स्वतंत्रता के 70 वर्षों के बाद भी हम अपने बालक बालिकाओं के लिए ऐसा कुछ उल्लेखनीय कर पाने में विफल रहे हैं जिस पर गर्व किया जा सके। इंडियन लेबर आर्गेनाइजेशन की रिपोर्ट बताती है कि देश में 1 करोड़ 30 लाख बाल श्रमिक हैं। इनमें से सत्तर प्रतिशत लड़कियाँ हैं। यह आंकड़े शर्मनाक और चौंकाने वाले हैं और यह भी दर्शाते हैं कि नारी को शोषण के लिए आसान शिकार मानने की हमारी मनोवृत्ति उसकी बाल्यावस्था पर भी रहम नहीं करती। बच्चे-बच्चियाँ हर उस जगह दिख जाएँगे जहाँ उन्हें अभी तो बिलकुल नहीं दिखना चाहिए-कॉटन सीड प्रोडक्शन में, माइनिंग की धुंध में, जरी और कढ़ाई की पेचीदगियों में या फिर जहरीली बारूदी गंध के बीच जख्मी उँगलियों से दियासलाई और पटाखे बनाते हुए। दमघोंटू कृत्रिम खुशबू में मुरझाते जिन्दा फूलों की तरह अपनी घायल उँगलियों से हमारी पूजा के लिए अगरबत्तियां बनाते भी अक्सर वे हमें दिख जाते हैं। कभी हम देश के इन बेशकीमती जीवित रत्नों को बेजान पत्थरों को तराशने में लगा पाते हैं। हम इन दृश्यों के आदी हो गए हैं। हम अब चौंकते तक नहीं, लज्जित होना तो दूर की बात है। ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स के आंकड़े बताते हैं कि भारत में एक करोड़ तिरासी लाख लोग गुलामों जैसा जीवन जीने को विवश हैं। इनमें से एक बड़ी संख्या बाल श्रमिकों की है। पीढ़ियों से चले आ रहे ऋण को चुकाने में असमर्थ कृषि मजदूरों की संतानें शैशव काल से ही बंधुआ मजदूरी के लिए अभिशप्त होती हैं। यूनिसेफ के अनुसार गरीबी और अशिक्षा बाल श्रम के लिए उत्तरदायी हैं। किन्तु इन भयानक समस्याओं के प्रति हमारी संवेदना धीरे धीरे कम होती जा रही है और इनकी चर्चा हमारे लिए अकादमिक आनंद की सृष्टि करने लगी है। अशिक्षा और गरीबी का गुरुत्व बल इतना अधिक होता है कि इनसे बाहर निकलना असम्भव होता है। अशिक्षित व्यक्ति बच्चों के मजदूरी करने को अपनी गरीबी समाप्त करने का एक उपाय मानता है और इस पर अमल करना उसके लिए अशिक्षा और गरीबी की अंतहीन अँधेरी सुरंग में प्रवेश करने जैसा सिद्ध होता है। अशिक्षा और अभाव की विरासत के बोझ तले दबे हुए वंचित समाज के बच्चों का बचपन छीनने के लिए बालश्रम की कुप्रथा आतुरता से प्रतीक्षा करती रहती है। बाल श्रम के नाना रूप हैं। महानगरों के किनारों पर विशालकाय स्लम एरिया की उपस्थिति आज महानगरों की पहचान की एक अनिवार्य विशेषता बन गई है। स्लम एरिया, विकास प्रक्रिया में गौण और उपेक्षणीय बना कर हाशिए पर धकेल दिए मनुष्य की शरणस्थली है। इसी के आसपास दानवाकार कचरे के पर्वतों में अपनी आजीविका की संजीवनी तलाशते नन्हें बच्चे हैं। इन्हें हम इस प्रकार देखते हैं जैसे ये कचरे की संतानें हैं। कभी कभी इन पर इस तरह क्रोधित हो जाते हैं जैसे ये कचरे की वंश वृद्धि के साक्ष्य हों। हो सकता है ये नशे के गुलाम हों, चोर हों, अपराधी हों लेकिन हैं तो बच्चे ही – हमारे देश की संतानें। पता नहीं इनके हाथ में भाग्य रेखा होती भी होगी या नहीं और इनमें से पता नहीं कितने युवावस्था तक बच पाते होंगे! स्वच्छता अभियान के इन अचर्चित बाल दूतों की भूमिका की सराहना करते हुए इन्हें स्वच्छता अभियान से औपचारिक रूप से जोड़कर समाज की मुख्य धारा में लाने के प्रयास तब होते जब इन्हें एक मनुष्य समझा जाता। बाल भिक्षा वृत्ति भी बालश्रम का एक घृणित स्वरुप है। अपने परिवारों से अपहृत कर लाए गए और जबरन विकलांग बना दिए गए बच्चे संगठित गिरोहों द्वारा भिक्षावृत्ति के लिए मजबूर किए जाते हैं। इन्हें देखकर हमारा सामंत जाग उठता है जो कभी भीख दे देता है तो कभी दुत्कार देता है। हर समस्या के समाधान के लिए कानून बनाने में हम बड़े प्रवीण हैं। चाइल्ड लेबर रेगुलेशन एंड प्रोहिबिशन एक्ट(1986),नेशनल पॉलिसी ऑन चाइल्ड लेबर(1987), जुवेनाइल जस्टिस(केअर एंड प्रोटेक्शन ऑफ़ चिल्ड्रन) एक्ट 2000 और 2006 का इसका संशोधन,राइट टू एजुकेशन एक्ट(2009),अमेंडेड चाइल्ड लेबर एक्ट(मई 2015 तथा 2016) आदि वे विधिक प्रावधान हैं जो बालश्रम उन्मूलन हेतु निर्मित किए गए हैं। इनमें से 2015 का संशोधन विवादित रहा क्योंकि इसने पारिवारिक मालकियत वाले अहानिकर प्रतिष्ठानों में बालश्रमिकों के कार्य करने को वैधानिकता दे दी। 2016 का संशोधन भी 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कुछ विशेष प्रकार के कार्य करने की अनुमति प्रदान करता था। जितने प्रवीण हम नए कानूनों के निर्माण में हैं उतने ही दक्ष हम इन कानूनों को भंग करने की युक्तियां ढूंढ़ने में हैं। अपने अधिकारों से अनभिज्ञ,16 से 18 घंटे बहुत कम मजदूरी पर कार्य करने वाले, डांट फटकार और मार से सहम जाने वाले बाल श्रमिकों की सेवाएं हमें बड़ी प्रिय हैं इसीलिए हम इन वैधानिक प्रावधानों का खुल कर उल्लंघन करते हैं।
यौन उत्पीड़न बच्चों की एक प्रमुख समस्या है। हमारे समाज में जब तक सेक्स को वर्जना का विषय बनाकर उसकी रहस्यमयता और महत्व को बढ़ाया जाता रहेगा तब तक ऐसी घटनाओं को रोका नहीं जा सकता। वयस्कों के यौन हमलों से बचने की तरकीबों का बच्चों को दिया जाने वाला प्रशिक्षण किसी मृग छौने को शेर से बचने के गुर बताने जैसा ही है। हमारा समाज यौन विकृतियों से सड़ रहा है। कौमार्य और रति सुख संबंधी हमारी पुरानी और कलुषित सोच बाल वेश्यावृत्ति के लिए उत्तरदायी रही है।
ऐसा नहीं है कि वे मध्यम और उच्च वर्गीय बच्चे जो अच्छी शिक्षा और पोषक आहार प्राप्त कर रहे हैं उनका जीवन सुखमय है। जिस अंतहीन आपाधापी और भागमभाग युक्त जीवन शैली को इन बच्चों के माता पिता ने अपनाया है उसी जीवन शैली में उनकी संतानों को ढालने के केंद्र आज के विद्यालय बन गए हैं। माता पिता अपनी नौकरी और व्यवसाय में मसरूफ हैं और बच्चे स्कूल, ट्यूशन, कोचिंग के टाइट शेड्यूल की गिरफ्त में हैं। कुछ चुनिंदा नौकरियों और व्यवसायों को प्राप्त करना सब की जिंदगी का मकसद बना दिया गया है। इस कारण गलाकाट प्रतिस्पर्धा की स्थिति बनी है। बच्चे को विनर और लूजर की भाषा में सोचने को बाध्य किया जा रहा है। किन्तु इस भाषा में खिलाड़ी भावना नहीं है। यहाँ विनर के लिए जन्नत है और लूजर के लिए मौत। पारस्परिक संवाद का सेतु भंग हो रहा है। बच्चों की रचनात्मक गतिविधियों और हॉबीज़ के लिए भी पेशेवर संस्थान उपलब्ध हैं जो इन्हें म्यूजिक,डांस,राइटिंग,ड्राइंग आदि की जानकारी दे रहे हैं। इन संस्थानों की कार्यप्रणाली कुछ इस तरह की है कि ये बच्चों की उड़ान को नई ऊँचाइयाँ और विस्तार देने के बजाए इसे सीमित,संक्षिप्त और वस्तुनिष्ठ बनाने का कार्य कर रहे हैं। ये एक तरह से हॉबीज़ का, कल्पना का,रचनात्मकता का यंत्रीकरण करने के केंद्र हैं। मनुष्य को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने की कला ही मैनेजमेंट है जिसे चन्द मनोवैज्ञनिक फॉर्मूलों का प्रयोग करते हुए सिखाने की चेष्टा आधुनिक मैनेजमेंट गुरु कर रहे हैं। जिन अर्थ आधारित उपभोगवादी मूल्यों को हमने अपनाया है उनमें बच्चों के बचपने के लिए कोई स्थान नहीं है