वारा मिलकर लिए जाते हैं। सहकारी क्षेत्र देश के आर्थिक विकास में अपनी अहम भूमिका निभा सकता है। परंतु इस क्षेत्र में बहुत सारी चुनौतियां भी रही हैं। जैसे, सहकारी बैंकों की कार्य प्रणाली को दिशा देने एवं इनके कार्यों को प्रभावशाली तरीके से नियंत्रित करने के लिए अपेक्स स्तर पर कोई संस्थान नहीं है। जिस प्रकार अन्य बैकों पर भारतीय रिजर्व बैंक एवं अन्य वित्तीय संस्थानों का नियंत्रण रहता है ऐसा सहकारी क्षेत्र के बैकों पर नहीं है। इसीलिए सहकारी क्षेत्र के बैंकों की कार्य पद्धति पर हमेशा से ही आरोप लगते रहे हैं एवं कई तरह की धोखेबाजी की घटनाएं समय समय पर उजागर होती रही हैं। इसके विपरीत सरकारी क्षेत्र के बैंकों का प्रबंधन बहुत पेशेवर, अनुभवी एवं सक्रिय रहा है। ये बैंक जोखिम प्रबंधन की पेशेवर नीतियों पर चलते आए हैं जिसके कारण इन बैंकों की विकास यात्रा अनुकरणीय रही है। सहकारी क्षेत्र के बैंकों में पेशेवर प्रबंधन का अभाव रहा है एवं ये बैंक पूंजी बाजार से पूंजी जुटा पाने में भी सफल नहीं रहे हैं। अभी तक चूंकि सहकारी क्षेत्र के संस्थानों को नियंत्रित करने के लिए प्रभावी तंत्र का अभाव था केंद्र सरकार द्वारा किए गए नए मंत्रालय के गठन के बाद सहकारी क्षेत्र के संस्थानों को नियंत्रित करने में कसावट आएगी एवं इन संस्थानों का प्रबंधन भी पेशेवर बन जाएगा जिसके चलते इन संस्थानों की कार्य प्रणाली में भी निश्चित ही सुधार होगा। सहकारी क्षेत्र पर आधरित आर्थिक मोडेल के कई लाभ हैं तो कई प्रकार की चुनौतियां भी हैं। मुख्य चुनौतियां ग्रामीण इलाकों में कार्य कर रही जिला केंद्रीय सहकारी बैकों की शाखाओं के सामने हैं। इन बैंकों द्वारा ऋण प्रदान करने की स्कीम बहुत पुरानी हैं एवं समय के साथ इनमें परिवर्तन नहीं किया जा सका है। जबकि अब तो ग्रामीण क्षेत्रों में आय का स्वरूप ही बदल गया है। ग्रामीण इलाकों में अब केवल 35 प्रतिशत आय कृषि आधारित कार्य से होती है शेष 65 प्रतिशत आय गैर कृषि आधारित कार्यों से होती है। अतः ग्रामीण इलाकों में कार्य कर रहे इन बैकों को अब नए व्यवसाय माडल खड़े करने होंगे। अब केवल कृषि व्यवसाय आधारित ऋण प्रदान करने वाली योजनाओं से काम चलने वाला नहीं है।  भारत विश्व में सबसे अधिक दूध उत्पादन करने वाले देशों में शामिल हो गया है। अब हमें दूध के पावडर के आयात की जरूरत नहीं पड़ती है। परंतु दूध के उत्पादन के मामले में भारत के कुछ भाग ही, जैसे पश्चिमी भाग, सक्रिय भूमिका अदा कर रहे हैं। देश के उत्तरी भाग, मध्य भाग, उत्तर-पूर्व भाग में दुग्ध उत्पादन का कार्य संतोषजनक रूप से नहीं हो पा रहा है। जबकि ग्रामीण इलाकों में तो बहुत बड़ी जनसंख्या को डेयरी उद्योग से ही सबसे अधिक आय हो रही है। अतः देश के सभी भागों में डेयरी उद्योग को बढ़ावा दिए जाने की आवश्यकता है। केवल दुग्ध सहकारी समितियां स्थापित करने से इस क्षेत्र की समस्याओं का हल नहीं होगा। डेयरी उद्योग को अब पेशेवर बनाने का समय आ गया है। गाय एवं भैंस को चिकित्सा सुविधाएं एवं उनके लिए चारे की व्यवस्था करना, आदि समस्याओं का हल भी खोजा जाना चाहिए। साथ ही, ग्रामीण इलाकों में किसानों की आय को दुगुना करने के लिए सहकारी क्षेत्र में खाद्य प्रसंस्करण इकाईयों की स्थापना करनी होगी। इससे खाद्य सामग्री की बर्बादी को भी बचाया जा सकेगा। एक अनुमान के अनुसार देश में प्रति वर्ष लगभग 25 से 30 प्रतिशत फल एवं सब्जियों का उत्पादन उचित रख रखाव के अभाव में बर्बाद हो जाता है।    शहरी क्षेत्रों में गृह निर्माण सहकारी समितियों का गठन किया जाना भी अब समय की मांग बन गया है क्योंकि शहरी क्षेत्रों में मकानों के अभाव में बहुत बड़ी जनसंख्या झुग्गी झोपड़ियों में रहने को विवश है। अतः इन गृह निर्माण सहकारी समितियों द्वारा मकानों को बनाने के काम को गति दी जा सकती है। देश में आवश्यक वस्तुओं को उचित दामों पर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से कंजूमर सहकारी समितियों का भी अभाव है। पहिले इस तरह के संस्थानों द्वारा देश में अच्छा कार्य किया गया है। इससे मुद्रा स्फीति की समस्या को भी हल किया जा सकता है। देश में व्यापार एवं निर्माण कार्यों को आसान बनाने के उद्देश्य से “ईज आफ डूइंग बिजिनेस” के क्षेत्र में जो कार्य किया जा रहा है उसे सहकारी संस्थानों पर भी लागू किया जाना चाहिए ताकि इस क्षेत्र में भी काम करना आसान हो सके। सहकारी संस्थानों को पूंजी की कमी नहीं हो इस हेतु भी प्रयास किए जाने चाहिए। केवल ऋण के ऊपर अत्यधिक निर्भरता भी ठीक नहीं है। सहकारी क्षेत्र के संस्थान भी पूंजी बाजार से पूंजी जुटा सकें ऐसी व्यवस्था की जा सकती हैं।     विभिन्न राज्यों के सहकारी क्षेत्र में लागू किए गए कानून बहुत पुराने हैं। अब, आज के समय के अनुसार इन कानूनो में परिवर्तन करने का समय आ गया है। सहकारी क्षेत्र में पेशेवर लोगों की भी कमी है, पेशेवर लोग इस क्षेत्र में टिकते ही नहीं हैं। डेयरी क्षेत्र इसका एक जीता जागता प्रमाण है। केंद्र सरकार द्वारा सहकारी क्षेत्र में नए मंत्रालय का गठन के बाद यह आशा की जानी चाहिए के सहकारी क्षेत्र में भी पेशेवर लोग आकर्षित होने लगेंगे और इस क्षेत्र को सफल बनाने में अपना भरपूर योगदान दे सकेंगे। साथ ही, किन्हीं समस्याओं एवं कारणों के चलते जो सहकारी समितियां निष्क्रिय होकर बंद होने के कगार पर पहुंच गई हैं, उन्हें अब पुनः चालू हालत में लाया जा सकेगा। अमूल की तर्ज पर अन्य क्षेत्रों में भी सहकारी समितियों द्वारा सफलता की कहानियां लिखी जाएंगी ऐसी आशा की जा रही है। “सहकारिता से विकास” का मंत्र पूरे भारत में सफलता पूर्वक लागू होने से गरीब किसान और लघु व्यवसायी बड़ी संख्या में सशक्त हो जाएंगे। प्रहलाद सबनानी 

