राजनीति भारत दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा ई-कचरा उत्पादक July 30, 2025 / July 30, 2025 by पुनीत उपाध्याय | Leave a Comment पुनीत उपाध्याय भारत में बढ़ता ई-कचरा या ई-वेस्ट गंभीर चुनौती बनता जा रहा है। इलेक्ट्रॉनिक कचरा या ई-कचरा दरअसल बिजली और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का वेस्ट है। राज्यसभा में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों का हवाला देकर केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय राज्य मंत्री कीर्तिवर्धन सिंह ने बताया कि वित्तीय […] Read more » India is the fifth largest e-waste producer in the world ई-कचरा उत्पादक
राजनीति कंबोडिया-थाईलैंड के बीच तनाव से चीन को होगा फायदा July 30, 2025 / July 30, 2025 by प्रवक्ता ब्यूरो | Leave a Comment राजेश जैन दक्षिण-पूर्व एशिया एक बार फिर अशांत है। कंबोडिया और थाईलैंड खतरनाक सीमा संघर्ष में उलझ गए हैं। अब तक 27 लोगों की मौत हो चुकी है और हजारों को अपने घर छोड़ने पड़े हैं।इस बार भी विवाद की जड़ वही पुरानी है—प्रीह विहेयर मंदिर। हजारों साल पुराना यह मंदिर खमेर साम्राज्य की धरोहर है लेकिन इस […] Read more » China will benefit from tension between Cambodia and Thailand कंबोडिया-थाईलैंड के बीच तनाव
राजनीति बिहार का भविष्य अनिश्चिता के गर्त में July 29, 2025 / July 29, 2025 by डॉ.नर्मदेश्वर प्रसाद चौधरी | Leave a Comment डॉ.नर्मदेश्वर प्रसाद चौधरी बिहार में नेताओं के अपने परिवारवाद को विकसित करने की वजह से बिहार का भविष्य अंधकार में चला गया। केवल नेताओं के वंश विकसित हो सके लेकिन बिहार अंदर से खोखला होता गया। वैसे तो बिहार में आजादी के बाद से स्थिति में सुधार सामाजिक और आर्थिक तौर पर बाकी राज्यों की अपेक्षा कमतर ही रहा है। जब झारखंड बिहार का हिस्सा था, फिर भी बिहार में हटिया या बोकारो स्टील प्लांट या जमशेदपुर के अलावा कोई भी औद्योगिक क्षेत्र विकसित नही हो पाया। बिहार में सबकुछ होते हुए भी राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में बिहार का विकास समुचित तरीके से नहीं हो पाया। बिहार की विडंबना ये रही कि बिहार जातीय भेदभाव में ही उलझ कर रह गया। कोई भी नेता बिहार में ऐसा नही हो पाया जो बिहारी अस्मिता की बात करता हो। जयप्रकाश नारायण या राजेन्द्र प्रसाद के अलावा सभी नेता जातीय समीकरण को ही आगे बढ़ाने में तुले रहे। बिहार का कोई भी नेता राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने में नाकाम रहा । बिहार के किसी भी नेता वह माद्दा नहीं रहा कि वह राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व दे सकें। बिहार के सारे नेता पिछलग्गू नेता ही बने रहे। बिहार का दुर्भाग्य रहा कि कांग्रेस के बाद राजद की सत्ता रही जिसने पंद्रह सालों तक बिहार को केवल अराजकता की स्थिति में डाले रखा। उसके बाद जब उस अराजकता से मुक्ति मिली तो नीतीश कुमार की सरकार रही। नीतीश कुमार की सरकार ने शुरुआत के पाँच सालों तक बिहार में थोड़ा- बहुत विकास का काम जरूर किया लेकिन पिछले दस सालों में नीतीश कुमार की सरकार भी राजद के पदचिन्हों पर चलती हुई नजर आ रही है।