कंबोडिया-थाईलैंड के बीच तनाव से चीन को होगा फायदा


राजेश जैन

दक्षिण-पूर्व एशिया एक बार फिर अशांत है। कंबोडिया और थाईलैंड खतरनाक सीमा संघर्ष में उलझ गए हैं। अब तक 27 लोगों की मौत हो चुकी है और हजारों को अपने घर छोड़ने पड़े हैं।
इस बार भी विवाद की जड़ वही पुरानी है—प्रीह विहेयर मंदिर। हजारों साल पुराना यह मंदिर खमेर साम्राज्य की धरोहर है लेकिन इस पर मालिकाना दावा थाईलैंड और कंबोडिया दोनों करते हैं। 1962 में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने इसे कंबोडिया का हिस्सा माना था पर थाईलैंड ने यह फैसला पूरी तरह स्वीकार नहीं किया।

वैसे भी 817 किलोमीटर लंबी थाई-कंबोडिया सीमा पर दशकों से विवाद चला आ रहा है। इसकी जड़ें फ्रांसीसी औपनिवेशिक काल के नक्शों में हैं। 1907 में बने नक्शों को थाईलैंड अब भी विवादित मानता है। कंबोडिया का कहना है कि प्रीह विहेयर और ता मुएन थोम जैसे ऐतिहासिक मंदिर उसके क्षेत्र में आते हैं, वहीं थाईलैंड इन्हें अपनी सांस्कृतिक विरासत मानता है।

2008 से 2011 के बीच इसी विवाद पर हुई झड़पों में 34 लोगों की मौत हो गई थी। 2025 की चिंगारी तब भड़की जब एक कंबोडियाई सैनिक की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। 24 जुलाई को हालात और बिगड़ गए जब ता मुएन थोम मंदिर के पास भारी गोलीबारी और हवाई हमले हुए।

थाईलैंड का आरोप है कि कंबोडिया ने बीएम-21 रॉकेट लॉन्चर से पहले हमला किया। वहीं कंबोडिया का दावा है कि थाई सैनिकों ने बिना उकसावे के आक्रामकता दिखाई और हवाई हमले किए। फिलहाल थाईलैंड ने सीमाएं सील कर दी हैं और कंबोडिया ने भी थाईलैंड से आने वाले आयात—जैसे फल, सब्ज़ियां, गैस और फिल्मों—पर रोक लगा दी है।

चीन को मिलेगा यह फायदा

कंबोडिया पहले से ही चीन के प्रभाव में है। पूर्व प्रधानमंत्री हुन सेन और वर्तमान प्रधानमंत्री हुन मानेट दोनों को चीन का भरोसेमंद साथी माना जाता है। यही वजह है कि चीन इस पूरे घटनाक्रम में शांत तो है पर उसकी मौजूदगी हर स्तर पर महसूस की जा सकती है।

दक्षिण कंबोडिया में चीन द्वारा विकसित किया गया रीम नौसैनिक अड्डा अमेरिका और भारत जैसे देशों के लिए चिंता का विषय है। माना जाता है कि ऐसे ठिकाने दक्षिण चीन सागर से लेकर हिंद महासागर तक चीन की सामरिक पहुंच बढ़ा सकते हैं।

थाईलैंड लंबे समय से अमेरिका का रणनीतिक साझेदार रहा है और कोबरा गोल्ड जैसे संयुक्त सैन्य अभ्यासों में अमेरिका के साथ बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता है। लेकिन बीते वर्षों में चीन से उसके आर्थिक और सैन्य रिश्ते भी गहरे हुए हैं।

अगर चीन इस टकराव में मध्यस्थ बनता है तो वह अमेरिका के प्रभाव को तो काफी हद तक कम कर ही सकता है, साथ ही दोनों देशों के साथ व्यापार और निवेश को भी अपनी शर्तों पर आगे बढ़ा सकता है।

भारत की चिंताएं और कूटनीतिक चुनौती

भारत के लिए यह संघर्ष कई वजहों से चिंता का कारण है। थाईलैंड ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ का मुख्य प्रवेश द्वार है जबकि कंबोडिया ‘मेकोंग-गंगा सहयोग’ में एक अहम साझेदार।

भारत ने दोनों देशों में डिजिटल कनेक्टिविटी, सांस्कृतिक परियोजनाओं और रणनीतिक संवादों पर काम किया है। लेकिन अगर दोनों देशों के बीच यह तनाव लंबा चलता है, तो भारत की कूटनीतिक स्थिति अस्थिर हो सकती है।

भारत को संतुलन साधना होगा—दोनों पक्षों से संबंध बनाए रखते हुए अपने हितों की रक्षा करनी होगी। भारत को चाहिए कि वह आसियान के साथ संवाद और सहयोग को और मजबूत करे। मेकोंग-गंगा सहयोग के तहत थाईलैंड और कंबोडिया दोनों में सांस्कृतिक और विकास परियोजनाओं को गति दे।

क्षेत्रीय मंचों का उपयोग करके सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था पर संवाद बढ़ाना भारत की प्राथमिकता होनी चाहिए। साथ ही भारत को स्पष्ट संदेश देना चाहिए कि क्षेत्रीय स्थिरता में उसका सीधा हित है और वह किसी भी बाहरी दबाव के खिलाफ अपने साझेदारों के साथ खड़ा रहेगा।

अमेरिकाभारत और संयुक्त राष्ट्र की नजर

कंबोडिया ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से आपात बैठक की मांग की है और मामला फिर से अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में ले जाने की तैयारी कर रहा है। लेकिन थाईलैंड ने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के अधिकार को नकारते हुए सिर्फ द्विपक्षीय बातचीत पर जोर दिया है। इसके लिए उसने पहले युद्धविराम की शर्त रखी है।

इस तनाव को सुलझाने के लिए अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता की भूमिका अहम हो सकती है। अगर चीन इस संघर्ष में ‘शांति-निर्माता’ बनकर उभरता है, तो वह दक्षिण-पूर्व एशिया में अमेरिका की साख को और कमजोर करेगा और भारत की रणनीतिक स्थिति पर भी असर डालेगा।

राजेश जैन

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress