Category: राजनीति

राजनीति

यक्ष प्रश्न: जीत और गठबंधन की मृगमरीचिका में आखिर कब तक भटकेगी कांग्रेस?

/ | Leave a Comment

 कमलेश पांडेय कांग्रेस एक पुरानी राजनीतिक पार्टी है जिसका देशव्यापी जनाधार है लेकिन वह ‘जीत’ और ‘गठबंधन’ की मृगमरीचिका में आखिर कबतक भटकेगी, यह एक यक्ष प्रश्न है? आखिर कमजोर ‘सियासी बैशाखियों’ के सहारे उसकी जीत कितना मुकम्मल कहलाएगी और स्थायी बन पाएगी, यह उससे भी ज्यादा विचारणीय पहलू है। वैसे भी जब कांग्रेस विभिन्न महत्वपूर्ण राज्यों में क्षेत्रीय दलों की वैशाखी ढूंढ़ती है या फिर मुद्दों के बियाबान में भटकती और फिर स्टैंड बदलती नजर आती है तो मुझे इसके रणनीतिकारों पर तरस आती है।  ऐसा इसलिए कि मैंने भू-जमींदारी देखी है, जहां पर लोग अपनी जमीनें ठेके या बंटाईदारी पर देकर अनाज और पैसे दोनों लेते हैं। ठीक उसी तरह से आज कांग्रेस के रसूखदार और धन्नासेठ नेता पार्टी संगठन में पद और चुनावी टिकट देने के वास्ते ‘वोट’ और ‘पैसा’ दोनों लेते/लिवाते हैं, यह जानते हुए भी कि सामने वाला न तो उनका जनाधार बढ़ा पाएगा और न ही चुनाव जीत/जीतवा पाएगा। ऐसा वो सिर्फ इसलिए करते हैं कि सामने वाला अमीर है, वफादार है, पिछलग्गू भर है या फिर निहित समीकरण वश किसी ने उसकी सिफारिश की है। बेशक कुछ अपवाद भी हो सकते हैं, लेकिन वही जिनके नेहरू-गांधी परिवार से ठीक ठाक सम्बन्ध हैं। अब बात पते की करते हैं। जैसे एक शातिर बंटाईदार अपने भूस्वामी की भूमि पर भी कब्जा कर लेता है और इसमें जब वह असफल होता है तो जमीन मालिक से कम कीमत में उसकी रजिस्ट्री करवाना चाहता है। अनुभवहीन भूस्वामियों को ऐसा करते हुए भी देखा सुना है। ठीक इसी प्रकार लालू प्रसाद और स्व. मुलायम सिंह यादव जैसे नवसियासी बटाईदारों ने कांग्रेस के साथ किया और आज क्षेत्रीय सियासी जमींदार बन बैठे हैं। ऐसा इसलिए सम्भव हो सका, क्योंकि निहित स्वार्थवश पीवी नरसिम्हाराव यही चाहते थे! उनके तिकड़म को सोनिया गांधी नहीं समझ सकीं । वहीं, आज जब राहुल-प्रियंका गांधी की कांग्रेस की रीति नीति देखता हूँ तो इनकी राजनीतिक जमींदारी के हश्र को महसूस भी करता हूँ। कांग्रेस माने या न माने लेकिन समाजवादी, वामपंथी और राष्ट्रवादी सियासी जमींदारों ने उसकी राजनीतिक जमींदारी को क्षत-विक्षत करने में अहम भूमिका निभाई है और हैरत की बात यह है कि वह समझ नहीं पाई और नादान बनी रही जबकि इसके खिलाफ ठोस और जमीनी रणनीति बनानी चाहिए जैसे कि उसके बाद जन्मी भाजपा ने किया है। माना कि सत्ता प्राप्ति के लोभ में क्षेत्रीय दलों से गठबंधन यानी यूपीए/महागठबंधन की सोच तो सही है, लेकिन इनके इशारे पर कांग्रेस संगठन को हांकना कतई सही नहीं है। कांग्रेस इससे इंकार कर सकती है, लेकिन वह आज इसी की पूरी सियासी कीमत अदा कर रही है। आज वह सत्ता में नहीं है, फिर भी उन्हीं लोगों से सहारा ढूंढ रही है जो उसके सियासी पतन के लिए कसूरवार हैं। चूंकि मैंने एआईसीसी/बीजेपी/तीसरे मोर्चे को कवर किया है, इसलिए दावे के साथ कह सकता हूँ कि कांग्रेस के अंग्रेजी भाषी दलाल नेताओं ने उसके जमीनी नेताओं को भाजपा या क्षेत्रीय दलों में जाने के लिए अभिशप्त कर दिया।  चूंकि कांग्रेस के जमीनी नेताओं के पास रणनीति और जनाधार दोनों है, इसलिए वो अपने व्यक्तिवादी मिशन में सफल रहे लेकिन कांग्रेस दिन ब दिन डूबती चली गई। राजनीतिक परिस्थिति वश कभी दो डग आगे तो चार कदम पीछे चलने को अभिशप्त हो गई। इस बात में कोई दो राय नहीं कि किसी भी स्थापित दल को चलाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय लायजनरों की जरूरत पड़ती है लेकिन इनके निहित स्वार्थों के ऊपर यदि ब्लॉक, जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर जनाधार रखने वाले नेताओं की उपेक्षा की जाएगी तो फिर वोट कहाँ से आएगा, यह सोचने की फुर्सत सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के पास नहीं होगी।  अतीत पर नजर डालें तो एक जमाना था जब गांव-गांव में कांग्रेस के मजबूत शुभचिंतक थे, लेकिन पार्टी की अव्यवहारिक रीति-नीति के चलते वह इससे दूर होते चले गए। दो टूक कहें तो भाजपा में या क्षेत्रीय दलों में शिफ्ट हो गए। ऐसे में आज कांग्रेस के पास सिर्फ उन ‘धनपशुओं’ की टोली बची है जिनको दूसरी राजनीतिक पार्टियां कभी तवज्जो नहीं देतीं। इनका काम कांग्रेस की सत्ता और संगठन के बड़े नेताओं के शाही खर्चों का इंतजाम करना भर है और इसलिए इनके समर्थक ब्लॉक, जिला, राज्य व राष्ट्रीय संगठनों पर हावी हैं।  चूंकि इनका कोई जनाधार नहीं है और ये जनाधार वाले कार्यकर्ताओं को तवज्जो नहीं देते, इसलिए कांग्रेस खत्म होती चली गई। वहीं, जब से क्षेत्रीय कांग्रेस के नेता अस्तित्व रक्षा के लिए बिहार में राजद प्रमुख लालू प्रसाद व तेजस्वी यादव तथा उत्तरप्रदेश में सपा प्रमुख स्व. मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव जैसे मजबूत नेताओं के इशारे पर काम करने लगे, तब से पार्टी संगठन की स्थिति और अधिक दयनीय हो गई।  आलम यह है कि कांग्रेस जैसी राजनीतिक पार्टी, जिसे देश की आजादी का श्रेय प्राप्त है, जब जनजीवन व राष्ट्रीय हितों से इतर प्रमुख जातीय, सांप्रदायिक और क्षेत्रीय समीकरणों पर खेलने लगी, तो उसकी जोड़-तोड़ से सत्ता तो बदलती रही, परंतु जनाधार छीजता चला गया क्योंकि उसके प्रति निष्ठावान रहे प्रतिभाशाली पेशेवर, कारोबारी, प्रशासक और समाजसेवी आदि उससे दूर होते चले गए। चूंकि पहले क्षेत्रीय दलों और उसके बाद भाजपा ने उन्हें तवज्जो दी, इसलिए वो सब इनके साथ जुड़ गए, जिससे इन्हें अप्रत्याशित मजबूती मिली और कांग्रेस को कमजोरी मुबारक हुई।  अब जब कांग्रेस की ट्रू कॉपी भाजपा बनती जा रही है तो भी कांग्रेस के थिंक टैंक को असली मुद्दे समझ में नहीं आ रहे हैं। शायद उसकी इसी मनोवृत्ति पर चोट करते हुए पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने कहा है कि कांग्रेस को पुराने ढर्रे की राजनीति बंद करनी होगी और नए ढर्रे बनाने होंगे अन्यथा सियासी सफलता मुश्किल है। लिहाजा कांग्रेस की इसी कमजोरी को मजबूती में बदलने का आह्वान पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने किया है।  