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आर्थिकी राजनीति

भारत में एकात्म मानववाद के सिद्धांत को अपना कर हो आर्थिक विकास

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भारतीय संस्कृति के अनुसार ही भारतीय आर्थिक दर्शन में भी सृष्टि की समस्त इकाईयों, अर्थात व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं समष्टि को एक माला की कड़ी के रूप में देखा गया है। एकता की इस कड़ी को ही पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय ने ‘एकात्म मानववाद’ बताया है। एकात्म मानववाद वैदिक काल से चले आ रहे सनातन प्रवाह का ही युगानुरूप प्रकटीकरण है। सनातन हिंदू दर्शन आत्मवादी है। आत्मा ही परम चेतन का अंश है।  पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय ने समाज और राष्ट्र में भी चित्त, आत्मा, मन, बुद्धि एवं शरीर आदि का समुच्चय देखा है। अतः इस एकात्म मानववादी दर्शन के उतने ही आयाम एवं विस्तार है, जितनी मनुष्य की आवश्यकताएं हैं। इन विभिन्न आवश्यकताओं का केंद्र बिंदु अर्थ को ही माना गया है।  कौटिल्य ने अर्थशास्त्र की परिभाषा में लिखा है कि अर्थशास्त्र का मुख्य अभिप्राय, अप्राप्ति की प्राप्ति; प्राप्ति का संरक्षण तथा संरक्षित का उपभोग है। एकात्म मानववाद में भी आर्थिक व्यवहार उक्त आधारों पर ही टिके होते हैं। इस प्रकार, अर्थशास्त्र की दिशा स्वतः ही विकासवादी हो जाती है। भारत के नागरिक पिछले लम्बे समय से पश्चिमी शिक्षा व्यवस्था में पले बढ़े हैं अतः वे भारत की पौराणिक एवं वैदिक ज्ञान परम्परा से विमुख हो गए हैं। इसी प्रकार, प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्र एवं आर्थिक चिंतन से भी हम भारतीय इतने अधिक दूर हो गए हैं कि प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्र को सिर्फ उक्ति एवं सिद्धांत मानने के साथ साथ अव्यवहारिक भी मानने लगे हैं। जबकि, वैदिक साहित्य में धन के 22 से अधिक प्रकारों की स्पष्ट व्याख्या की गई है, जिसमें शेयर से लेकर आय एवं मूलधन भी सम्मिलित है। प्राचीन भारत के आर्थिक चिंतन को आज यदि लागू किया जाता है तो केवल भारत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानवता का कल्याण होगा, क्योंकि हिंदू अर्थशास्त्र एकात्म मानववाद पर आधारित है, जिसमें व्यक्ति अपने लिए नहीं, वरन समष्टि के लिए जीता है। इसे निम्नलिखित सूत्र के माध्यम से अधिक स्पष्ट किया जा सकता हैं –  हिंदू अर्थशास्त्र      =   व्यक्ति x परमार्थ (एकात्म मानववाद एवं त्याग) पश्चिमी अर्थशास्त्र =   व्यक्ति x स्वार्थ   (आत्म केंद्रित एवं लाभ)  एकात्म मानववादी अर्थशास्त्र में व्यक्ति अपने एवं अपनों के स्थान पर समष्टि तथा चराचर और परमार्थ के लिए जीता है। जिसमें स्वयं के लिए मुनाफा एवं लाभ के स्थान पर दूसरों की चिंता मुख्य होती है। परंतु, इसके ठीक विपरीत पश्चिम का अर्थशास्त्र आत्मकेंद्रित व्यवहार एवं स्वार्थ पर खड़ा है।  पश्चिम के विकासवादी दर्शन का केंद्र मुनाफा, स्वार्थ एवं लाभ है। परंतु, हिंदू आर्थिक चिंतन के आधार पर खड़े एकात्म मानववाद का आधार अथवा केंद्र परमार्थ है। इसलिए एकात्म मानववादी आर्थिक विकास में विकास केवल अर्थ के लिए नहीं वरन परमार्थ के लिए है। हिंदू आर्थिक दर्शन परम्परा में विकास की अवधारणा को समग्रता में व्यक्त किया गया है। यह विकास त्रिगुण आधारित है। इस त्रिगुण में – सत, रज एवं तम सम्मिलित है। प्राचीन भारतीय चिंतन में सत्तवादी विकास श्रेष्ठ माना गया है। इस सत्तवादी विकास के तत्व हैं ज्ञान, तपस्या, सदकर्म, प्रेम एवं समत्वभाव तथा इसकी उपस्थिति सतयुग में मानी गई है। विकास का दूसरा स्वरूप रजस को माना गया। इस रजसवादी विकास के तत्व हैं अहंबुद्धि, प्रतिष्ठा, मानबढ़ाई, लौकिक, पारलौकिक सुखा मत्सर, दम्भ एवं लोभ तथा इसकी उपस्थिति त्रेतायुग में मानी गई है। इसे मानवीय और मध्यम माना गया है। इसी प्रकार, विकास का तीसरा स्वरूप तमस को माना गया है। इस तमसवादी विकास के तत्व हैं असत्य, माया, कपट, आलस्य, निंदा, हिंसा, विषाद, शोक, मोह, भय तथा इसकी उपस्थिति कलयुग में मानी गई है। इस प्रकार सत, रज एवं तम गुणों के आधार पर उक्त विकास के तीन रूपों के साथ एक मिश्रित विकास का भी मॉडल माना गया है, जिसमें रजस एवं तमस गुण मिले होते हैं और इस मॉडल की उपस्थिति द्वापर युग में मानी गई है।  इस प्रकार भारतीय चिंतन परम्परा में विकास के उक्त चार प्रारूप माने गए हैं। इन चारों प्रारूपों का उपयोग चार युगों सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग एवं कलियुग में होता पाया गया है। इसमें सबसे उत्तम सतयुगी विकास प्रारूप को माना गया है तथा सबसे अधम कलियुगी विकास प्रारूप को माना गया है। भारत में, वर्तमान खंडकाल में त्रेतायुग के रामराज्य को भी बहुत अच्छा माना गया है एवं इसके स्थापना की कल्पना की जाती रही है। पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय ने महात्मा गांधी जी के ट्रस्टी शिप एवं हिंद स्वराज्य के विवेचन को भी अपने विमर्श में स्थान दिया है। इस प्रकार भारतीय चिंतन परम्परा का आदर्श रामराज्य है, इसमें भरत जैसे राजा एवं जनक जैसे राजा तपस्वी के रूप में राज्य करते थे। स्वयं श्रीराम धर्म की मर्यादा को अपने लिए भी लागू करते थे एवं धर्म की मर्यादा का कभी भी उल्लंघन नहीं करते थे। सदैव प्रजा एवं प्रकृति की रक्षा एवं संवर्धन करते रहते हैं। यह एक ऐसा विकास का प्रारूप है जो आज भी आदर्श है। रामराज्य की अवधारणा भी एकात्म मानववाद के आधारों पर खड़ी थी। यह शासन तथा विकास एवं व्यवस्था में सब की भागीदारी तथा सब के लिए व्यवस्था थी, जो प्रकृति आधारित विकास पर बल देती थी। भारत में सबसे छोटी इकाई व्यक्ति पर बल दिया गया है और उसका संगठन किया गया है। भारत में व्यक्ति के स्वरूप को जिस प्रकार संगठित और एकात्म किया गया वैसा पश्चिम में नहीं हो सका है। पश्चिम में केवल भौतिक प्रगति पर ही बल दिया गया है। पूरे विश्व में आज सर्वाधिक विकसित राष्ट्र अमेरिका को माना जाता है। अमेरिका में नागरिकों की भौतिक प्रगति तो बहुत हो गई है, परंतु अमेरिका के नागरिकों में सुख, संतोष और समाधान का पूर्णतया अभाव है। अमेरिका में व्यक्ति के जीवन में परस्पर विरोध, असमाधान, असंतोष, सर्वाधिक अपराध और आत्महत्याएं बहुत बड़ी मात्रा में व्याप्त हैं। अमेरिकी नागरिकों में तीव्र रक्तचाप, हृदय रोग एवं अपराध की प्रवृत्ति बहुत अधिक मात्रा में पाई जा रही है। पूरे विश्व को प्रभावित करने की क्षमता रखने वाला अमेरिका अपने नागरिकों के लिए भौतिक समाधान से आगे बढ़कर मानसिक समाधान प्राप्त नहीं कर सका है। इस धरा पर जन्म लेने के बाद प्रत्येक व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य आखिर है क्या? सम्भवतः सुख जो चिरंतन एवं घनीभूत हो। इतनी भौतिक प्रगति करने के बाद भी अमेरिका एवं यूरोपीय देशों के नागरिकों में समाधान व सुख का अभाव है। ईसा ने कहा था कि ‘सम्पूर्ण संसार का साम्राज्य भी प्राप्त कर लिया और यदि आत्मा का सुख खो दिया तो उससे क्या लाभ?’  भारत में छोटी से छोटी इकाई व्यक्ति संगठित और एकात्म है एवं व्यक्ति को खंडो में विभक्त समझने की बुद्धिमता प्रदर्शित नहीं की गई है। परंतु, अमेरिका के एक मनोवैज्ञानिक ने वर्णन किया है कि ‘सड़कों पर एक ऐसी बड़ी भीड़ हमेशा लगी रहती है जो आत्मविहीन, मानसिक दृष्टि से अस्वस्थ, एक दूसरे से अपरिचित और निःसंग स्थिति में है। उनका अपने ही साथ समन्वय नहीं तो दुनिया के साथ क्या होगा? व्यक्ति का समाज के साथ समन्वय नहीं। व्यक्ति भी संगठित और एकात्म इकाई नहीं। केवल भौतिक स्तर पर विचार करने के कारण वहां व्यक्ति को भौतिक एवं आर्थिक प्राणी माना गया है। यदि भौतिक आर्थिक उत्कर्ष मानव को मिले तो उससे सुख की प्राप्ति होगी, यह माना गया। किंतु भौतिक आर्थिक उत्कर्ष की चरम सीमा होने पर भी सुख का अभाव है और इसका कारण यही है कि वहां खंड खंड में विचार करने की प्रणाली है, जिसमें व्यक्ति को केवल भौतिक आर्थिक प्राणी मान लिया गया है और व्यक्ति के सभी पहलुओं को ध्यान में रखकर संगठित एवं एकात्म रूप में विचार नहीं किया गया है।  भारत के प्राचीन ग्रंथों में यह माना गया है कि मनुष्य एक आर्थिक प्राणी भी है एवं ‘आहार, निद्रा, भय, मैथुन, आर्थिक आवश्यकताओं, आदि’ की तृप्ति की बात भारत में भी कही गई है। इन जरूरतों की पूर्ति होना चाहिए, इस तथ्य को भी स्वीकार किया गया है। किंतु भारत में मनुष्य को आर्थिक प्राणी से कुछ ऊपर भी माना गया है। मनुष्य आर्थिक प्राणी के साथ साथ वह एक शरीरधारी, मनोवौज्ञानिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक प्राणी भी है। भारतीय मनुष्य के व्यक्तित्व के अनेकानेक पहलू है। अतः यदि सम्पूर्ण व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का संगठित और एकात्म रूप से विचार नहीं हुआ तो उसको सुख समाधान की अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए भारत में इस दृष्टि से संगठित एवं एकात्म स्वरूप का विचार हुआ है। मनुष्य की आर्थिक एवं भौतिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर यह कहा गया है कि इन वासनाओं की तृप्ति होनी चाहिए लेकिन साथ ही यह भी कहा गया है कि इन आवश्यकताओं पर कुछ वांछनीय मर्यादा होना भी आवश्यक है। गीता के तृतीय अध्याय के 42वें श्लोक में कहा गया है कि इंद्रियां (विषयों से) ऊपर स्थित हैं, इंद्रियों से मन उत्कृष्ट है। बुद्धि मन से भी ऊपर अवस्थित है, जो बुद्धि की अपेक्षा भी उत्कृष्ट है और उससे भी अगम्य है – वही आत्मा है। अतः काम को स्वीकार करने के उपरांत भी उसे अनियत्रिंत नहीं रहने दिया गया है। काम की पूर्ति धर्म के विरुद्ध नहीं होनी चाहिए, ऐसा भारतीय शास्त्रों में कहा गया है।  प्राचीन भारत में अर्थ के महत्व को भी स्वीकार किया गया है एवं अर्थशास्त्र की रचना भी हुई है। यह माना जाता रहा है कि राज्य के समस्त नागरिकों की भौतिक आवश्यकताओं की पर्याप्त पूर्ति होनी चाहिए ताकि इसके अभाव में अपना पेट पालने के लिए व्यक्ति को 24 घंटे चिंता करने की आवश्यकता नहीं पड़े। राज्य के नागरिकों को पर्याप्त अवकाश मिल सके, जिससे वह संस्कृति, कला, साहित्य और भगवान आदि के बारे में चिन्तनशील हो सके। इस प्रकार अर्थ और काम को मान्यता देकर साथ ही यह भी कहा गया है कि एक व्यक्ति का अर्थ और काम उसके विनाश का अथवा समाज के विघटन का कारण न बने। इस दृष्टि से भारत के प्राचीन दृष्टाओं ने विशिष्ट दर्शन दिया था। उसमें विश्व की धारणा के लिए शाश्वत नियम और सार्वजनिक नियम देखे थे, उनका दर्शन किया था। व्यक्ति को विनाश से बचाने के लिए, समाज को विघटन से बचाने के लिए एवं व्यक्ति के परम उत्कर्ष को प्राप्त करने के लिए सार्वजनिक एवं सार्वदेशिक नियमों के प्रकाश में जो अवस्था उन्होंने बनायी उसके समुच्चय को धर्म कहा गया। इस धर्म के अंतर्गत अर्थ और काम की पूर्ति का भी विचार हुआ। साथ ही, प्रत्येक व्यक्ति परम सुख यानी मोक्ष प्राप्त कर सके, इसका चिंतन भी हुआ। इस प्रकार धर्म और मोक्ष के मध्य अर्थ और काम को रखते हुए चतुर्विध पुरुषार्थ की कल्पना भारत में ही की गई है। इस समन्वयात्मक, संगठित और एकात्मवादी कल्पना में व्यक्ति का व्यक्तित्व विभक्त्त नहीं हुआ। यह आत्मविहीन एवं मानसिक दृष्टि से अस्वस्थ प्राणी न बन सका। इस चतुर्विध पुरुषार्थ ने प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक बौद्धिक क्षमताओं के अनुसार अपना जीवनादर्शन चुनने का अवसर दे दिया और साथ ही व्यक्तित्व को अखंड बनाए रखा। यह स्मरण रखना चाहिए कि जहां व्यक्ति के व्यक्तित्व रूपी विभिन्न पहलू संगठित नहीं है या व्यक्ति संगठित नहीं है, वहां समाज संगठित कैसे हो सकता है? इस संगठित आधार पर ही भारत में व्यक्ति से परिवार, समाज, राष्ट्र, मानवता और चराचर सृष्टि का विचार किया गया। एकात्म मानवदर्शन इसी का नाम है और आज भारत में आर्थिक विकास को एकात्म मानववाद के सिद्धांत का अनुपालन करते हुए ही गति दी जानी चाहिए। 

