कविता प्रकाश धरा आ नज़र आता June 12, 2018 / June 12, 2018 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment गोपाल बघेल ‘मधु’ प्रकाश धरा आ नज़र आता, अंधेरा छाया आसमान होता; रात्रि में चमकता शहर होता, धीर आकाश कुछ है कब कहता ! गहरा गहमा प्रचुर गगन होता, गुणों से परे गमन वह करता; निर्गुणी लगता पर द्रढी होता, कड़ी हर जोड़ता वही चलता ! दूरियाँ शून्य में हैं घट जातीं, विपद बाधाएँ व्यथा ना देतीं; घटाएँ राह से हैं छट जातीं, रहनुमा कितने वहाँ मिलवातीं ! भूमि गोदी में जब लिये चलती, तब भी टकराव कहाँ करवाती; ठहर ना पाती चले नित चलती, फिर भी आभास कहाँ करवाती ! संभाले सृष्टा सब ही करवाते, समझ फिर भी हैं हम कहाँ पाते; हज़म ‘मधु’ अहं को हैं जब करते, द्वार कितने हैं चक्र खुलवाते ! Read more » आ नज़र आता आकाश प्रकाश धरा भूमि गोदी
कविता सूरज और चाँद भी मजे लेने लगे है June 12, 2018 / June 12, 2018 by आर के रस्तोगी | Leave a Comment कलयुग में सब बदलने लगे है सूरज,चाँद भी बदलने लगे है ये भी अब मजे लेने लगे है अपनी आदत बदलने लगे है इंसान की तरह बदलने लगे है एक दूजे को धोखा देने लगे है “सूरज” की जरा असलियत तो देखो, सुबह सैर को निकलता है “किरन” के साथ दोपहर को रहता है “रौशनी” […] Read more » कलयुग चाँद सूरज सूरज और चाँद भी मजे लेने लगे है
कविता आज भी तरसते है हम उन सब लम्हों के लिये June 11, 2018 / June 11, 2018 by आर के रस्तोगी | Leave a Comment कुछ लम्हें आये जिन्दगी में,कुछ लम्हों के लिये आज भी तरसते है हम,उन सब लम्हों के लिये ख़ुदा ने हमसे कहा,कुछ तो मांग लो मुझ से मैंने कहा,बिताये लम्हें दे दो,कुछ लम्हों के लिये मेरे मुक्कदर में आये थे आप,कुछ लम्हो के लिये मैं सारी रात रोई, बिताये हुये उन लम्हों के लिये आते नहीं […] Read more » आज भी तरसते है ख़ुदा ने हमसे जिन्दगी तरस मेरे मुक्कदर हम उन सब लम्हों के लिये
कविता रावण के मन की पीड़ा June 5, 2018 / June 5, 2018 by आर के रस्तोगी | Leave a Comment तुम मुझे यू ना जला पाओगे तुम मुझे यू भुला ना पाओगे तुम मुझे हर साल जलाओगे मार कर भी तुम ना मार पाओगे जली लंका मेरी,जला मैं भी तुम भी एक दिन जला दिए जाओगे मैंने सीता हरी,हरि के लिये राक्षस कुल की बेहतरी के लिये मैंने प्रभु को रुलाया वन वन में तुम […] Read more » नगर में नारी नारी का मरण प्रभु को रुला राम से युद्ध रावण के मन की पीड़ा
कविता तुलसी को मिली पत्नि फटकार June 5, 2018 / June 5, 2018 by आर के रस्तोगी | Leave a Comment तुलसी को मिली पत्नि फटकार छोड़ दिया था उसने घरवार लिख दिया था ग्रन्थ महान तुलसी बने एक कवि महान पत्नि छोड़ भागे जो लोग वही बने विद्वान व भगवान गौतम बुद्ध महावीर स्वामी पत्नि छोड़ थे बने भगवान् पत्नि छोड़ भागे जो मोदी आज बने है वे देश प्रधान अडवाणी छोड़ न सके पत्नि […] Read more » गौतम बुद्ध तुलसी को मिली पत्नि फटकार पत्नि छोड़ पार्टी प्रधान महावीर स्वामी
कविता प्यार के पत्ते जब झड़ जाते है,पतझड़ आ जाता है जीवन में May 29, 2018 by आर के रस्तोगी | Leave a Comment प्यार के पत्ते जब झड़ जाते है,पतझड़ आ जाता है जीवन में शरीर के अंग जब थक जाते है,बुढ़ापा आ जाता है जीवन में ह्रदय तोड़ दे जब कोई तुम्हारा,नीरसता आ जाती है जीवन में पास न हो जब प्रियतम तुम्हारा,विरहता आ जाती है जीवन में मिलन हो जाये जब दो दिलो का,खुशियां आ जाती […] Read more » क्रान्ति तुम्हारे मन का मीत मिल जाये तुमको संतोष धन
कविता सुनो सुजाता : एक May 29, 2018 by आशुतोष माधव | Leave a Comment सुनो सुजाता : एक सुनो सुजाता मैं नहीं जानता तुम्हारा समाज-सत्य। शब्दार्थ की रपटीली पगडंडियाँ यदि हैं,आपका सचेत चुनाव तो आओ, बैठो बातें करो। सुनो सुजाता : दो शब्द सोते हैं शब्द जागते हैं रोना, खिलखिलाना, गुदगुदाना या फिर बाएँ कान में खुसफुसाना : सब कुछ करते हैं शब्द ठीक हमारी तरह। फर्ज करो हमें […] Read more » कम बुरा बुरा मामूली बुरा समाज-सत्य सुनो सुजाता : एक
कविता समर्पण बढ़ रहा है प्रभु चरण में! May 28, 2018 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment समर्पण बढ़ रहा है प्रभु चरण में, प्रकट गुरु लख रहे हैं तरंगों में; सृष्टि समरस हुई है समागम में, निगम आगम के इस सरोवर में ! शान्त हो स्वत: सत्व बढ़ जाता, निमंत्रण प्रकृति से है मिल जाता; सुकृति हो जाती विकृति कम होती, हृदय की वीणा विपुल स्वर बजती ! ठगा रह जाता नृत्य लख लेता, स्वयम्बर अम्बरों का तक लेता; प्राण वायु में श्वाँस उसकी ले, परश मैं उसका पा सिहर लेता ! वे ही आए सजाए जग लगते, संभाले लट ललाट लय ललके; साथ चल दूर रह उरहिं उझके, कबहु आनन्द की छटा छिटके ! कराएँगे न जाने क्या मगों में, दिखा क्या क्या न देंगे वे पलों में; जहान जादूगरी है झाँकते बस, मिला कर नयन ‘मधु’ उनके नयन में ! रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’ Read more » कबहु आनन्द जहान जादूगरी प्रभु चरण में! समर्पण बढ़ रहा सृष्टि समरस स्वयम्बर अम्बरों
कविता ज़िन्दगी का रंग May 28, 2018 by पंखुरी सिन्हा | Leave a Comment पंखुरी सिन्हा बिना उसका नाम लिए बिना कहे वह शब्द क्योंकि इतना बड़ा है जीवन किसी भी भाषा की अभिव्यक्ति से जगमगा जाता है अक्सर किसी रंग की आहट टिमटिमाहट में जबकि रंग उजास में हैं और उसके बाहर के अँधेरे में भी जीवन लेकिन, एक रंग तो होता ही है ज़िन्दगी का मौत […] Read more » गंदला गन्दुमा चला आता है ज़िन्दगी का रंग दस्तक देता मारा मारी स्याह
कविता मन का मेला May 28, 2018 by शकुन्तला बहादुर | Leave a Comment मेरे अतीत के आँगन में है,अनगिन सुधियों का मेला । कहाँ कहाँ ये जीवन बीता , कहाँ कहाँ ये है खेला ।। * रंग-बिरंगी लगीं दुकानें , तरह तरह के हैं झूले । उन सब में भटका सा ये मन,अपना सब कुछ भूले ।। * झूले के घोड़े पर बैठा , ये मन सरपट […] Read more » आँगन में कहीं ठहर जाता मेरे अतीत मेले में बिछड़े
कविता प्रतीक्षा में है बहुत कुछ May 26, 2018 / May 26, 2018 by पंखुरी सिन्हा | Leave a Comment हम कभी तो निकलेंगे धर्म के जंजाल से जातियों के मोहजाल से कर्मकांडो के मायाजाल से कि प्रगति सचमुच हमारी राह देखती है— पहुंचेंगे उस तक कभी हम जाने किस सूर्योदय के सुनहले पंख लिए होकर विजित जाने किन अस्मिताओं की कैसी लड़ाइयों में जो उभरती ही रहती हैं निरंतर शान्ति के पटल पर अकारण […] Read more » कर्मकांडो कुछ खेतों जंगलों प्रतीक्षा में है बहुत
कविता उचित अनुचित है अपेक्षित होता ! May 24, 2018 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment उचित अनुचित है अपेक्षित होता, बुरों को भी कोई बुरा लगता; अच्छों को अच्छे बहुत से लगते, बुरों को अच्छा कोई है लगता ! देखता सृष्टा सबों को रहता, लख के गुणवत्ता ढालता रहता; अधूरे अध-पके जीव सब हैं, सीखने सुधरने ही आए हैं ! निखरते निरन्तर ही रहना है, मापदण्डों में उसके गढ़ना है; […] Read more » ‘मधु’ टपकाता अपेक्षित होता उचित अनुचित माँगते रहते