हाल ही में हरियाणा और महाराष्ट्र में पार्टी और गठबंधन की हुई करारी हार के बाद हुई पहली कांग्रेस वर्किंग कमिटी की बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने दो टूक कहा कि अब पार्टी में जवाबदेही तय करने का वक्त आ गया है क्योंकि इन दोनों ही राज्यों में महज चंद महीने पहले पार्टी का प्रदर्शन काफी संतोषजनक रहा था लेकिन अब जो नई दुर्गति सामने आई है, वह हमें नए सिरे से सोचने पर मजबूर करती है। बता दें कि 29 नवंबर 2024 शुक्रवार को हुई कांग्रेस के सर्वोच्च नीति निर्धारक इकाई की इस समीक्षा बैठक में खरगे के अलावा तमाम सीनियर नेता, नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी और कांग्रेस की नवनिर्वाचित सांसद प्रियंका गांधी भी मौजूद थी हालांकि बैठक खत्म होने से पहले ही राहुल और प्रियंका निकल गए। इसी मीटिंग में मल्लिकार्जुन खरगे ने पार्टी के नेताओं के सामने जहां एक ओर इस निराशाजनक प्रदर्शन के लिए तमाम वजहों को गिनाया, वही उन्होंने ईवीएम का मुद्दा भी उठाया।  खरगे का दो टूक कहना है कि पार्टी में अनुशासन की कमी और पुराने ढरें की राजनीति के जरिए जीत नहीं मिल सकती क्योंकि कांग्रेस के भीतर आपसी गुटबाजी एक स्थायी भाव बन चुकी है। उन्होंने इस ओर इशारा करते हुए कहा कि आपसी एकता की कमी और एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी हमें काफी नुकसान पहुंचाती है। जब तक हम एक हो कर चुनाव नहीं लड़ेंगे, आपस में एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी बंद नहीं करेंगे, तब तक अपने विरोधियों को राजनीतिक शिकस्त नहीं दे पाएंगे। इसलिए हमें हर हाल में एकजुट रहना होगा। वहीं, उन्होंने पार्टी में अनुशासन पर जोर देते हुए संकेत दिया कि पार्टी के लोग अपने स्तर पर अनुशासन में बंधें। वैसे तो पार्टी के पास अनुशासन का हथियार है, लेकिन हम नहीं चाहते कि अपने साथियों को किसी बंधन में डाले। वहीं, खरगे ने कांग्रेस की एक और बड़ी कमी की ओर इशारा करते हुए कहा कि पार्टी अपने पक्ष के माहौल को नहीं भुना पाती। उनका कहना था कि चुनावों में माहौल हमारे पक्ष में था लेकिन केवल माहौल पक्ष में होना भर ही जीत की गारंटी नहीं होती। इसलिए अब पार्टी में जवाबदेही तय करने का वक्त आ गया है। क्योंकि पार्टी में अनुशासन की कमी है। पार्टी के भीतर आपसी गुटबाजी एक स्थायी भाव बन चुकी है। सच कहूं तो लोकसभा चुनाव के बाद दो राज्यों में पार्टी की हुई करारी हार के बाद शुक्रवार को सीडब्ल्यूसी मीटिंग में खरगे द्वारा पार्टी की हार की वजहों का जिक्र कोई पहला मौका नहीं था, जब पार्टी ने अपनी कमियों की ओर इंगित किया हो। यह कड़वी सच्चाई है कि कांग्रेस समस्या जानती है, उसका निदान और उपचार भी जानती है, लेकिन इसके लिए जो इच्छा शक्ति की जरूरत होती है, वह पार्टी नेतृत्व में नजर नहीं आती। यही वजह है कि 2014 के आम चुनाव के बाद असेबली चुनावों में पार्टी की हो रही लगातार हार के बाद 2016 में कांग्रेस के तत्कालीन महासचिव दिग्विजय सिंह ने पार्टी में मेजर सर्जरी की जरूरत बताई थी लेकिन हुआ कुछ नहीं। उल्टे जी-23 में से ज्यादातर को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। इसलिए अब यह देखना दिलचस्प होगा कि खरगे द्वारा पार्टी की कमियों की ओर किया गया यह इशारा क्या वाकई पार्टी और नेताओं के भीतर कोई बदलाव लाएगा? क्या पार्टी अनुशासन की ब्लेड से मेजर सर्जरी कर पाएगी या फिर यह भी बस एक महज खानापूर्ति बन कर रह जाएगा? क्योंकि खरगे का यह सुझाव सही है कि हमें माहौल को नतीजों में बदलना सीखना होगा। उन्होंने जीत के लिए भरपूर मेहनत के साथ-साथ समयबद्ध तरीके से रणनीति बनाने और संगठन की मजबूती पर जो जोर दिया है, वह भी पते की बात है। उनका सुदीर्घ अनुभव इसमें झलकता है।उन्होंने सटीक आईना दिखाया है कि सिर्फ माहौल पक्ष में होना भर ही जीत की गारंटी नहीं होती। क्योंकि भाजपा इसे अपने पक्ष में करना जानती है। हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र तक उसने यही किया है। खरगे का कहना भी सही है कि हमें अपने संगठन को बूथ स्तर तक मजबूत करना होगा। हमें मतदाता सूची बनाने से लेकर वोट की गिनती तक रात-दिन सजग, सचेत और सावधान रहना होगा। हमारी तैयारी शुरू से लेकर मतगणना तक ऐसी होनी चाहिए कि हमारे कार्यकर्ता और सिस्टम मुस्तैदी से काम करें। वहीं उन्होंने राज्यों को भी अपना संगठन मजबूत करने पर जोर देते हुए कहा कि राष्ट्रीय मुद्दों और राष्ट्रीय नेताओं के सहारे राज्यों का चुनाव आप कब तक लड़ेंगे? उन्होंने प्रदेश संगठनों से कहा कि हाल के चुनावी नतीजों का संकेत यह भी है कि हमें राज्यों में अपनी चुनाव की तैयारी कम से कम एक साल पहले शुरू कर देनी चाहिए। उन्होंने यह कहते हुए राजनीतिक दूरदर्शिता दिखाई है कि हमारी टीम समय से पहले मैदान में मौजूद रहनी चाहिए। जो कि अपने प्रतिद्वंद्वी की तैयारियों पर नजर रखने में सक्षम हो।  वाकई ऐसा संभव हुआ तो यह कांग्रेस के लिए पुनर्जन्म जैसा होगा। लेकिन सुलगता सवाल फिर वही कि  क्या पार्टी के नेताओं के अंदर अब कोई बदलाव आएगा? क्या उनके घिसे-पिटे सियासी एजेंडे और तुष्टिकरण की नीति में आमूलचूल बदलाव आएगा? क्या उनकी क्षुद्र जातीय नीतियां बदलेंगी और राष्ट्रनिर्माण के वास्ते को कोई अग्रगामी और निर्णायक कदम उठा पाएंगे! इंतजार करना श्रेयस्कर रहेगा।

Read more »

आर्थिकी राजनीति

भारत में सहकारिता आंदोलन को सफल होना ही होगा

/ | Leave a Comment

भारत में आर्थिक विकास को गति देने के उद्देश्य से सहकारिता आंदोलन को सफल बनाना बहुत जरूरी है। वैसे तो हमारे देश में सहकारिता आंदोलन की शुरुआत वर्ष 1904 से हुई है एवं तब से आज तक सहकारी क्षेत्र में लाखों समितियों की स्थापना हुई है। कुछ अत्यधिक सफल रही हैं, जैसे अमूल डेयरी, परंतु इस प्रकार की सफलता की कहानियां बहुत कम ही रही हैं। कहा जाता है कि देश में सहकारिता आंदोलन को जिस तरह से सफल होना चाहिए था, वैसा हुआ नहीं है। बल्कि, भारत में सहकारिता आंदोलन में कई प्रकार की कमियां ही दिखाई दी हैं। देश की अर्थव्यवस्था को यदि 5 लाख करोड़ अमेरिकी डालर के आकार का बनाना है तो देश में सहकारिता आंदोलन को भी सफल बनाना ही होगा। इस दृष्टि से केंद्र सरकार द्वारा एक नए सहकारिता मंत्रालय का गठन भी किया गया है। विशेष रूप से गठित किए गए इस सहकारिता मंत्रालय से अब “सहकार से समृद्धि” की परिकल्पना के साकार होने की उम्मीद भी की जा रही है।       भारत में सहकारिता आंदोलन का यदि सहकारिता की संरचना की दृष्टि से आंकलन किया जाय तो ध्यान में आता है कि देश में लगभग 8.5 लाख से अधिक सहकारी साख समितियां कार्यरत हैं। इन समितियों में कुल सदस्य संख्या लगभग 28 करोड़ है। हमारे देश में 55 किस्मों की सहकारी समितियां विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रही हैं। जैसे, देश में 1.5 लाख प्राथमिक दुग्ध सहकारी समितियां कार्यरत हैं। इसके अतिरिक्त 93,000 प्राथमिक कृषि सहकारी साख समितियां कार्यरत हैं। ये मुख्य रूप से ग्रामीण इलाकों में कार्य करती हैं। इन दोनों प्रकार की लगभग 2.5 लाख सहकारी समितियां ग्रामीण इलाकों को अपनी कर्मभूमि बनाकर इन इलाकों की 75 प्रतिशत जनसंख्या को अपने दायरे में लिए हुए है। उक्त के अलावा देश में सहकारी साख समितियां भी कार्यरत हैं और यह तीन प्रकार की हैं। एक तो वे जो अपनी सेवाएं शहरी इलाकों में प्रदान कर रही हैं। दूसरी वे हैं जो ग्रामीण इलाकों में तो अपनी सेवाएं प्रदान कर रही हैं, परंतु कृषि क्षेत्र में ऋण प्रदान नहीं करती हैं। तीसरी वे हैं जो उद्योगों में कार्यरत श्रमिकों एवं कर्मचारियों की वित्त सम्बंधी जरूरतों को पूरा करने का प्रयास करती हैं। इसी प्रकार देश में महिला सहकारी साख समितियां भी कार्यरत हैं। इनकी संख्या भी लगभग एक लाख है। मछली पालन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से मछली सहकारी साख समितियां भी स्थापित की गई हैं, इनकी संख्या कुछ कम है। ये समितियां मुख्यतः देश में समुद्र के आसपास के इलाकों में स्थापित की गई हैं। देश में बुनकर सहकारी साख समितियां भी गठित की गई हैं, इनकी संख्या भी लगभग 35,000 है। इसके अतिरिक्त हाउसिंग सहकारी समितियां भी कार्यरत हैं।  उक्तवर्णित विभिन क्षेत्रों में कार्यरत सहकारी समितियों के अतिरिक्त देश में सहकारी क्षेत्र में  तीन प्रकार के बैंक भी कार्यरत हैं। एक, प्राथमिक शहरी सहकारी बैंक जिनकी संख्या 1550 है और ये देश के लगभग सभी जिलों में कार्यरत हैं। दूसरे, 300 जिला सहकारी बैंक कार्यरत हैं एवं तीसरे, प्रत्येक राज्य में एपेक्स सहकारी बैंक भी बनाए गए हैं। उक्त समस्त आंकडें वर्ष 2021-22 तक के हैं।    इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि हमारे देश में सहकारी आंदोलन की जड़ें बहुत गहरी हैं। दुग्ध क्षेत्र में अमूल सहकारी समिती लगभग 70 वर्ष पूर्व प्रारम्भ हुई है, जिसे आज भी सहकारी क्षेत्र की सबसे बड़ी सफलता के रूप में गिना जाता है। सहकारी क्षेत्र में स्थापित की गई समितियों द्वारा रोजगार के कई नए अवसर निर्मित किए गए हैं। सहकारी क्षेत्र में एक विशेषता यह पाई जाती है कि इन समितियों में सामान्यतः निर्णय सभी सदस्यों द्वारा मिलकर लिए जाते हैं। सहकारी क्षेत्र देश के आर्थिक विकास में अपनी अहम भूमिका निभा सकता है। परंतु इस क्षेत्र में बहुत सारी चुनौतियां भी रही हैं। जैसे, सहकारी बैंकों की कार्य प्रणाली को दिशा देने एवं इनके कार्यों को प्रभावशाली तरीके से नियंत्रित करने के लिए अपेक्स स्तर पर कोई संस्थान नहीं है। जिस प्रकार अन्य बैकों पर भारतीय रिजर्व बैंक एवं अन्य वित्तीय संस्थानों का नियंत्रण रहता है ऐसा सहकारी क्षेत्र के बैकों पर नहीं है। इसीलिए सहकारी क्षेत्र के बैंकों की कार्य पद्धति पर हमेशा से ही आरोप लगते रहे हैं एवं कई तरह की धोखेबाजी की घटनाएं समय समय पर उजागर होती रही हैं। इसके विपरीत सरकारी क्षेत्र के बैंकों का प्रबंधन बहुत पेशेवर, अनुभवी एवं सक्रिय रहा है। ये बैंक जोखिम प्रबंधन की पेशेवर नीतियों पर चलते आए हैं जिसके कारण इन बैंकों की विकास यात्रा अनुकरणीय रही है। सहकारी क्षेत्र के बैंकों में पेशेवर प्रबंधन का अभाव रहा है एवं ये बैंक पूंजी बाजार से पूंजी जुटा पाने में भी सफल नहीं रहे हैं। अभी तक चूंकि सहकारी क्षेत्र के संस्थानों को नियंत्रित करने के लिए प्रभावी तंत्र का अभाव था केंद्र सरकार द्वारा किए गए नए मंत्रालय के गठन के बाद सहकारी क्षेत्र के संस्थानों को नियंत्रित करने में कसावट आएगी एवं इन संस्थानों का प्रबंधन भी पेशेवर बन जाएगा जिसके चलते इन संस्थानों की कार्य प्रणाली में भी निश्चित ही सुधार होगा। सहकारी क्षेत्र पर आधरित आर्थिक मोडेल के कई लाभ हैं तो कई प्रकार की चुनौतियां भी हैं। मुख्य चुनौतियां ग्रामीण इलाकों में कार्य कर रही जिला केंद्रीय सहकारी बैकों की शाखाओं के सामने हैं। इन बैंकों द्वारा ऋण प्रदान करने की स्कीम बहुत पुरानी हैं एवं समय के साथ इनमें परिवर्तन नहीं किया जा सका है। जबकि अब तो ग्रामीण क्षेत्रों में आय का स्वरूप ही बदल गया है। ग्रामीण इलाकों में अब केवल 35 प्रतिशत आय कृषि आधारित कार्य से होती है शेष 65 प्रतिशत आय गैर कृषि आधारित कार्यों से होती है। अतः ग्रामीण इलाकों में कार्य कर रहे इन बैकों को अब नए व्यवसाय माडल खड़े करने होंगे। अब केवल कृषि व्यवसाय आधारित ऋण प्रदान करने वाली योजनाओं से काम चलने वाला नहीं है।  भारत विश्व में सबसे अधिक दूध उत्पादन करने वाले देशों में शामिल हो गया है। अब हमें दूध के पावडर के आयात की जरूरत नहीं पड़ती है। परंतु दूध के उत्पादन के मामले में भारत के कुछ भाग ही, जैसे पश्चिमी भाग, सक्रिय भूमिका अदा कर रहे हैं। देश के उत्तरी भाग, मध्य भाग, उत्तर-पूर्व भाग में दुग्ध उत्पादन का कार्य संतोषजनक रूप से नहीं हो पा रहा है। जबकि ग्रामीण इलाकों में तो बहुत बड़ी जनसंख्या को डेयरी उद्योग से ही सबसे अधिक