और यह समय की बर्बादी के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। बच्चे को सिखाया जा रहा है कि वह कुशल मैनेजर कैसे बने। उसे अपने फायदे के लिए सबको मैनेज करना है -समय को, ज्ञान को, संबंधों को, रिश्तों को,भावनाओं को। यह आधुनिक युग की गीता का ज्ञान है। इस प्रकार की प्रोग्रामिंग से जो बच्चा गढ़ा जा रहा है वह स्मार्ट, सिंसियर और प्रैक्टिकल दिखाई तो देता है लेकिन समस्या दो प्रकार से उत्पन्न होती है- प्रोग्रामिंग में गड़बड़ी के कारण और ऐसी परिस्थितियों के कारण जो प्रोग्रामिंग का हिस्सा नहीं है। जब बच्चा असफल होता है। उसे पता चलता है कि वह लूजर है तो वह अपने लिए खुद सजा ए मौत मुकर्रर कर लेता है। उसकी प्रोग्रामिंग उसे यह नहीं बताती कि असफलता अंत नहीं अवसर है। कई बार ऐसा भी होता है कि विनर बनने की जल्दीबाजी में वह छल,कपट,हिंसा और हत्या की ओर अग्रसर हो जाता है। अनेक बार जब सच्ची दोस्ती या सच्चे प्यार से उसका सामना होता है, जिसका मुकाबला करने के लिए उसे प्रोग्राम नहीं किया गया है तो उसकी अपरिपक्वता उजागर हो जाती है। यदि वह बच्चा माता-पिता, भाई-बहनों और अन्य परिवारजनों के साथ सघन भावनात्मक रिश्तों का अनुभव प्राप्त कर चुका होता तो ऐसी भावनात्मक समस्याओं का बेहतर समाधान सोच सकता था किंतु हमने उसे प्रोग्रामिंग पर ही इस कदर निर्भर बना दिया है कि उसका भावनात्मक विकास संतुलित रूप से हो नहीं पाता है। हमने बच्चों के जीवन को युद्धों से भर दिया है। पढ़ाई तो उनके लिए युद्ध बन ही गई थी, खेल भी अब युद्ध का रूप ले रहे हैं जिनमें सफलता और सर्वोच्चता को हमने अनिवार्य बना दिया है। इस कारण से खेलों से हार कर भी जीतने वाली खिलाड़ी भावना समाप्त हो रही है। बच्चों के लिए खेल अब मनोरंजन और मानसिक विश्राम के साधन नहीं रहे। हमने बालक को वास्तविक जगत से मिलने वाली भावनात्मक परितुष्टि और मनोरंजन से वंचित कर दिया है। यही कारण है कि वह बहिर्मुख होने के अवसर उपलब्ध होते हुए भी अंतर्मुख होता जा रहा है और सहज प्राप्य आभासी जगत में प्रवेश करता जा रहा है। वह आभासी जगत के खेलों में रूचि लेने लगता है। इन खेलों में रोमांच है तो हिंसा भी है। आभासी दुनिया के खेलों में हिंसा पुरस्कृत और रोमांचित करती है। लेकिन जब ब्लू व्हेल जैसे गेम इस हिंसा को यथार्थ जगत में क्रियान्वित कराते हैं तो यह आत्मघाती सिद्ध होती है। आभासी दुनिया के अन्य युद्ध आधारित खेल भी अवचेतन पर प्रभाव डालकर हिंसा की वृत्ति को प्रोत्साहित करते हैं। गूगल ने ज्ञान पर व्यक्ति संस्था और सत्ता के आधिपत्य को तोड़ा है। हर तरह की जानकारी बच्चों के पास उपलब्ध है किंतु इस जानकारी का उपयोग किस तरह करना है यह विवेक उनके पास नहीं है। इस कारण यह अनसेंसरड ज्ञान उनके लिए लाभ से ज्यादा हानिप्रद हो सकता है।
यदि उपभोग और उपयोगिता की भाषा में बात करें तो आज के बच्चे किसी आधुनिक पाक कला गुरु की फटाफट रेसेपी की तरह होते जा रहे हैं जिसके स्वाद का मुकाबला स्नेह,लगन, अपनापे और तसल्ली से बने माँ के हाथ के खाने से नहीं किया जा सकता। किन्तु उपभोग और उपयोगिता की यह भाषा लुभावनी के साथ साथ अमानवीय और खतरनाक भी है। बच्चे अपने भोलेपन और मासूमियत के कारण ईश्वर का रूप कहलाते हैं और उनके इन गुणों की रक्षा में ही बाल कल्याण की सारी योजनाओं की सफलता का रहस्य छिपा है। हमें चाहिए कि कम से कम बच्चों के साथ वह व्यवहार न करें जो हम ईश्वर के साथ कर रहे हैं।
डॉ राजू पाण्डेय