आज बिहार की स्थिति बद से बदतर है। नीतीश कुमार की बिहार के प्रशासन पर पकड़ एकदम ढीली पड़ गई है। दरअसल नीतीश कुमार अचेतावस्था में सरकार की बागडोर संभाले हुए हैं। बीजेपी का बिहार में क्या रोल है ये उनको भी पता नहीं है। केवल नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाये रखना उनकी प्राथमिकता है। दरअसल बिहार में बीजेपी का कोई सशक्त नेता भी नहीं है जिसके चेहरे पर बीजेपी अपने दम पर चुनाव लड़ सके। बीजेपी अपने दम पर बिहार में चुनाव जीत जाए, ये असंभव है। बिहार अपने जातीय समीकरण से अभी तक उभर नहीं पाया है। बिहार में पहले अपनी जाति है, तब बिहार की अस्मिता की बात आती है। बिहार के गौरव की बात करने वाला एक भी बिहारी आपको नहीं मिलेगा।एक तो बिहार की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि हर साल बिहार बाढ़ से प्रभावित रहता है जिसके कारण बहुसंख्यक बिहारिओं को अन्य राज्यों में जाकर मजदूरी करनी पड़ती है। इसके अलावा बिहार में भूमिहीन किसानों की तादाद बहुत ज्यादा है। बिहार में भूदान हो या चकबंदी का कोई ज्यादा फायदा नहीं हो पाया। बिहार में जिसकी भी सरकार रही वह केंद्र से अपना हक मांगने में विफल रही। बिहार पर्यटन के मामले में भी फिसड्डी रहा है। बोधगया, वैशाली या पावापुरी के अलावा कुछ भी नहीं है और ये जैनियों और बौद्धों का धार्मिक स्थल है। यहाँ ना कोई धार्मिक मंदिर या कोई पौराणिक किला बगैरह कुछ भी नहीं है। बिहार में एक भी दर्शनीय स्थल नहीं है जहाँ कोई पर्यटक आ – जा सके। बिहार में अपराध के अलावा चर्चा का कोई विषय नहीं रहता है। पिछले तीस सालों में बिहार में अपराधियों की पौ बारह रही है। राजद के राज्य में अपहरण और अपराध एक उद्योग का रूप ले चुका था।अभी वर्तमान में अपराध की वैसी ही स्थिति निर्मित हो गई है। बिहार का अधिकारी जब ये बोलने लगे कि किसान फुर्सत में है इसलिए अपराध की घटना बढ़ रही है तो इससे शर्मनाक बयान और क्या हो सकता है। दरअसल बिहार को जबतक योगी जैसा मुख्यमंत्री नहीं मिलेगा, तबतक बिहार का कुछ भी भला नही हो सकता है।आज योगी ने उत्तरप्रदेश को सुधार दिया है।गुंडों की हेकड़ी निकल गई है। शुक्र मनाइए न्यायालय की कि केवल हाफ एनकाउंटर हो रहा वरना अबतक कितने अपराधी स्वर्ग सिधार चुके होते। प्रशासन कैसे किया जाता है ये योगी आदित्यनाथ ने दिखला दिया है। इसी ढर्रे पर बाकी मुख्यमंत्रियों को चलना होगा। जनसुराज पार्टी जिसके कर्ता धर्ता प्रशांत किशोर हैं वे भी कोई छाप छोड़ने में अभी तक असफल नजर आ रहे हैं। बिहार की राजनीति में उन्हें भी अभी बहुत पापड़ बेलने होंगें। दरअसल इसके पीछे की वजह जातीय समीकरण है।आज बिहार में अगड़ी जाति का कोई नेता अपने दम पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकता। बिहार में अगड़ी जाति और पिछड़ी जातियों के बीच एक गहरी खाई निर्मित हो गई है जिसे पाटना बहुत मुश्किल है। उसके लिए जयप्रकाश नारायण जैसा कोई सर्वमान्य नेता चाहिए जो आज की परिस्थितियों में नामुमकिन है। बिहार में राजपूत भूमिहार को देखना नहीं चाहते तो यादव राजपूतों को नहीं। उसी तरह सभी जातियाँ एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते हैं। बिहार में जातियों का गणित लगाना मुश्किल है। बिहार के चुनाव में जाति ही प्रमुख मुद्दा रहता आया है। बिहार के लोगों को ना तो देश से कोई मतलब है, ना को उनके राज्य से। अपनी जाति का नेता कितना भी खराब या अपराधी हो, वोट वे उसी को देंगें। बिहार में चुनाव कभी भी मुद्दे के आधार पर नहीं लड़ा गया है। आज बिहार की राजधानी पटना अपराधियों के लिए उपजाऊ स्थल हो गया है। […] Read more » Bihar's future is in the pit of uncertainty
राजनीति बंग में राष्ट्रपति शासन की संभावना July 29, 2025 / July 29, 2025 by शिवानंद मिश्रा | Leave a Comment शिवानन्द मिश्रा पश्चिम बंगाल में बाजी पलट गई है। चुनाव आयोग ने कड़ी कार्रवाई शुरू कर दी है। पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन की संभावनाएँ। हाँ, यह सच है! चुनाव आयोग ने घोषणा की है कि पूरे देश में मतदाता सूची सत्यापन किया जाएगा। बिहार के बाद, अगला राज्य पश्चिम बंगाल है जहाँ मुख्यमंत्री […] Read more » Possibility of President's rule in Bengal बंग में राष्ट्रपति शासन की संभावना
राजनीति क्या छात्र-छात्राओं की खुदकुशी पर सुप्रीम कोर्ट की चिंता से शिथिल प्रशासनिक मिशनरी में कोई नई हलचल पैदा होगी? July 29, 2025 / July 29, 2025 by कमलेश पांडेय | Leave a Comment कमलेश पांडेय देश के शिक्षण संस्थानों में छात्र-छात्राओं (स्टूडेंट्स) की आत्महत्या और उनमें बढ़ती मानसिक स्वास्थ्य (मेंटल हेल्थ) की समस्याओं पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने शुक्रवार को जो चिंता जताई है, वह अकारण नहीं है बल्कि इसके पीछे उन हजारों परिवारों और लाखों लोगों की बेदना छिपी हुई है जो ऐसे मामलों में […] Read more » Will the Supreme Court's concern over student suicides stir up a new wave in the lax administrative mission? छात्र-छात्राओं की खुदकुशी पर सुप्रीम कोर्ट की चिंता
राजनीति भारत की पासपोर्ट इंडेक्स में बड़ी छलांग-विकसित भारत का ग्लोबल मिशन ! July 28, 2025 / July 28, 2025 by सुनील कुमार महला | Leave a Comment हाल ही में 22 जुलाई 2025 को हेनली पासपोर्ट इंडेक्स-2025 जारी किया गया है, और यह हमारे देश के लिए गौरवान्वित करने वाली बात है कि हम इस इंडेक्स में 77 वें स्थान पर पहुंच गए हैं। पाठकों को बताता चलूं कि हेनले पासपोर्ट इंडेक्स दुनिया के सभी पासपोर्टों को उन गंतव्यों की संख्या के […] Read more » Big leap in India's passport index-Developed India's global mission भारत की पासपोर्ट इंडेक्स में बड़ी छलांग
आर्थिकी राजनीति भारत-ब्रिटेन व्यापार समझौताः एक क्रांतिकारी कदम July 25, 2025 / July 25, 2025 by ललित गर्ग | Leave a Comment -ललित गर्ग- भारत और ब्रिटेन के बीच ऐतिहासिक मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) की अंतिम स्वीकृति ने न केवल वैश्विक व्यापार जगत में हलचल मचा दी है, बल्कि भारत के आर्थिक भविष्य को भी एक नई दिशा दी है। दोनों देशों के बीच आखिरकार फ्री ट्रेड एग्रीमेंट होने का फायदा दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं को मिलेगा। […] Read more » India-UK Trade Agreement भारत-ब्रिटेन व्यापार समझौता
आर्थिकी राजनीति भारत एवं यूके के बीच मुक्त व्यापार समझौते से बढ़ेगा विदेशी व्यापार July 25, 2025 / July 25, 2025 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment दिनांक 24 जुलाई 2025 को भारत एवं यूनाइटेड किंगडम (यूके) के बीच द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौता भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी एवं यूके के प्रधानमंत्री श्री कीर स्टारमर की उपस्थिति में सम्पन्न हो गया। यूके के यूरोपीयन यूनियन से अलग होने के बाद यूके का भारत के साथ यह द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौता यूके […] Read more » भारत एवं यूके के बीच मुक्त व्यापार समझौते से बढ़ेगा विदेशी व्यापार