आय हो रही है। अतः देश के सभी भागों में डेयरी उद्योग को बढ़ावा दिए जाने की आवश्यकता है। केवल दुग्ध सहकारी समितियां स्थापित करने से इस क्षेत्र की समस्याओं का हल नहीं होगा। डेयरी उद्योग को अब पेशेवर बनाने का समय आ गया है। गाय एवं भैंस को चिकित्सा सुविधाएं एवं उनके लिए चारे की व्यवस्था करना, आदि समस्याओं का हल भी खोजा जाना चाहिए। साथ ही, ग्रामीण इलाकों में किसानों की आय को दुगुना करने के लिए सहकारी क्षेत्र में खाद्य प्रसंस्करण इकाईयों की स्थापना करनी होगी। इससे खाद्य सामग्री की बर्बादी को भी बचाया जा सकेगा। एक अनुमान के अनुसार देश में प्रति वर्ष लगभग 25 से 30 प्रतिशत फल एवं सब्जियों का उत्पादन उचित रख रखाव के अभाव में बर्बाद हो जाता है।    शहरी क्षेत्रों में गृह निर्माण सहकारी समितियों का गठन किया जाना भी अब समय की मांग बन गया है क्योंकि शहरी क्षेत्रों में मकानों के अभाव में बहुत बड़ी जनसंख्या झुग्गी झोपड़ियों में रहने को विवश है। अतः इन गृह निर्माण सहकारी समितियों द्वारा मकानों को बनाने के काम को गति दी जा सकती है। देश में आवश्यक वस्तुओं को उचित दामों पर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से कंजूमर सहकारी समितियों का भी अभाव है। पहिले इस तरह के संस्थानों द्वारा देश में अच्छा कार्य किया गया है। इससे मुद्रा स्फीति की समस्या को भी हल किया जा सकता है। देश में व्यापार एवं निर्माण कार्यों को आसान बनाने के उद्देश्य से “ईज आफ डूइंग बिजिनेस” के क्षेत्र में जो कार्य किया जा रहा है उसे सहकारी संस्थानों पर भी लागू किया जाना चाहिए ताकि इस क्षेत्र में भी काम करना आसान हो सके। सहकारी संस्थानों को पूंजी की कमी नहीं हो इस हेतु भी प्रयास किए जाने चाहिए। केवल ऋण के ऊपर अत्यधिक निर्भरता भी ठीक नहीं है। सहकारी क्षेत्र के संस्थान भी पूंजी बाजार से पूंजी जुटा सकें ऐसी व्यवस्था की जा सकती हैं।     विभिन्न राज्यों के सहकारी क्षेत्र में लागू किए गए कानून बहुत पुराने हैं। अब, आज के समय के अनुसार इन कानूनो में परिवर्तन करने का समय आ गया है। सहकारी क्षेत्र में पेशेवर लोगों की भी कमी है, पेशेवर लोग इस क्षेत्र में टिकते ही नहीं हैं। डेयरी क्षेत्र इसका एक जीता जागता प्रमाण है। केंद्र सरकार द्वारा सहकारी क्षेत्र में नए मंत्रालय का गठन के बाद यह आशा की जानी चाहिए के सहकारी क्षेत्र में भी पेशेवर लोग आकर्षित होने लगेंगे और इस क्षेत्र को सफल बनाने में अपना भरपूर योगदान दे सकेंगे। साथ ही, किन्हीं समस्याओं एवं कारणों के चलते जो सहकारी समितियां निष्क्रिय होकर बंद होने के कगार पर पहुंच गई हैं, उन्हें अब पुनः चालू हालत में लाया जा सकेगा। अमूल की तर्ज पर अन्य क्षेत्रों में भी सहकारी समितियों द्वारा सफलता की कहानियां लिखी जाएंगी ऐसी आशा की जा रही है। “सहकारिता से विकास” का मंत्र पूरे भारत में सफलता पूर्वक लागू होने से गरीब किसान और लघु व्यवसायी बड़ी संख्या में सशक्त हो जाएंगे। प्रहलाद सबनानी 

Read more »