Category: कविता

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प्रकाश धरा आ नज़र आता

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गोपाल बघेल ‘मधु’ प्रकाश धरा आ नज़र आता, अंधेरा छाया आसमान होता; रात्रि में चमकता शहर होता, धीर आकाश कुछ है कब कहता ! गहरा गहमा प्रचुर गगन होता, गुणों से परे गमन वह करता; निर्गुणी लगता पर द्रढी होता, कड़ी हर जोड़ता वही चलता ! दूरियाँ शून्य में हैं घट जातीं, विपद बाधाएँ व्यथा ना देतीं; घटाएँ राह से हैं छट जातीं, रहनुमा कितने वहाँ मिलवातीं ! भूमि गोदी में जब लिये चलती, तब भी टकराव कहाँ करवाती; ठहर ना पाती चले नित चलती, फिर भी आभास कहाँ करवाती ! संभाले सृष्टा सब ही करवाते, समझ फिर भी हैं हम कहाँ पाते; हज़म ‘मधु’ अहं को हैं जब करते, द्वार कितने हैं चक्र खुलवाते !

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समर्पण बढ़ रहा है प्रभु चरण में!

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समर्पण बढ़ रहा है प्रभु चरण में, प्रकट गुरु लख रहे हैं तरंगों में; सृष्टि समरस हुई है समागम में, निगम आगम के इस सरोवर में ! शान्त हो स्वत: सत्व बढ़ जाता, निमंत्रण प्रकृति से है मिल जाता; सुकृति हो जाती विकृति कम होती, हृदय की वीणा विपुल स्वर बजती ! ठगा रह जाता नृत्य लख लेता, स्वयम्बर अम्बरों का तक लेता; प्राण वायु में श्वाँस उसकी ले, परश मैं उसका पा सिहर लेता ! वे ही आए सजाए जग लगते, संभाले लट ललाट लय ललके; साथ चल दूर रह उरहिं उझके, कबहु आनन्द की छटा छिटके ! कराएँगे न जाने क्या मगों में, दिखा क्या क्या न देंगे वे पलों में; जहान जादूगरी है झाँकते बस, मिला कर नयन ‘मधु’ उनके नयन में ! रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’

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