राजनीति सौ वर्ष बाद भी संघ आत्ममुग्ध नहीं July 25, 2025 / July 25, 2025 by सचिन त्रिपाठी | Leave a Comment सचिन त्रिपाठी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शताब्दी वर्ष की दहलीज पर खड़ा है। यह केवल किसी संस्था के 100 वर्ष पूरे होने की औपचारिकता नहीं है बल्कि भारत के आधुनिक इतिहास, समाज और विचारधारा की उस यात्रा की समीक्षा का अवसर है जिसमें संघ की भूमिका निर्णायक, विवादास्पद, किंतु निर्विवाद रूप से प्रभावशाली रही है। सौ वर्षों की यात्रा में संघ चाहे जितना बड़ा, शक्तिशाली और विस्तृत हुआ हो, वह आत्ममुग्ध नहीं हुआ है। यह वाक्य एक प्रशंसा नहीं, बल्कि एक वैचारिक अवलोकन है। संघ की मूल प्रवृत्ति आत्मप्रशंसा या आत्ममुग्धता नहीं, आत्मसाधना है। आज की दुनिया में जहां संस्थाएं कुछ दशकों के भीतर ही ‘इमेज ब्रांडिंग’, ‘स्मार्ट मैसेजिंग’ और ‘गौरवोत्सव’ के चक्कर में अपना आत्मावलोकन खो बैठती हैं, वहीं संघ अपने आलोचकों की भी उतनी ही सावधानी से सुनता है जितनी श्रद्धा से स्वयंसेवकों की बात करता है। यह गुण उसे ‘संगठन’ से ‘संघ’ बनाता है। 1930 के दशक में जब यह ‘आंदोलन’ ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के समय में पनपा, तब इसके सामने राष्ट्रवाद को व्यावहारिक सामाजिक जीवन में उतारने की चुनौती थी। आज, जब वह राष्ट्र के नीति-निर्धारकों, शैक्षणिक परिसरों, मीडिया विमर्शों और वैश्विक मंचों पर प्रभावी भूमिका में है, तब भी वह सतत आत्मसमीक्षा करता रहा है। संघ ने कभी अपने सौ साल के संघर्ष को ‘विजय यात्रा’ की तरह प्रस्तुत नहीं किया। उसका कार्यकर्ता आज भी स्वयं को ‘स्वयंसेवक’ ही मानता है, नायक नहीं। यह आत्ममुग्ध न होने का भाव उसकी कार्यपद्धति में स्पष्ट झलकता है। संघ कार्यालय आज भी उतने ही साधारण हैं जैसे 1925 में नागपुर में थे। किसी भव्यता, बैनर या नारेबाजी की ज़रूरत उसे नहीं लगती। संघ शिक्षा वर्गों, शाखाओं और प्रकल्पों के ज़रिये समाज निर्माण में रमा रहता है। वह जानता है कि दिखावे से नहीं, चरित्र से परिवर्तन आता है। संघ के आलोचकों ने अक्सर उसे ‘पुरुषप्रधान’, ‘हिंदू केंद्रित’, ‘गुप्तवादी’ या ‘राजनीतिक आकांक्षाओं से प्रेरित’ संस्था कहा है किंतु आत्ममुग्धता कभी उसकी आलोचना नहीं रही। आत्ममुग्धता वह होती है जब कोई संस्था अपनी ही छाया से अभिभूत हो जाए। संघ इसके ठीक उलट, अपनी सीमाओं का निरंतर आंकलन करता रहा है। चाहे वह सामाजिक समरसता के क्षेत्र में दलितों के लिए कार्य हो, महिलाओं की भूमिका पर विचार हो या मुस्लिम समाज से संवाद की नई पहल, संघ हमेशा इन विषयों पर आत्मसंवाद करता रहा है। सौ वर्षों की इस यात्रा में संघ को बहुत कुछ प्राप्त हुआ है। लाखों स्वयंसेवक, हजारों संगठन, राजनीतिक शीर्ष, शैक्षणिक नेटवर्क और सांस्कृतिक प्रभाव। फिर भी, संघ अपने आपको ‘समाप्त यात्रा’ नहीं मानता। उसकी दृष्टि में यह सब ‘कार्य विस्तार का माध्यम है, लक्ष्य नहीं।’ यह विचार ही उसे आत्ममुग्ध होने से रोकता है। संघ का सबसे बड़ा सामाजिक योगदान यह रहा है कि उसने राष्ट्रीय चेतना को केवल भाषणों में नहीं, जीवन में उतारा। उसने स्वयंसेवक को मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर या किसी भी पूजा पद्धति से ऊपर एक भारतीय के रूप में गढ़ा। संघ की आत्मा उसके शाखा जीवन में बसती है जहां न कोई टीवी कैमरा होता है, न कोई उत्सव। वहां केवल साधना होती है तन, मन और राष्ट्र की। आज जब वह शताब्दी की दहलीज़ पर खड़ा है, तो आत्ममुग्ध होने का अवसर उसके पास भरपूर है लेकिन वह नहीं है। न तो संघ ने अपनी 100 साल की यात्रा को कोई भव्य उत्सव बनाया, न ही मीडिया कैम्पेन। वह जानता है कि ‘कार्य की पूजा’ ही उसका मूल है, न कि प्रचार की आरती। यह उस गहराई का संकेत है, जो भारत के पारंपरिक ज्ञान और तपस्या की विरासत से जुड़ी है। संघ का यह आत्मसंयम ही उसे दीर्घकालिक बनाता है। वह जानता है कि भारत के पुनर्जागरण की यात्रा केवल राजनीतिक सत्ता या सामाजिक संगठन से नहीं चलेगी, यह एक आत्मिक संघर्ष भी है और यह आत्मिकता, आत्ममुग्धता की दुश्मन होती है। शायद इसीलिए, जब संघ अपने 100वें वर्ष में प्रवेश करता है तो वह कोई घोषणा नहीं करता, बल्कि एक मौन साधक की तरह समाज के साथ चल पड़ता है “बिना थके, बिना रुके, बिना डिगे।” संघ आत्ममुग्ध नहीं है क्योंकि वह जानता है कि सच्चा राष्ट्रनिर्माण आरंभिक होता है, समाप्त नहीं। वह जानता है कि समाज को हर दिन एक नई शाखा, एक नई चेतना और एक नया संकल्प चाहिए। इसलिए सौ वर्षों बाद भी वह रास्ते में है, मंच पर नहीं। इसी में उसकी मौलिकता है। इसी में उसका तप है। इसी में उसकी भारतीयता है। सचिन त्रिपाठी Read more » Even after 100 years the Sangh is not complacent सौ वर्ष बाद भी संघ आत्ममुग्ध नहीं
राजनीति धनखड़ का त्यागपत्र और देश की राजनीति July 25, 2025 / July 29, 2025 by राकेश कुमार आर्य | Leave a Comment कारण चाहे जो भी रहा , परंतु उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने अपने पद से अचानक त्यागपत्र देकर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया है। उनके इस त्यागपत्र के पीछे कोई दूसरी राजनीति रही है या वह स्वयं कोई ऐसी राजनीति कर रहे थे जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा ? या फिर वह राजनीति की […] Read more » धनखड़ का त्यागपत्र
राजनीति नकली वोटर से लोकतंत्र कैसे रहेगा असली? July 24, 2025 / July 24, 2025 by रमेश ठाकुर | Leave a Comment डॉ. रमेश ठाकुर लोकतांत्रिक देश में चुनाव की पवित्रता उस बुनियादी भरोसे पर टिकी होती है जहां केवल वैध नागरिक वोट डालते हैं लेकिन जब इस भरोसे की नींव मतदाता सूची ही अविश्वसनीय हो जाए तो पूरा लोकतांत्रिक ढांचा सवालों के घेरे में आ जाता है। बिहार को लेकर हाल ही में सामने आई एक जनसांख्यिकीय रिपोर्ट ने इसी आशंका को चेताया है। रिपोर्ट में यह संकेत मिला है कि राज्य की मतदाता सूची में लाखों ऐसे नाम दर्ज हैं जिनका कोई जनसांख्यिकीय आधार नहीं है। ये न केवल प्रशासनिक उदासीनता का मामला है, बल्कि संभावित रूप से लोकतंत्र की निष्पक्षता पर गंभीर संकट की चेतावनी भी है। डॉ. विद्यु शेखर और डॉ. मिलन कुमार द्वारा तैयार की गई ‘जनसांख्यिकीय पुनर्निर्माण और मतदाता सूची में फुलाव: बिहार में वैध मतदाता आधार का अनुमान’ रिपोर्ट, विभिन्न सरकारी स्रोतों जिसमें 2011 की जनगणना, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े, सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम, राज्य आर्थिक सर्वेक्षण और प्रवासन के आधिकारिक आंकड़ों को शामिल किया गया है। इस अध्ययन में इन आंकड़ों के आधार पर बिहार में संभावित वैध मतदाताओं की संख्या का अनुमान लगाया गया है। चुनाव आयोग के अनुसार, 2024 के चुनावों के लिए बिहार में कुल 7.89 करोड़ पंजीकृत मतदाता हैं लेकिन जनगणना और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों पर आधारित इस शोध का अनुमान है कि वैध मतदाताओं की संख्या केवल 7.12 करोड़ होनी चाहिए। इसका सीधा अर्थ है कि 77 लाख नाम ऐसे हैं जिन्हें साफ-सुथरी और अद्यतन मतदाता सूची में जगह नहीं मिलनी चाहिए थी। यह फासला न तो सामान्य माना जा सकता है और न ही इसे मात्र तकनीकी चूक करार दिया जा सकता है। 77 लाख का यह अंतर राज्य की कुल मतदाता संख्या का लगभग 10 प्रतिशत है जो किसी भी चुनाव के परिणाम को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि यह विसंगति राज्य के सभी हिस्सों में समान नहीं है, कुछ जिले तो ऐसे हैं जहां यह अंतर बेहद गंभीर स्तर तक पहुंच गया है। उदाहरण के लिए, दरभंगा में 21.5 प्रतिशत, मधुबनी में 21.4 प्रतिशत, मुज़फ्फरपुर में 11.9 प्रतिशत और राजधानी पटना में 11.2 प्रतिशत अतिरिक्त मतदाताओं के नाम दर्ज हैं। मात्र तीन जिलों मधुबनी, दरभंगा और मुज़फ्फरपुर में ही लगभग 15 लाख ऐसे मतदाताओं के नाम दर्ज हैं जिन्हें जनसांख्यिकीय तौर पर मौजूद नहीं होना चाहिए। कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धि और मतदाता वृद्धि के आंकड़े एक-दूसरे से बिलकुल मेल नहीं खाते। उदाहरण के तौर पर शेखपुरा जिले की जनसंख्या 2011 से 2024 के बीच 2.22 प्रतिशत घटी है लेकिन मतदाताओं की संख्या 11.7 प्रतिशत बढ़ गई। इसी तरह सीतामढ़ी की जनसंख्या में 11.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि मतदाताओं की संख्या 29.3 प्रतिशत बढ़ गई। ऐसी विसंगतियाँ किसी स्वाभाविक जनसंख्या परिवर्तन का परिणाम नहीं हो सकतीं। ये आंकड़े या तो प्रशासनिक लापरवाही की ओर इशारा करते हैं या जानबूझकर किए गए हेरफेर की ओर। दरअसल बिहार में मतदाता सूची से नाम हटाने की प्रक्रिया काफी कमजोर और ढीली है। यह काम ज़्यादातर लोगों द्वारा खुद फॉर्म भरने और फील्ड वेरिफिकेशन पर निर्भर करता है जो अक्सर अधूरा या अनियमित होता है। कई बार इस तरह की खबरें आती हैं कि कई शहरी और अर्ध-शहरी इलाकों में घर-घर जाकर या तो अधूरी जांच होती है या होती ही नहीं है। इसके अलावा मतदाता सूची को मृत्यु पंजीकरण या प्रवासन से जुड़े सरकारी आंकड़ों से जोड़ने की कोई तात्कालिक व्यवस्था नहीं है। नतीजतन जो लोग गुजर चुके हैं या राज्य से बाहर चले गए हैं, उनके नाम भी वर्षों तक सूची में बने रहते हैं। मतदाता सूची की इन विसंगतियों का कुछ दलों को सीधा फायदा होता है। बिहार की राजनीति लंबे समय से पहचान आधारित और जातीय वोट बैंक पर टिकी रही है। ऐसे में जब मतदाता सूची में संदिग्ध या फर्जी नाम बने रहते हैं तो ये पार्टियाँ इसे अपने लिए ‘बैकडोर वोटिंग’ और चुनावी धांधली का जरिया बना लेती हैं। जब कभी सूची की सफाई की माँग उठती है, तो इसे “अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने” जैसा भावनात्मक मुद्दा बनाकर दबा दिया जाता है। बिहार की तरह पश्चिम बंगाल में भी यही पैटर्न दिखता है। सीमावर्ती इलाकों में घुसपैठ की आशंका के चलते वहां मतदाता सूची को लेकर लंबे समय से सवाल उठते रहे हैं मगर तृणमूल कांग्रेस अक्सर इन जिलों में गहन जांच का विरोध करती रही है। यह भी उसी रणनीति का हिस्सा लगता है, जैसा कि बिहार में देखा गया। वहीं असम में एनआरसी प्रक्रिया से यह तो साबित हुआ ही कि अवैध प्रवासियों की पहचान मुश्किल है, लेकिन यह भी दिखा कि अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो मतदाता सूची को सुधारना नामुमकिन नहीं है। इस पूरे मामले का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि फर्जी मतदाताओं की इतनी बड़ी संख्या सीधे चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकती है। 2020 के विधानसभा चुनावों में बिहार की 243 सीटों में से 90 सीटें ऐसी थीं जहां जीत-हार का अंतर 10,000 से कम वोटों का था। अब अगर हर विधानसभा क्षेत्र में औसतन 25,000 से 50,000 तक फर्जी नाम दर्ज हैं तो यह निष्पक्ष चुनाव की सोच को ही सवालों के घेरे में डाल देता है। ऐसे में यह पूछना बिल्कुल जायज़ है कि क्या मतदाता सूची में मौजूद ये फर्जी नाम लोकतंत्र की आत्मा को भीतर से खोखला नहीं कर रहे? भले ही यह रिपोर्ट बिहार तक सीमित है लेकिन इसका संदेश पूरे देश के लिए बेहद अहम है। जब एक ऐसा राज्य,जहां आधार लिंकिंग, वोटर आईडी और मतदाता सूची संशोधन जैसी कोशिशें हो चुकी हैं, वहां इतनी बड़ी गड़बड़ी पाई जाती है तो उन राज्यों का क्या हाल होगा जहां पारदर्शिता और निगरानी और भी कमज़ोर है? यह शोध रिपोर्ट महज़ आंकड़ों का विश्लेषण नहीं है, बल्कि एक गंभीर लोकतांत्रिक चेतावनी है। हर फर्जी नाम, हर मृत या पलायन कर चुके व्यक्ति का नाम जो मतदाता सूची में बना हुआ है, लोकतंत्र को हाईजैक करने का औजार है। यह किसी नकली नोट से भी ज़्यादा खतरनाक है, क्योंकि इसका नुकसान सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि राजनीतिक और संस्थागत है जो एक पूरे राज्य का प्रतिनिधित्व बदल सकता है। बिहार की मतदाता सूची में दर्ज ये 77 लाख फर्जी नाम सिर्फ प्रशासनिक लापरवाही नहीं बल्कि एक लोकतांत्रिक संकट की दस्तक हैं। यदि मतदाता सूची ही अविश्वसनीय हो जाए तो फिर चुनाव की पवित्रता, जनादेश की वैधता और शासन की नैतिक वैधता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। यह न केवल एक राज्य का संकट है बल्कि पूरे राष्ट्र के लिए चेतावनी है कि लोकतंत्र की रीढ़ की रक्षा अब प्राथमिकता बननी चाहिए। इस संदर्भ में, चुनाव आयोग द्वारा बिहार में चलाया जा रहा स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन एक महत्वपूर्ण और समयोचित हस्तक्षेप है। इस पहल को केवल आँकड़ों की समीक्षा भर न मानकर एक लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व की पूर्ति के रूप में देखा जाना चाहिए। आयोग को चाहिए कि वह इस प्रक्रिया को और व्यापक बनाए, तकनीकी और विधिक उपायों से इसे मजबूत करे और राज्य सरकारों के सहयोग से हर मतदाता सूची को अधिक पारदर्शी, त्रुटिरहित और विश्वसनीय बनाए। बिहार से उठी यह आवाज़ देशभर में मतदाता सूची की शुचिता और पारदर्शिता की माँग को नई ताक़त देती है क्योंकि अगर मतदाता ही नकली हो गया, तो फिर लोकतंत्र असली कैसे रह पाएगा? डॉ. रमेश ठाकुर Read more » How can democracy remain real with fake voters? नकली वोटर
राजनीति धनखड के अचानक इस्तीफा देने के पीछे सच में सेहत है या कोई सियासत? July 24, 2025 / July 24, 2025 by रामस्वरूप रावतसरे | Leave a Comment रामस्वरूप रावतसरे जगदीप धनखड़ ने उपराष्ट्रपति पद से अचानक इस्तीफा दे दिया। उन्होंने अपने इस्तीफे में सेहत का हवाला दिया है। सोमवार को मानसून सत्र का पहला दिन था। मानसून सत्र पहले दिन वह एक्टिव दिखे। पूरे दिन सदन को अच्छे से चलाया भी। मगर अचानक शाम को ऐसा क्या हुआ कि जगदीप धनखड़ ने […] Read more » धनखड के अचानक इस्तीफा