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आर्थिकी राजनीति

भारत में रोजगार के संदर्भ में बदलना होगा अपना नजरिया

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भारतीय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति की सदस्य सुश्री शमिका रवि द्वारा हाल ही में सम्पन्न किए गए एक रिसर्च पेपर में, आंकड़ों के साथ, कई महत्वपूर्ण जानकारियां दी गई हैं। इस रिसर्च पेपर में भारत के आर्थिक विकास के कई क्षेत्रों के सम्बंध में तथ्यों पर आधारित सारगर्भित बातें बताने के साथ साथ यह भी जानकारी दी गई है कि किस प्रकार भारत में अब ग्रामीण इलाके भी देश की अर्थव्यवस्था में अपना योगदान बढ़ा रहे हैं तथा कई राज्यों की आर्थिक स्थिति में सुधार होता हुआ दिखाई दे रहा है। साथ ही, यह भी बताया गया है कि किस प्रकार भारत में तेज गति से हो रहे आर्थिक विकास का लाभ देश के युवाओं को रोजगार के अधिक अवसरों के रूप में मिल रहा है। आज भारत में केवल मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, बैंगलोर, हैदराबाद, पुणे जैसे महानगर ही देश के  विकास में भागीदारी नहीं कर रहे हैं बल्कि ग्रामीण इलाकों में भी पर्याप्त विकास हो रहा है। इससे रोजगार के अवसर भी इन इलाकों में निर्मित हो रहे हैं। सबसे अधिक विकास आज अविकसित क्षेत्रों में हो रहा है। आज गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, आदि के साथ साथ उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, एवं नोर्थ ईस्ट के इलाके भी तेजी से विकास कर रहे हैं। विकास के कई नए क्षेत्रों का निर्माण हुआ है। पिछड़े हुए इन राज्यों में गति पकड़ रहा विकास, भारत के सकल घरेलू उत्पाद में और भी अधिक वृद्धि दर्ज करने में सहायक सिद्ध होगा। ग्रामीण इलाकों में मूलभूत सुविधाओं का अतुलनीय विस्तार हुआ है, जिसके चलते अब सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में कार्य करने वाली कम्पनियां भी अपने संस्थानों को ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित हो रही हैं। विशेष रूप से दक्षिणी प्रदेशों में कुछ कम्पनियों ने इस सम्बंध में अच्छी पहल की है। प्राचीन भारत में ग्रामीण क्षेत्र ही आर्थिक विकास के मजबूत केंद्र रहे हैं। इससे इन क्षेत्रों में निवासरत नागरिकों को रोजगार के अवसर भी इनके आसपास के इलाकों में मिल जाते हैं और इन्हें शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन करने की आवश्यकता ही नहीं होती है।    दूसरे, सामान्यतः देश के विभिन्न राज्यों की वित्तीय स्थिति में भी मजबूती आई है। कुछ राज्यों के बजटीय घाटे में अतुलनीय सुधार दृष्टिगोचर हुआ है। परंतु, साथ ही कुछ राज्यों जैसे, पंजाब, केरल, पश्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेश, आदि प्रदेशों में आज बजटीय घाटे की स्थिति दयनीय हो रही है जिसे शीघ्र ही सम्हालने की आवश्यकता है क्योंकि एक तो इन राज्यों में विकास दर कम होती जा रही है दूसरे इन राज्यों द्वारा मुफ्त योजनाओं को धड़ल्ले से चलाया जा रहा है, बगैर यह ध्यान दिए कि इन बढ़े हुए खर्चों के लिए क्या उनके बजट में कुछ गुंजाइश भी है। इस प्रकार के बढ़े हुए खर्चे इन राज्यों के बजट पर अंततः दबाव बढ़ाते हैं।  आज देश में कुछ राज्यों में ब्याज के भुगतान, प्रशासन सम्बंधी खर्चों एवं सेवानिवृत्त कर्मचारियों को पेंशन का भुगतान करने में ही पूरे बजट की राशि समाप्त हो जाती है। प्रदेश में विकास कार्य करने के लिए कुछ भी राशि बचती ही नहीं है बल्कि कुछ राज्यों को तो इन मदों पर भुगतान करने हेतु भी ऋण लेना होता है जो बजट पर और अधिक दबाव को बढ़ाता है। पूंजीगत खर्चे इन राज्यों में कम ही हो पा रहे हैं जिससे इन राज्यों में प्रति व्यक्ति आय भी कम है और ये राज्य विकास की दर को हासिल नहीं कर पा रहे हैं। दिल्ली में पिछले 10 वर्ष पूर्व तक पूंजीगत मदों पर बजट का एक बहुत बड़ा भाग खर्च होता था परंतु पिछले 10 वर्षों में पूंजीगत व्यय में भारी कमी दृष्टिगोचर हुई है। पंजाब की स्थिति भी बहुत खराब हो गई है केवल 20 वर्ष पूर्व तक पंजाब देश में  सबसे अमीर राज्यों की श्रेणी में शामिल था परंतु आज इसके आसपास के राज्य, हिमाचल प्रदेश एवं हरियाणा, भी पंजाब से आगे निकल गए हैं। इन राज्यों में उद्योगों को स्थापित करने की आज सबसे अधिक आवश्यकता है। पंजाब से उद्योग निकलकर हिमाचल प्रदेश एवं हरियाणा में चला गया है। मध्यप्रदेश एवं बिहार कृषि के क्षेत्र में बहुत भारी वृद्धि दर्ज कर रहे हैं परंतु उद्योग के कम मात्रा में होने के चलते इन राज्यों में प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि दर तुलनात्मक रूप से कम है।  किसी भी देश के लिए श्रम की भागीदारी एवं बेरोजगारी दो अलग अलग मुद्दे हैं। श्रम की भागीदारी में 18 वर्ष से 59 वर्ष के बीच के वे लोग शामिल रहते हैं जो अर्थ के अर्जन हेतु या तो कुछ कार्य कर रहे हैं अथवा कोई आर्थिक कार्य करने को उत्सुक हैं एवं इस हेतु रोजगार तलाश रहे हैं। पिछले 40 वर्षों के दौरान चीन में श्रम की औसत भागीदारी 75 प्रतिशत से ऊपर रही है। अर्थात प्रत्येक 4 में से 3 लोग या तो रोजगार में रहे हैं अथवा रोजगार तलाशते रहे हैं। वियतनाम में श्रम की भागीदारी 72 से 73 प्रतिशत की बीच रही है। बंगलादेश में यह 60 प्रतिशत से अधिक रही है। परंतु भारत में श्रम की भागीदारी 5 वर्ष पूर्व तक केवल 50 प्रतिशत के आसपास थी जो आज बढ़कर 57 प्रतिशत हो गई है। अर्थात इतने बड़े देश में कुल कार्य करने योग्य जनसंख्या में से आधे से कुछ कम आबादी या तो रोजगार में नहीं है अथवा रोजगार तलाश भी नहीं रही है। यह स्थिति भारत जैसे देश के लिए ठीक नहीं है।  दूसरे, बेरोजगारी से आश्य ऐसे नागरिकों से है जो रोजगार तलाश रहे हैं लेकिन उन्हें रोजगार मिल नहीं रहा है। भारत में ऐसे नागरिकों की संख्या मात्र 3 प्रतिशत ही है। समय के साथ बेरोजगारी की दर में थोड़ा बहुत परिवर्तन होता रहता है। परंतु, जब इस स्थिति को विभिन्न प्रदेशों के बीच तुलना करते हुए देखते हैं तो बेरोजगारी की दर में भारी अंतर दिखाई देता है। गुजरात, छत्तीसगढ़, कर्नाटक जैसे राज्यों में बेरोजगारी की दर यह 0.9 से 1.5 प्रतिशत के बीच है, जबकि केरल में 12.5 प्रतिशत है। आर्थिक विकास में वृद्धि के साथ साथ रोजगार के अवसर भी अधिक निर्मित होते हैं। इसलिए आज देश में रोजगार के नए अवसर निर्मित करने के लिए व्यवसाय को बढ़ाना होगा, विकास को बढ़ाना होगा। केवल केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारें समस्त नागरिकों को रोजगार उपलब्ध नहीं करा सकती है। इस हेतु, निजी क्षेत्र को आगे आना ही होगा। केंद्र सरकार एवं राज्य सरकार के संस्थानों के रोजगार के अवसर निर्मित करने की कुछ सीमाएं हैं।  आज भारत में 30 वर्ष के अंदर की उम्र के नागरिकों में बेरोजगारी की दर 12 प्रतिशत है, जबकि देश में कुल बेरोजगारी की दर 3.1 प्रतिशत है। अतः देश के युवाओं में बेरोजगारी की दर अधिक दिखाई देती है। देश के युवाओं में कौशल का अभाव है। इसलिए केंद्र सरकार विशेष कार्यक्रम लागू कर युवाओं में कौशल विकसित का प्रयास कर रही है। विशेष रूप से भारत में युवाओं के लिए कहा जा रहा है कि वे 30 वर्ष की उम्र तक काम करना ही नहीं चाहते हैं, क्योंकि इस उम्र तक वे रोजगार के अच्छे अवसर ही तलाशते रहते हैं। 30 वर्ष की उम्र के बाद वे दबाव में आने लगते हैं एवं फिर उन्हें जो भी रोजगार का अवसर प्राप्त होता है उसे वे स्वीकार कर लेते हैं। इसलिए 30 वर्ष से अधिक की उम्र के नागरिकों के बीच बेरोजगारी की दर बहुत कम है। यह स्थिति हाल ही के समय में विश्व के अन्य देशों में भी देखी जा रही है। युवाओं की अपनी नजर में सही रोजगार के अवसर के लिए वे इंतजार करते रहते हैं, अथवा वे अपनी पढ़ाई जारी रखते हैं। आज विशेष रूप से भारत में  रोजगार के अवसरों की कमी नहीं है। युवाओं में कौशल एवं मानसिकता का अभाव एवं केवल सरकारी नौकरी को ही रोजगार के अवसर के लिए चुनना ही भारत में श्रम की भागीदारी में कमी के लिए जिम्मेदार तत्व हैं। अधिक डिग्रीयां प्राप्त करने वाले युवा रोजगार के अच्छे अवसर तलाश करने में ही लम्बा समय व्यतीत कर देते हैं। कम डिग्री प्राप्त एवं कम पढ़े लिखे नागरिक छोटी उम्र से ही रोजगार प्राप्त कर लेते हैं। यह भी कटु सत्य है कि डिग्री प्राप्त करने एवं वास्तविक धरातल पर कौशल विकसित करने में बहुत अंतर है। आज भी भारत में कई कम्पनियों की शिकायत है कि देश में इंजीनीयर्स तो बहुत मिलते हैं परंतु उच्च कौशल प्राप्त इंजीनीयर्स की भारी कमी हैं। तमिलनाडु में किए गए एक अध्ययन में यह तथ्य उभर का सामने आया है कि किसी भी देश के नागरिक जब अधिक उम्र में रोजगार प्राप्त करते हैं तो उनकी कुल उम्र भर की कुल वास्तविक औसत आय बहुत कम हो जाती है। इसके विपरीत जो नागरिक अपनी उम्र के शुरूआती पड़ाव में ही रोजगार प्राप्त कर लेते हैं उनकी कुल उम्र भर की वास्तविक औसत आय तुलनात्मक रूप से बहुत बढ़ जाती है। भारत में स्टार्ट अपस को बढ़ावा दिया जाना चाहिए एवं युवाओं को सरकारी नौकरी की चाहत को छोड़कर निजी क्षेत्र में रोजगार प्राप्त करने के प्रयास करने चाहिए। साथ ही आज युवाओं को अपने स्वयं के व्यवसाय प्रारम्भ करने के प्रयास भी करने चाहिए।  प्रहलाद सबनानी

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आर्थिकी लेख

जनजाति समाज के लिए चलाई जा रही आर्थिक विकास की योजनाएं

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जनजाति समाज बहुत ही कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए देश में दूर दराज इलाकों के सघन जंगलो के बीच वनों में रहता है। जनजाति समाज के सदस्य बहुत ही कठिन जीवन व्यतीत करते रहे हैं एवं देश के वनों की सुरक्षा में इस समाज का योगदान अतुलनीय रहा है। चूंकि यह समाज भारत के सुदूर इलाकों में रहता है अतः देश के आर्थिक विकास का लाभ इस समाज के सदस्यों को कम ही मिलता रहा है। इसी संदर्भ में केंद्र सरकार एवं कई राज्य सरकारों ने विशेष रूप से जनजाति समाज के लिए कई योजनाएं इस उद्देश्य से प्रारम्भ की हैं कि इस समाज के सदस्यों को राष्ट्र विकास की मुख्य धारा में शामिल किया जा सके एवं इस समाज की कठिन जीवनशैली को कुछ हद्द तक आसान बनाया जा सके। भारत में सम्पन्न हुई वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार अनुसूचित जनजातियों की कुल जनसंख्या 10.43 करोड़ है, जो भारत की कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है।  जनजाति समाज के सदस्यों को भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में शामिल किए जाने के प्रयास भी किए जाते रहे हैं एवं इस समाज के कई प्रतिभाशाली सदस्य तो कई बार केंद्र सरकार के मंत्री, राज्यपाल एवं प्रदेश के मुख्यमंत्री के पदों तक भी पहुंचे हैं। आज भारत की राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू भी आदिवासी समाज से ही आती हैं।   केंद्र सरकार द्वारा जनजाति समाज को केंद्र में रखकर उनके लाभार्थ चलाई जा रही विभिन योजनाओं की विस्तृत जानकारी प्रदान करने के उद्देश्य से एक विशेष पोर्टल का निर्माण किया है। जिसकी लिंक है – भारत सरकार का राष्ट्रीय पोर्टल https://www.इंडिया.सरकार.भारत/ – इस लिंक को क्लिक करने के बाद “खोजें” के बॉक्स में जनजाति समाज को दी जाने वाली सुविधाएं टाइप करने से, भारत सरकार द्वारा प्रदान की जा रही विभिन्न सुविधाओं की सूची निकल आएगी एवं इन योजनाओं का लाभ उठाने के लिए उपयोग किए जाने वाले प्रपत्रों की सूची भी डाउनलोड की जा सकती है।  जनजाति समाज के लिए केंद्र सरकार द्वारा चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं को दो प्रकार से चलाया जा रहा है। कई योजनाओं का सीधा लाभ जनजाति समाज के सदस्यों को प्रदान किया जाता है। साथ ही, कुछ योजनाओं के अंतर्गत राज्य सरकारों को विशेष केंद्रीय सहायता एवं अनुदान प्रदान किया जाता है और इन योजनाओं को राज्य सरकारों द्वारा क्रियान्वित किया जाता है। जैसे, जनजातीय उप-योजना के माध्यम से राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों को जनजातीय विकास हेतु किए गए प्रयासों को पूरा करने के लिए विशेष केंद्रीय सहायता प्रदान की जाती है। इस सहायता का मूल प्रयोजन पारिवारिक आय सृजन की निम्न योजनाओं जैसे कृषि, बागवानी, लघु सिंचाई, मृदा संरक्षण, पशुपालन, वन, शिक्षा, सहकारिता, मत्स्य पालन, गांव, लघु उद्योगों तथा न्यूनतम आवश्यकता संबंधी कार्यक्रमों से है। इसी प्रकार, जनजातीय विकास हेतु परियोजनाओं की लागत को पूरा करने तथा अनुसूचित क्षेत्र के प्रशासन स्तर को राज्य/संघ राज्य क्षेत्रों के बराबर लाने के लिए राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों को भी अनुदान दिया जाता है। जनजातीय समाज के विद्यार्थियों को गुणवत्तापरक शिक्षा प्रदान करने के लिए आवासीय विद्यालय स्थापित करने हेतु भी उक्त निधियों के कुछ हिस्से का प्रयोग किया जाता है। राज्य सरकारों को वित्त उपलब्ध कराने सम्बंधी उक्त दो योजनाओं का केवल उदाहरण के लिए वर्णन किया गया है, अन्यथा इसी प्रकार की कई योजनाएं केंद्र सरकार द्वारा चलाई जा रही हैं। इसी कड़ी में जनजाति समाज के सदस्यों को सीधे ही लाभ प्रदान करने के उद्देश्य से भी केंद्र सरकार द्वारा कई योजनाएं चलाई जा रही हैं। जिनमे मुख्य रूप से शामिल हैं – (1) आदिवासी उत्पादों और उत्पादन विपणन विकास की योजना; (2) एमएसपी योजना की मूल्य श्रृंखला के विकास के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के माध्यम से लघु वनोपज के विपणन हेतु योजना; (3) आदिवासी उत्पादों या निर्माण योजना के विकास और विपणन के लिए संस्थागत सहयोग की योजना; (4) आदिवासी क्षेत्रों में व्यावसायिक प्रशिक्षण योजना के अंतर्गत वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने की योजना; (5) जनजातीय क्षेत्रों में व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना की योजना; (6) जनजातीय अनुसंधान संस्थानों के लिए अनुदान योजना; (7) उत्कृष्ट केन्द्रों के समर्थन के लिए वित्तीय सहायता योजना जिसका लाभ जनजातीय विकास और अनुसंधान क्षेत्र में काम कर रहे विश्वविद्यालयों और संस्थानों को दिया जाता है। इस योजना का उद्देश्य विभिन्न गैर सरकारी संगठनों की संस्थागत संसाधन क्षमताओं को बढ़ाना और मजबूत बनाना है ताकि इन अनुसंधान संस्थानों और विश्वविद्यालय के विभागों द्वारा आदिवासी समुदायों पर गुणात्मक, क्रिया उन्मुख और नीति अनुसंधान का संचालन किया जा सके; (8) राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति वित्त एवं विकास निगम (एनएसटीएफडीसी) और राज्य अनुसूचित जनजाति वित्त एवं विकास निगम (एसटीएफडीसी) को न्यायसम्य (इक्विटी) सहायता प्रदान करने की योजना। यह योजना केन्द्र सरकार द्वारा वित्त पोषित है और आदिवासी मामले मंत्रालय द्वारा शुरू की गई है; (9) आदिवासी आवासीय विद्यालयों की स्थापना सम्बंधी योजना; (10) अनुसूचित जनजाति के छात्रों के लिए केन्द्रीय क्षेत्र की छात्रवृत्ति योजना; (11) अनुसूचित जनजाति के छात्रों की योग्यता उन्नयन संबंधी योजना; (12) अनुसूचित जनजाति के छात्रों के लिए राष्ट्रीय प्रवासी छात्रवृत्ति योजना। उक्त समस्त योजनाओं की विस्तृत जानकारी उक्त वर्णित पोर्टल पर उपलब्ध है।  इसी प्रकार केंद्र सरकार के साथ साथ कई राज्य सरकारें भी जनजाति समाज के लाभार्थ स्वतंत्र रूप से कुछ योजनाओं का संचालन करती है। मध्यप्रदेश, भारत के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में गिना जाता है एवं मध्यप्रदेश में विविध, समृद्ध एवं गौरवशाली जनजातीय विरासत है जिसका कि मध्यप्रदेश में न केवल संरक्षण एवं संवर्धन किया जा रहा है, अपितु जनजातीय क्षेत्रों के समग्र विकास तथा जनजातीय वर्ग के कल्याण के लिए निरंतर कई प्रकार के कार्य भी किए जा रहे हैं। मध्यप्रदेश में भारत की कुल जनजातीय जनसंख्या की 14.64% जनसंख्या निवास करती है। भारत में 10 करोड़ 45 लाख जनजाति जनसंख्या है, वहीं मध्यप्रदेश में 01 करोड़  53 लाख जनजाति जनसंख्या है। भारत की कुल जनसंख्या में जनजातीय जनसंख्या का प्रतिशत 8.63 है और मध्यप्रदेश में कुल जनसंख्या में जनजाति जनसंख्या का प्रतिशत 21.09 है। मध्यप्रदेश में जनजाति उपयोजना क्षेत्रफल, कुल क्षेत्रफल का 30.19% है। प्रदेश में 26 वृहद, 5 मध्यम एवं 6 लघु जनजाति विकास परियोजनाएं संचालित हैं तथा 30 माडा पॉकेट हैं। मध्यप्रदेश में कुल 52 जिलों में 21 आदिवासी जिले हैं, जिनमें 6 पूर्ण रूप से जनजाति बहुल जिले तथा 15 आंशिक जनजाति बहुल जिले हैं। मध्यप्रदेश में 89 जनजाति विकास खंड हैं। मध्यप्रदेश के 15 जिलों में विशेष पिछड़ी जनजाति बैगा, भारिया एवं सहरिया के 11 विशेष पिछड़ी जाति समूह अभिकरण संचालित हैं। मध्यप्रदेश सरकार जनजातियों के सामाजिक-आर्थिक और शैक्षणिक विकास के साथ ही उनके स्वास्थ्य एवं जनजाति बहुल क्षेत्रों के विकास के लिए विभिन्न कल्याणकारी योजनाएं संचालित कर रही हैं। (1) मध्यप्रदेश के विशेष पिछड़ी जनजाति बहुल 15 जिलों में आहार अनुदान योजना संचालित की जा रही है, जिसके अंतर्गत विशेष पिछड़ी जनजाति बैगा, भारिया और सहरिया परिवारों की महिला मुखिया के बैंक खाते में प्रतिमाह रू. 1000 की राशि जमा की जाती रही है। (2) आकांक्षा योजना के अंतर्गत अनुसूचित जनजाति वर्ग के 11वीं एवं 12वीं कक्षा के प्रतिभावान विद्यार्थियों को राष्ट्रीय प्रतियोगी परीक्षाओं जैसे जईई, नीट, क्लेट की तैयारी के लिए नि:शुल्क कोचिंग एवं छात्रावास की सुविधा प्रदान की जाती है। (3) प्रतिभा योजना के अंतर्गत जनजाति वर्ग के विद्यार्थियों को उच्च शासकीय शैक्षिक संस्थाओं में प्रवेश के लिए प्रोत्साहन दिया जाता है। (4) आईआईटी, एम्स, क्लेट तथा एनडीए की परीक्षा उत्तीर्ण कर उच्च शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश पर रू. 50 हजार रूपये की राशि तथा अन्य परीक्षाओं जेईई, नीट, एनआईआईटी, एफडीडीआई, एनआईएफटी, आईएचएम के माध्यम से प्रवेश लेने पर रू. 25 हजार रूपये की राशि प्रदान की जाती रही है। (5) महाविद्यालय में अध्ययन करने वाले अनुसूचित जनजाति के जो विद्यार्थी गृह नगर से बाहर अन्य शहरों में अध्ययन कर रहे हैं, उन्हें वहां आवास के लिए संभाग स्तर पर 2000 रूपये, जिला स्तर पर 1250 रूपये तथा विकास खंड एवं तहसील स्तर पर 1000 रूपये प्रतिमाह की वित्तीय सहायता, आवास सहायता योजना के अंतर्गत प्रदान की जाती रही है। (6) इसी प्रकार की सहायता अनुसूचित जनजाति के विद्यार्थियों को विदेश स्थित उच्च शैक्षणिक संस्थानों में अध्ययन के लिए भी प्रदान की जाती है।(7) अनुसूचित जनजाति के विद्यार्थियों के शैक्षणिक विकास के लिए प्रदेश के 89 जनजाति विकास खंडों में प्राथमिक शालाओं से लेकर उच्चतर माध्यमिक स्तर की शालाएं संचालित की जा रही हैं जिनमें विद्यार्थियों को प्री-मेट्रिक तथा पोस्ट मेट्रिक छात्रवृत्ति दी जा रही है। (8) मध्यप्रदेश के अनुसूचित जनजाति के ऐसे विद्यार्थियों, जो सिविल सेवा परीक्षा में निजी संस्थाओं द्वारा कोचिंग प्राप्त कर रहे हैं, को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाती है। साथ ही अनसूचित जनजाति के प्रदेश के ऐसे विद्यार्थी, जो सिविल सेवा परीक्षा की प्राथमिक परीक्षा उत्तीर्ण करते हैं, उन्हें 40 हजार रूपये, जो मुख्य परीक्षा उत्तीर्ण करते हैं उन्हें 60 हजार रूपये तथा साक्षात्कार सफल होने पर 50 हजार रुपए की राशि दी जाती रही है। (9) मध्यप्रदेश में जनजातीय लोक कलाकृतियों एवं उत्पादों को लोकप्रिय करने तथा उनसे जनजाति वर्ग को लाभ दिलाए जाने के उद्देश्य से उनकी जी आई टैगिंग कराई जा रही है। प्रथम चरण में 10 जनजाति लोक कलाकृतियों एवं उत्पादों  की जीआई ट्रैगिंग कराए जाने की प्रक्रिया प्रारंभ की गई है।  इस प्रकार, केंद्र सरकार एवं विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा जनजाति समाज के लाभार्थ अन्य कई प्रकार की विशेष योजनाएं सफलता पूर्वक चलाई जा रही हैं ताकि जनजाति समाज की कठिन जीवन शैली को कुछ आसान बनाया जा सके एवं जनजाति समाज को देश की मुख्य धारा में शामिल किया जा सके।  प्रहलाद सबनानी 

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आर्थिकी राजनीति

भारत की आर्थिक प्रगति में समाज से अपेक्षा

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विश्व के लगभग समस्त देशों में पूंजीवादी मॉडल को अपनाकर आर्थिक विकास को गति देने का प्रयास पिछले 100 वर्षों से भी अधिक समय से हो रहा है। पूंजीवाद की यह विशेषता है कि व्यक्ति केवल अपनी प्रगति के बारे में ही विचार करता है और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी के एहसास को भूल जाता है। जिससे, विभिन्न आर्थिक गतिविधियों के चलते समाज में असमानता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। विनिर्माण इकाईयों में मशीनों के अधिक उपयोग से उत्पादन में तो वृद्धि होती है परंतु रोजगार के पर्याप्त अवसर निर्मित नहीं हो पाते हैं। रोजगार की उपलब्धता में कमी के चलते समाज में कई प्रकार की बुराईयां जन्म लेने लगती  हैं क्योंकि यदि किसी नागरिक के पास रोजगार ही नहीं होगा तो वह अपनी भूख मिटाने के लिए चोरी चकारी एवं  हिंसा जैसी गतिविधियों में लिप्त होने लगता है। पूंजीवाद की नीतियों के अनुपालन के चलते वर्तमान में विश्व के कई देशों में सामाजिक तानाबाना छिन्न भिन्न हो रहा है। परंतु, प्राचीनकाल में भारत में उपयोग में लाए जा रहे आर्थिक मॉडल को अपनाए जाने के कारण भारत में प्रत्येक नागरिक को रोजगार उपलब्ध रहता था। भारत में अतिप्राचीन काल से ग्रामीण क्षेत्र ही विकास के केंद्र रहते आए हैं। भारत का कृषि क्षेत्र तो विकसित था ही, साथ में, कुटीर उद्योग भी अपने चरम पर था। पीढ़ी दर पीढ़ी व्यवसाय को आगे बढ़ाया जाता था। नौकरी शब्द तो शायद उपयोग में था ही नहीं क्योंकि परिवार के सदस्य ही अपने पुरखों के व्यवसाय को आगे बढ़ाने में रुचि लेते थे अतः भारत के प्राचीन काल में नागरिक उद्यमी थे। नौकरी को तो निकृष्ट कार्य की श्रेणी में रखा जाता था। भारत में भी आर्थिक विकास की दर में तेजी तो दृष्टिगोचर है तथा प्रति व्यक्ति आय में भी वृद्धि हो रही है और आज यह लगभग 2500 अमेरिकी डॉलर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष हो गई है। प्रति व्यक्ति आय यदि 14000 अमेरिकी डॉलर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष हो जाती है तो भारत विकसित राष्ट्र की श्रेणी में शामिल हो जाएगा। अतः प्रति व्यक्ति आय को बढ़ाने के लिए भारत में गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे नागरिकों की आय में वृद्धि करने पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। भारत में आर्थिक विकास के साथ साथ मध्यमवर्गीय परिवारों की संख्या भी बढ़ रही है। परंतु, साथ में आय की असमानता की खाई भी चौड़ी हो रही है, क्योंकि उच्चवर्गीय एवं उच्च मध्यमवर्गीय परिवारों की आय तुलनात्मक रूप से तेज गति से बढ़ रही है। हालांकि केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों द्वारा गरीब वर्ग, विशेष रूप से गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे नागरिकों, के लिए कई विशेष योजनाएं चलाई जा रही हैं और इसका असर भी धरातल पर दिखाई दे रहा है। हाल ही के वर्षों में गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे नागरिकों की संख्या में भारी कमी दिखाई दी है। भारत में आर्थिक प्रगति के चलते सम्पत्ति के निर्माण की गति भी तेज हुई है। वित्तीय वर्ष 2023 के अंत में आयकर विभाग में जमा की गई विवरणियों के अनुसार, 230,000 नागरिकों ने अपनी कर योग्य आय को एक  करोड़ रुपए से अधिक की बताया है। यह संख्या पिछले 10 वर्षों के दौरान 5 गुणा बढ़ी है। वित्तीय वर्ष 2012-13 में 44,078 नागरिकों ने अपनी कर योग्य आय को एक करोड़ रुपए से अधिक की घोषित किया था। उक्त आंकड़ों में वेतन पाने वाले नागरिकों का प्रतिशत वित्तीय वर्ष 2022-23 में 52 प्रतिशत रहा है, वित्तीय वर्ष 2021-22 में यह 49.2 प्रतिशत था तथा वित्तीय वर्ष 2012-13 में यह प्रतिशत 51 प्रतिशत था। इस प्रकार एक करोड़ रुपए से अधिक का वेतन पाने वाले नागरिकों की संख्या में कोई परिवर्तन नहीं आया है। जबकि व्यवसाय करने वाले नागरिकों की आय और अधिक तेज गति से बढ़ी है। 500 करोड़ रुपए से अधिक की कर योग्य आय घोषित करने वाले नागरिकों में समस्त करदाता व्यवसायी हैं। 100 करोड़ रुपए से 500 करोड़ रुपए की कर योग्य आय घोषित करने वाले नागरिकों में 262 व्यवसायी हैं एवं केवल 19 वेतन पाने वाले नागरिक हैं। भारत के एक प्रतिशत नागरिकों के पास देश की 40 प्रतिशत से अधिक की सम्पत्ति है। अतः देश में आय की असमानता स्पष्टतः दिखाई दे रही है।    एक अनुमान के अनुसार यदि उच्चवर्गीय एवं उच्च मध्यमवर्गीय परिवार की आय में 100 रुपए की वृद्धि होती है तो वह केवल 10 रुपए का खर्च करता है एवं 90 रुपए की बचत करता है जबकि एक गरीब परिवार की आय में यदि 100 रुपए की वृद्धि होती है तो वह 90 रुपए का खर्च करता है एवं केवल 10 रुपए की बचत करता है। इस प्रकार किसी भी देश को यदि उपभोक्ताओं की संख्या में वृद्धि करना है तो गरीब वर्ग के हाथों में अधिक धनराशि उपलब्ध करानी होगी। जबकि विकसित देशों एवं अन्य देशों में इसके ठीक विपरीत हो रहा है, उच्चवर्गीय एवं उच्च मध्यमवर्गीय परिवारों की आय में तेज गति से वृद्धि हो रही है जिसके चलते कई विकसित देशों में आज उत्पादों की मांग बढ़ने के स्थान पर कम हो रही है और इन देशों के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि की दर बहुत कम हो गई है तथा इन देशों की अर्थव्यवस्था में आज मंदी का खतरा मंडरा रहा है। उक्त परिस्थितियों के बीच वैश्विक पटल पर भारत आज एक दैदीप्यमान सितारे के रूप में चमक रहा है। भारत में आर्थिक विकास दर 8 प्रतिशत के आसपास आ गई है और इसे यदि 10 प्रतिशत के ऊपर ले जाना है तो भारत में ही उत्पादों की आंतरिक मांग उत्पन्न करनी होगी इसके लिए गरीब वर्ग की आय में वृद्धि करने सम्बंधी उपाय करने होंगे तथा रोजगार के अधिक से अधिक अवसर निर्मित करने होंगे। प्राचीनकाल में भारत में उपयोग किए जा रहे आर्थिक दर्शन को एक बार पुनः देश में लागू किए जाने की आवश्यकता है। आज भारत में शहरों को केंद्र में रखकर विकास की विभिन्न योजनाएं (स्मार्ट सिटी, आदि) बनाई जा रही है, जबकि, आज भी 60 प्रतिशत से अधिक आबादी ग्रामीण इलाकों में ही निवास करती है। इसलिए भारत को पुनः ग्रामों की ओर रूख करना होगा। न केवल कृषि क्षेत्र बल्कि ग्रामीण इलाकों में कुटीर एवं लघु उद्योगों की स्थापना की जानी चाहिए जिससे रोजगार के पर्याप्त अवसर ग्रामीण इलाकों में ही निर्मित हों और इन स्थानों पर उत्पादित की जा रही वस्तुओं के लिए बाजार भी ग्रामीण इलाकों में ही विकसित हो सकें। लगभग 50 गावों के क्लस्टर विकसित किए जा सकते हैं, इन इलाकों में निर्मित उत्पादों को इस क्लस्टर में ही बेचा जा सकता है और यदि इन इलाकों के स्थित कुटीर एवं लघु उद्योगों में उत्पादन बढ़ता है तो उसे आस पास के अन्य क्लस्टर एवं शहरों में बेचा जा सकता है। इससे स्थानीय स्तर पर ही उत्पादों की मांग को बढ़ावा मिलेगा एवं रोजगार के अवसर निर्मित होने से ग्रामीण इलाकों में निवास कर रहे परिवारों के शहरों की ओर पलायन को भी रोका जा सकेगा। अंततः इससे शहरों के बुनियादी ढांचे पर लगातार बढ़ रहे दबाव को भी कम किया जा सकेगा।  भारत में हिंदू सनातन संस्कृति की यह विशेषता रही है कि समाज में निवास कर रहे गरीब वर्ग के नागरिकों की सहायता के लिए सक्षम समाज हमेशा से ही आगे रहता आया है। यह सेवा कार्य विभिन्न मंदिरों, मट्ठ, सामाजिक संस्थाओं, सांस्कृतिक संस्थाओं एवं न्यासों द्वारा सफलता पूर्वक किया जाता रहा हैं। एक अनुमान के अनुसार, भारत में प्रतिदिन लगभग 10 करोड़ नागरिकों के लिए अन्न क्षेत्रों में भोजन प्रसादी उपलब्ध कराई जाती है। इसी प्रकार कई सामाजिक, सांस्कृतिक एवं न्यासों द्वारा अस्पताल चलाए जाते हैं, जहां मुफ्त  अथवा बहुत ही कम कीमत पर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं। कुछ संस्थानों द्वारा स्कूल भी चलाए जाते हैं जहां गरीब वर्ग के बच्चों को शिक्षण सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती है। इस प्रकार समाज के गरीब वर्ग को यदि भोजन, स्वास्थ्य एवं शिक्षा सुविधाएं मुफ्त अथवा कम कीमत पर उपलब्ध हो सकती हैं तो उनके द्वारा अर्जित की जा रही आय को अन्य उत्पादों को खरीदने में उपयोग किया जा सकता है जिससे अंततः विभिन्न उत्पादों की मांग में वृद्धि दर्ज होती है। यह मॉडल भी केवल भारत में ही दिखाई देता है। वरना, अन्य विकसित देशों में तो कुछ भी मुफ्त नहीं है। विकसित देशों में नागरिकों को केवल अपनी प्रगति की चिंता है, समाज में गरीब वर्ग के अन्य नागरिकों के लिए कोई चिंता का भाव दिखाई ही नहीं देता है। अतः भारत में समाज के नागरिकों द्वारा गरीब वर्ग के सहायतार्थ चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं को गति देने के प्रयास करने चाहिए, जिससे देश के विकास को और अधिक गति मिल सके।          प्रहलाद सबनानी

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आर्थिकी राजनीति

स्वर्णऋण के प्रति बढ़ता भारतीयों का रुझान

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किसी भी देश के आर्थिक विकास को गति देने हेतु पूंजी की आवश्यकता रहती है। तेज आर्थिक विकास के चलते यदि किसी देश में वित्तीय बचत की दर कम हो तो उसकी पूर्ति ऋण में बढ़ौतरी से की जा सकती है। भारत में ऋण : सकल घरेलू अनुपात अन्य विकसित एवं कुछ विकासशील देशों की तुलना में अभी बहुत कम है। परंतु, हाल ही के समय में भारत का सामान्य नागरिक ऋण के महत्व को समझने लगा है एवं भौतिक संपति के निर्माण में अपनी बचत के साथ साथ ऋण का भी अधिक उपयोग करने लगा है। कुछ बैंक सामान्यजन को ऋण प्रदान करने हेतु प्रतिभूति की मांग करते है। भारत में सामान्यजन के पास स्वर्ण के रूप प्रतिभूति उपलब्ध रहती है अतः स्वर्ण ऋण बहुत अधिक चलन में आ रहा है। विशेष रूप से गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों द्वारा ऋण की प्रतिभूति के विरुद्ध स्वर्ण ऋण आसानी से उपलब्ध कराया जा रहा है। भारत में तेजी से बढ़ रहे स्वर्ण ऋण के कारणों एवं कारकों का वर्णन इस लेख में किया गया है।       भारत में वित्तीय वर्ष 2022-23 की प्रथम तिमाही में विभिन्न गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों द्वारा 39,687 करोड़ रुपए के स्वर्ण ऋण स्वीकृत किए गए थे, स्वीकृत की जाने वाली यह राशि वित्तीय वर्ष 2023-24 की प्रथम तिमाही में बढ़कर 62,835 करोड़ रुपए हो गई एवं वित्तीय वर्ष 2024-25 की प्रथम तिमाही में और आगे बढ़कर 79,218 करोड़ रुपए हो गई। गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों द्वारा वित्तीय वर्ष 2024-25 की प्रथम तिमाही में स्वर्ण ऋण के मामले में 26 प्रतिशत की आकर्षक वृद्धि दर हासिल की है जबकि अन्य प्रकार के ऋणों में इसी अवधि के दौरान औसत वृद्धि दर 12 प्रतिशत की रही है। भारतीय नागरिक स्वर्ण ऋण के प्रति बहुत अधिक आकर्षित हो रहे हैं। आज भारत के विभिन्न गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों एवं विभिन्न बैंकों द्वारा भारी मात्रा में स्वर्ण ऋण स्वीकृत किए जा रहे हैं। अगस्त 2024 माह में बैंकों एवं गैर बैकिंग वित्तीय कम्पनियों ने मिलकर 41 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल करते हुए 1.4 लाख करोड़ रुपए के स्वर्ण ऋण स्वीकृत किए हैं। आज गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों के कुल ऋण में स्वर्ण ऋण का प्रतिशत में हिस्सा सबसे अधिक है, दूसरे स्थान पर स्कूटर एवं चार पहिया वाहनों के लिए प्रदान किए गए ऋणों का ऋण हैं, इसके बाद तीसरे स्थान पर व्यक्तिगत ऋण 14 प्रतिशत के भाग के साथ है एवं इसके बाद जाकर गृह ऋण का नम्बर आता है जो कुल ऋण का 10 प्रतिशत भाग है। बैकों एवं गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों द्वारा प्रदान किए जाने वाले स्वर्ण ऋण पर पूंजी पर्याप्तता सम्बंधी शिथिल नियमों का पालन करना होता है। अन्य प्रकार के ऋणों की तुलना में स्वर्ण ऋण पर जोखिम का भार (रिस्क वेट) तुलनात्मक रूप से कम रहता है। इससे बैंक एवं गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियां भी स्वर्ण ऋण प्रदान करने की ओर आकर्षित होते हैं।   यहां स्वाभाविक रूप से प्रशन्न उभरता है कि पिछले लगभग 3 वर्षों के दौरान भारत के नागरिकों में स्वर्ण ऋण के प्रति इतना रुझान क्यों बढ़ा है? भारतीय रिजर्व बैंक के पास स्वर्ण के भंडार बढ़कर 822 मेट्रिक टन से भी अधिक हो गए हैं परंतु विश्व स्वर्ण काउन्सिल के एक अनुमान के अनुसार, भारतीय नागरिकों के पास स्वर्ण के भंडार बढ़कर 25000 टन से भी अधिक के हो गए हैं, जिनकी बाजार कीमत वर्ष 2020 में 109 लाख करोड़ रुपए की थी। भारत में नागरिकों के पास स्वर्ण भंडार विश्व के कुल स्वर्ण भंडार का 11 प्रतिशत है। भारत में प्रतिवर्ष 750 से 800 टन स्वर्ण का आयात होता है और पिछले 25 वर्षों के दौरान भारत में 17,500 टन स्वर्ण का आयात हुआ है और मार्च 2019 से मार्च 2024 के दौरान भारत में स्वर्ण भंडार 40 प्रतिशत से बढ़ गए हैं। दरअसल, भारत में दीपावली (धन तेरस) के शुभ अवसर पर स्वर्ण की खरीद को शुभ माना जाता है एवं मध्यमवर्गीय परिवार भी धन तेरस के दिन स्वर्ण की खरीद प्रति वर्ष करते हैं। इससे भारत के करोड़ों परिवारों के पास स्वर्ण का स्टॉक उपलब्ध रहता है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारतीय रिजर्व बैंक ने बैंकों द्वारा स्वर्ण ऋण प्रदान करने के सम्बंध में नियमों को बहुत सरल बनाया है एवं अब भारतीय नागरिकों को स्वर्ण के स्टॉक के विरुद्ध ऋण बहुत ही आसान शर्तों पर उपलब्ध होने लगा है। भारत में प्रचिलित परम्पराओं के अनुसार मध्यमवर्गीय परिवारों द्वारा स्वर्ण को बेचना शुभ नहीं माना जाता है जबकि स्वर्ण की खरीद को शुभ माना जाता है। अतः स्वर्ण को बाजार में बेचने के स्थान पर स्वर्ण को बैंक में गिरवी रखकर उसके विरुद्ध बैंक से आसानी से स्वर्ण ऋण प्राप्त करना ज्यादा उचित माना जाता है। और फिर, हाल ही के वर्षों में भारतीय शेयर बाजार बहुत ही तेज गति से आगे बढ़ रहा है और विभिन्न कम्पनियों के शेयरों में किए गए निवेश पर 12 प्रतिशत से 20 प्रतिशत तक की आय प्रतिवर्ष होने लगी है। इससे बहुत बड़ी मात्रा में भारतीय नागरिक (खुदरा निवेशक) शेयर बाजार में निवेश करने हेतु आकर्षित हुए हैं। चूंकि स्वर्ण ऋण बहुत ही आसानी से उपलब्ध होने लगे हैं अतः मध्यमवर्गीय परिवार स्वर्ण ऋण लेकर पूंजी बाजार में निवेश अथवा चार पहिया वाहन खरीदने एवं गृहों का निर्माण करने लगे हैं। स्वर्ण ऋण की राशि आसान किश्तों में जमा करानी होती है, अतः स्वर्ण लेने वाले नागरिकों पर कोई बहुत अधिक दबाव भी नहीं पड़ता है। उक्त कारणों के चलते भारत में हाल ही वर्षों में स्वर्ण ऋण प्राप्त करने वाले नागरिकों में अतुलनीय वृद्धि दर्ज हुई है।  चूंकि बैंकों एवं गैर गैंकिंग वित्तीय कम्पनियों द्वारा प्रदान किया जा रहे स्वर्ण ऋण में वृद्धि दर अतुलनीय रही है अतः भारतीय रिजर्व बैंक ने स्वर्ण ऋण स्वीकृति करने सम्बंधी नियमों के कठोर अनुपालन के लिए गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों को हाल ही में चेताया है ताकि इन बैंकों द्वारा स्वर्ण ऋण स्वीकृत करने में किसी भी प्रकार की ढील नहीं दी जा सके तथा स्वर्ण ऋण के खाते गैर निष्पादनकारी आस्तियों (एनपीए) में परिवर्तित नहीं हों। यदि बैंकों एवं गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों द्वारा भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा स्वर्ण ऋण सम्बंधी नियमों का अनुपालन अक्षरश: किया जाता है तो स्वर्ण ऋण खाते का गैर निष्पादनकारी आस्ति में परिवर्तितत होना सम्भव नहीं है। हां, यदि असली स्वर्ण के स्थान पर नकली स्वर्ण के विरुद्ध ऋण स्वीकृत किया जाता है तो स्वर्ण ऋण खाते की गैर निष्पादनकारी आस्ति में परिवर्तित होने की सम्भावना बन जाती है। इसलिए स्वर्ण ऋण प्रदान करते समय बैंकों को ऋण असली है इसकी पक्की जानकारी होना आवश्यक है। इसके लिए स्वर्ण की जांच पुख्ता तरीके  से की जानी चाहिए।                प्रहलाद सबनानी

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आर्थिकी राजनीति

विश्व के वित्तीय एवं निवेश संस्थान भारत के आर्थिक विकास के अनुमानों को बढ़ा रहे हैं

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आज जब विश्व में कई विकसित एवं विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं में विभिन्न प्रकार की आर्थिक  समस्याएं दिखाई दे रही है, वैश्विक स्तर पर कई प्रकार की विपरीत परिस्थितियों के बीच भी भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व में सबसे तेज गति से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था बनी हुई है। कई विदेशी एवं निवेश संस्थान भारत के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि के सम्बंध में पूर्व में दिए गए अपने अनुमानों में संशोधन कर रहे हैं कि आगे आने वाले समय में भारतीय अर्थव्यवस्था में विकास की गति और अधिक तेज होगी।  विशेष रूप से कोरोना महामारी के पश्चात भारत ने आर्थिक विकास के क्षेत्र में तेज रफ्तार पकड़ ली है। भारत में आर्थिक क्षेत्र में सुधार कार्यक्रमों को लागू किया गया है। स्टैंडर्ड एवं पूअर (एसएंडपी) नामक विश्व विख्यात क्रेडिट रेटिंग संस्थान ने हाल ही में अपने एक प्रतिवेदन में बताया है कि भारत, केलेंडर वर्ष 2024 में एवं इसके बाद के वर्षों में 6.7 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर के साथ वर्ष 2031 तक विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा तथा भारतीय अर्थव्यवस्था का वैश्विक अर्थव्यवस्था में योगदान वर्तमान के 3.6 प्रतिशत से बढ़कर 4.5 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच जाएगा। साथ ही, भारत में प्रति व्यक्ति आय भी बढ़कर उच्च मध्यम आय समूह की श्रेणी की हो जाएगी। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का आकार भी वर्तमान के 3.92 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 7 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो जाएगा। हालांकि एसएंडपी ने भारत में आर्थिक विकास दर के 6.7 प्रतिशत प्रतिवर्ष बढ़ने का अनुमान लगाया है जबकि वित्तीय वर्ष 2023-24 में भारत की आर्थिक विकास दर के 7.3 प्रतिशत के अनुमान के विरुद्द 8.2 प्रतिशत की रही है। भारत में अब सरकारी क्षेत्र के साथ ही निजी क्षेत्र भी पूंजीगत खर्चों को बढ़ाने पर ध्यान देता हुआ दिखाई दे रहा है, इससे आगे आने वाले समय में केंद्र सरकार पर पूंजीगत खर्चों में वृद्धि करने सम्बंधी दबाव कम होगा और केंद्र सरकार का बजटीय घाटा और अधिक तेजी से कम होगा, जिससे अंततः विदेशी निवेशक भारत में अपना निवेश बढ़ाने के लिए आकर्षित होंगे।   इसी प्रकार, विश्व बैंक एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी वर्ष 2024, 2025 एवं 2026 में भारत के आर्थिक विकास सम्बंधी अपने अनुमानों के बढ़ाया है। विश्व बैंक का तो यह भी कहना है कि भारत ने केलेंडर वर्ष 2023 में विश्व के वार्धिक आर्थिक विकास में 16 प्रतिशत का योगदान दिया है और इस प्रकार भारत अब विश्व में आर्थिक विकास के इंजिन के रूप में कार्य करता हुआ दिखाई दे रहा है। भारत ने वर्ष 2023 में 7.2 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर हासिल की थी, जो विश्व की अन्य उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं द्वारा इसी अवधि में हासिल की गई विकास दर से दुगुनी थी। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत की आर्थिक विकास दर के वर्ष 2024 के अपने पूर्व अनुमान 6.7 प्रतिशत की विकास दर को बढ़ा कर 7 प्रतिशत कर दिया है।  ओईसीडी देशों के समूह ने भी वर्ष 2024 एवं 2025 में वैश्विक स्तर पर आर्थिक प्रगति के अनुमान जारी किए हैं। इन अनुमानों के अनुसार, वैश्विक स्तर पर वर्ष 2024 एवं 2025 में सकल घरेलू उत्पाद में 3.2 प्रतिशत की वृद्धि हासिल की जा सकेगी। वहीं भारत की आर्थिक विकास दर वर्ष 2024 के 6.7 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2025 में 6.8 प्रतिशत रहने की सम्भावना व्यक्त की गई है। चीन की आर्थिक विकास दर वर्ष 2024 में 4.9 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2025 में 4.5 रहने की सम्भावना है। इसी प्रकार रूस एवं अमेरिका की आर्थिक विकास दर भी वर्ष 2024 में क्रमशः 3.7 प्रतिशत एवं 2.6 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2025 में क्रमशः 1.1 प्रतिशत एवं 1.6 प्रतिशत रहने की सम्भावना व्यक्त की गई है। कुल मिलाकर आज विश्व के लगभग समस्त वित्तीय एवं निवेश संस्थान आगे आने वाले वर्षों में भारत की आर्थिक विकास दर के बढ़ने के अनुमान लगा रहे हैं।     वैश्विक स्तर पर वित्तीय संस्थानों द्वारा भारत के आर्थिक विकास दर के सम्बंध में लगाए जा रहे अनुमानों के अनुसार यदि भारत आगे आने वाले वर्षों में प्रतिवर्ष 6.7 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर हासिल करता है तो भारत वर्ष 2031 तक विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। इसके ठीक विपरीत भारत ने वित्तीय वर्ष 2023-24 में 8.2 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर हासिल की थी एवं भारतीय रिजर्व बैंक के अनुमान के अनुसार भारत वित्तीय वर्ष 2024-25 में 7 प्रतिशत से अधिक की आर्थिक विकास दर हासिल करेगा, इस प्रकार तो भारत वर्ष 2031 के पूर्व ही विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। दूसरे, विश्व में भारत से आगे जापान एवं जर्मनी की अर्थव्यवस्थाएं हैं, आज इन दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं में कई प्रकार की समस्याएं दिखाई दे रही हैं जिनके चलते इन देशों की आर्थिक विकास दर आगे आने वाले कुछ वर्षों में शून्य रहने की सम्भावना दिखाई दे रही है। इस प्रकार, बहुत सम्भव है कि भारत मार्च 2025 तक जापान की अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ देगा एवं मार्च 2026 अथवा मार्च 2027 तक जर्मनी की अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ देगा और भारत को विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए वर्ष 2031 तक इंतजार ही नहीं करना पड़ेगा।  विश्व बैंक द्वारा जारी वैश्विक आर्थिक सम्भावना रिपोर्ट 2024 ने भी वित्तीय वर्ष 2025 में भारत को विश्व में सबसे तेज गति से आगे बढ़ने वाली प्रमुख अर्थव्यवस्था बने रहने के संकेत दिए हैं। पिछले तीन वर्षों में पहली बार वैश्विक अर्थव्यवस्था वर्ष 2024 में स्थिर होने के संकेत दे रही है। वैश्विक स्तर पर सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर के वर्ष 2024-25 में 2.6 प्रतिशत एवं वर्ष 2025-26 में 2.7 प्रतिशत रहने की सम्भावना विश्व बैंक द्वारा की गई है। इसी प्रकार, मुद्रा स्फीति में भी धीरे धीरे कमी आने के संकेत मिल रहे हैं एवं यह वैश्विक स्तर पर औसतन 3.5 प्रतिशत रहने की सम्भावना है। मुद्रास्फीति उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति को कम करती है एवं उनके व्यय करने की क्षमता को भी हत्तोत्साहित करती है। कई देशों को मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के लिए ब्याज दरों को बढ़ाना पड़ता है। उच्च ब्याज दरें मुद्रास्फीति को नियंत्रित तो करती हैं परंतु आर्थिक प्रगति को धीमा भी कर देती है जिससे रोजगार के अवसरों में कमी भी दृष्टिगोचर होती है।  उक्त वर्णित वैश्विक आर्थिक सम्भावना रिपोर्ट 2024 के अनुसार दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भारत ने क्षेत्रीय विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्रों के योगदान से वित्तीय वर्ष 2023-24 में भारत ने 8.2 प्रतिशत की अतुलनीय आर्थिक विकास दर हासिल की है, यह आर्थिक विकास दर देश में मानसून व्यवधानों के कारण कृषि क्षेत्र के उत्पादन वृद्धि में आई कमी के बावजूद हासिल की गई है।  साथ ही, भारत में व्यापक कर आधार से राजस्व में वृद्धि के चलते सकल घरेलू उत्पाद के सापेक्ष राजकोषीय घाटे में कमी हासिल की जा सकी है। विशेष रूप से भारत में व्यापार घाटा भी कम होता दिखाई दे रहा है, जिससे दक्षिण एशियाई क्षेत्र में समग्र आर्थिक स्थिरता लाने में योगदान मिला है।       जलवायु परिवर्तन के कारण भी विश्व के कई देशों में बाढ़, सूखा एवं तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाओं की बारंबारता और प्रबलता बढ़ती दिखाई दे रही है। इस तरह की आपदाएं बुनियादी ढांचे, निवास स्थानों एवं व्यवसाओं को व्यापक क्षति पहुंचा रही हैं। साथ ही, यह कृषि उत्पादन को भी बाधित कर रही है, जिससे खाद्यान के उत्पादन में कमी एवं इनकी कीमतों में वृद्धि होती दिखाई दे रही है। इससे सरकारी वित्त व्यवस्था पर भी अतिरिक्त भार पड़ रहा है।  विश्व बैंक की आर्थिक सम्भावना रिपोर्ट 2024 ने वैश्विक अर्थव्यवस्था के बारे में तार्किक आशावादी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। वर्ष 2024 में वैश्विक अर्थव्यवस्था में स्थिरता के संकेत जरूर दिए हैं परंतु कोविड महामारी से पहले के विकास के स्तरों की तुलना में वैश्विक स्तर पर विकास अभी भी धीमा बना हुआ है। वैश्विक स्तर पर मौजूदा चुनौतियों से निपटने के लिए सभी देशों को मिलकर प्रभावी उपाय करने होंगे। यहां भारत की “वसुधैव क़ुटुम्बकम” एवं “सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय” जैसी भावनाओं के साथ, वैश्विक स्तर पर आर्थिक विकास के लिए, यदि सभी देश मिलकर आगे बढ़ते हैं तो भारत के साथ साथ पूरे विश्व में भी खुशहाली लाई जा सकती है।       प्रहलाद सबनानी

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आर्थिकी राजनीति

शक्तिशाली देशों की सूची में भारत पहुंचा तीसरे स्थान पर

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आस्ट्रेलिया के एक संस्थान, लोवी इन्स्टिटयूट थिंक टैंक, ने हाल ही में एशिया में शक्तिशाली देशों की एक सूची जारी की है। “एशिया पावर इंडेक्स 2024” नामक इस सूची में भारत को एशिया में तीसरा सबसे बड़ा शक्तिशाली देश बताया गया है। वर्ष 2024 के इस इंडेक्स में भारत ने जापान को पीछे छोड़ा है। इस इंडेक्स में अब केवल अमेरिका एवं चीन ही भारत से आगे है। रूस तो पहिले से ही इस इंडेक्स में भारत से पीछे हो चुका है। इस प्रकार अब भारत की शक्ति का आभास वैश्विक स्तर पर भी महसूस किया जाने लगा है। एशिया पावर इंडेक्स 2024 के प्रतिवेदन में बताया गया है कि वर्ष 2023 के इंडेक्स में भारत को 36.3 अंक प्राप्त हुए थे जो वर्ष 2024 के इंडेक्स में 2.8 अंक से बढ़कर 39.1 अंकों पर पहुंच गए हैं एवं भारत इस इंडेक्स में चौथे स्थान से तीसरे स्थान पर आ गया है।  एशिया पावर इंडेक्स 2024 को विकसित करने के लिए कुल 27 देशों और क्षेत्रों से प्राप्त आंकड़ों का आंकलन एवं सूक्षम विश्लेषण किया गया है। एशिया में जो नए शक्ति समीकरण बन रहे हैं उनका ध्यान भी इस इंडेक्स में रखा गया है तथा विभिन्न मापदंडों पर आधारित पिछले 6 वर्षों के आकड़ों का विश्लेषण कर यह इंडेक्स बनाया गया है। आर्थिक क्षमता, सैन्य (मिलिटरी) क्षमता, अर्थव्यवस्था में लचीलापन, भविष्य में संसाधनों की उपलब्धता, कूटनीतिक, राजनयिक एवं आर्थिक सम्बंध एवं सांस्कृतिक प्रभाव जैसे मापदंडो पर उक्त 27 देशों एवं क्षेत्रों का आंकलन कर विभिन्न देशों को इस इंडेक्स में स्थान प्रदान किया गया है।   उक्त इंडेक्स में अमेरिका, 81.7 अंकों के साथ प्रथम स्थान पर है। चीन 72.7 अंकों के साथ द्वितीय स्थान पर है। भारत ने इस इंडेक्स में 39.1 अंक प्राप्त कर तृतीय स्थान प्राप्त किया है। जापान को 38.9 अंक, आस्ट्रेलिया को 31.9 अंक एवं रूस को 31.1 अंक प्राप्त हुए हैं एवं इन देशों का क्रमशः चतुर्थ, पांचवा एवं छठवां स्थान रहा है। इस इंडेक्स में प्रथम 5 स्थानों में से 4 स्थानों पर “क्वाड” के सदस्य देश हैं – अमेरिका, भारत, जापान एवं आस्ट्रेलिया। एशिया में अमेरिका की लगातार बढ़ती मजबूत ताकत के चलते उसे इस इंडेक्स में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है। जबकि, चीन की मजबूत मिलिटरी ताकत के चलते उसे इस इंडेक्स में द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ है। जापान के इस इंडेक्स में तीसरे से चौथे स्थान पर आने के कारणों में मुख्य कारण उसकी आर्थिक स्थिति में लगातार आ रही गिरावट है। भारत ने चौथे स्थान से तीसरे स्थान पर छलांग लगाई है। आर्थिक क्षमता एवं भविष्य में संसाधनो की उपलब्धता के क्षेत्र में भारत को तीसरा स्थान प्राप्त हुआ है। साथ ही, सैन्य क्षमता, कूटनीतिक, राजनयिक एवं आर्थिक सम्बंध के क्षेत्र एवं सांस्कृतिक प्रभाव के क्षेत्र में भारत को चौथा स्थान प्राप्त हुआ है। अब केवल अमेरिका और चीन ही भारत से आगे हैं एवं जापान, आस्ट्रेलिया एवं रूस भारत से पीछे हो गए हैं। जबकि, कुछवर्षपूर्वतकविश्वकीमहानशक्तियोंमेंभारतकाकहींभीस्थाननजरनहींआताथा।केवलअमेरिका, रूस, चीन, जापान, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रान्सआदिदेशोंकोहीविश्वमेंमहाशक्तिकेरूपमेंगिनाजाताथा।अबइससूचीमेंभारततीसरेस्थानपरपहुंचगयाहै।    उक्त इंडेक्स तैयार करते समय आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि अन्य शक्तिशाली देशों का भी आंकलन किया गया है। साथ ही, विश्व में तेजी से बदल रहे शक्ति के नए समीकरणों का भी व्यापक आंकलन किया गया है।  इस आंकलन के अनुसार अमेरिका अभी भी एशिया में सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बना हुआ है। चीन तेजी से आगे बढ़कर दूसरे स्थान पर आया है। तेजी से बढ़ती सेना एवं आर्थिक तरक्की चीन की मुख्य ताकत है। उक्त प्रतिवेदन में यह तथ्य भी बताया गया है कि उभरते हुए भारत से अपेक्षाओं एवं वास्तविकताओं में अंतर दिखाई दे रहा है। इस प्रतिवेदन के अनुसार, भारत के पास अपने पूर्वी देशों को प्रभावित करने की सीमित क्षमता है। परंतु, वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। भारत अपने पड़ौसी देशों नेपाल, भूटान, श्रीलंका, बंगलादेश, म्यांमार एवं अफगानिस्तान, आदि की विपरीत परिस्थितियों के बीच भारी मदद करता रहा है। आसियान के सदस्य देशों की भी भारत समय समय पर मदद करता रहा है, एवं इन देशों का भारत पर अपार विश्वास रहा है। कोरोना के खंडकाल में एवं श्रीलंका, म्यांमार तथा अफगानिस्तान में आए सामाजिक संघर्ष के बीच भारत ने इन देशों की मानवीय आधार पर भरपूर आर्थिक सहायता की थी एवं इन्हें अमेरिकी डॉलर में लाइन आफ क्रेडिट की सुविधा भी प्रदान की थी ताकि इनके विदेशी व्यापार को विपरीत रूप से प्रभावित होने से बचाया जा सके। उक्त प्रतिवेदन के अनुसार भारत के पास भारी मात्रा में संसाधन मौजूद हैं एवं जिसके बलबूते पर आगे आने वाले समय में भारत के आर्थिक विकास को और अधिक गति मिलने की अपार सम्भावनाएं मौजूद हैं। साथ ही, भारत अपने पड़ौसी देशों की आर्थिक स्थिति सुधारने की भी क्षमता रखता है। भारत ने हाल ही के वर्षों में उल्लेखनीय आर्थिक सुधार कार्यक्रम लागू किए हैं। जिसके चलते लगातार तेज हो रहे आर्थिक विकास के बीच सकल घरेलू उत्पाद की स्थिति और बेहतर हो रही है तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की मान्यता बढ़ रही है। साथ ही, बहुपक्षीय मंचों पर भी भारत की सक्रिय भागीदारी बढ़ती जा रही है।  भारत ने पिछले कुछ वर्षों में एशिया के कई देशों के साथ अपने सम्बंधों को मजबूत किया है। अब तो अफ्रीकी देशों का भी भारत पर विश्वास बढ़ता जा रहा है एवं भारत में ग्लोबल साउथ का नेतृत्व करने की अपार सम्भावनाएं मौजूद हैं। भारत में हाल ही में अपनी कूटनीतिक एवं राजनयिक क्षमता में भी भरपूर सुधार किया है एवं इसके बल पर वैश्विक स्तर पर न केवल विकसित देशों बल्कि विकासशील देशों को भी प्रभावित करने में सफल रहा है। यूक्रेन एवं रूस युद्ध के समय केवल भारत ही दोनों देशों के साथ चर्चा कर पाता है एवं युद्ध को समाप्त करने का आग्रह दोनों देशों को कर पाता है। इसी प्रकार, इजराईल एवं हमास युद्ध के समय भी भारत दोनों देशों के साथ युद्ध समाप्त करने की चर्चा करने में अपने आप को सहज एवं सक्षम पाता है। आपस में युद्ध करने वाले दोनों देश भारत की सलाह को गम्भीरता से सुनते नजर आते हैं। भारत ने कभी भी विभिन्न देशों के आंतरिक स्थितियों पर अपनी विपरीत राय व्यक्त नहीं की है और न ही कभी उनके आंतरिक मामलों में कभी हस्तक्षेप किया है। इस दृष्टि से वैश्विक पटल पर भारत की यह विशिष्ट पहचान एवं स्थिति है। दक्षिण एशिया के देशों में चीन अपना प्रभाव बढ़ाने का प्रयास कर रहा है इसलिए भारत का पूरा ध्यान इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव को कम कर अपने प्रभाव को बढ़ाना है। इसी मुख्य कारण से शायद भारत दक्षिण एशिया के देशों पर अधिक ध्यान देता दिखाई दे रहा है। जिसका आशय उक्त प्रतिवेदन में यह लिया गया है कि विश्व के अन्य देशों को सहायता करने की भारत की क्षमता तो अधिक है परंतु अभी उसका उपयोग भारत नहीं कर पा रहा है। हिंद महासागर पर भारत का ध्यान अधिक है और क्वाड के सदस्य देश मिलकर भारत की इस दृष्टि से सहायता भी कर रहे हैं। दक्षिण एशियाई देशों के अलावा विश्व के अन्य देशों की मदद करने के संदर्भ में भारत ने हालांकि अभी हाल ही के समय में बढ़त तो बनाई है परंतु अभी और अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है। भारत में आगे बढ़ने की अपार सम्भावनाएं मौजूद हैं।      उक्त प्रतिवेदन में भारत को एशिया को तीसरा सबसे बड़ा ताकतवर देश बताया गया है परंतु वस्तुतः भारत अब एशिया का ही नहीं बल्कि विश्व का तीसरा सबसे बड़ा ताकतवर देश बन गया है क्योंकि इस सूची में एशिया के बाहर से अमेरिका को भी एशिया में पहिले स्थान पर बताया गया है। एक अन्य अमेरिकी थिंक टैंक का आंकलन है कि भारत यदि इसी रफ्तार से आगे बढ़ता रहा तो इस शताब्दी के अंत तक भारत, चीन एवं अमेरिका को भी पीछे छोड़कर विश्व का सबसे अधिक शक्तिशाली देश बन जाएगा।  प्रहलाद सबनानी

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