विश्ववार्ता

चीन को देना होगा उसी की भाषा में जवाब

-डॉ0 कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

किसी भी देश की सरकार का पहला कर्तव्य देश की सीमाओं की रक्षा करना होता है। असुरक्षित सीमाओं के भीतर कोई देश आर्थिक क्षेत्र में, संस्कृति और कला के क्षेत्र में, वाण्ज्यि और व्यापार के क्षेत्र में जितनी चाहे उन्नति कर ले। वह उन्नति सदा अस्थाई रहती है क्योंकि असुरक्षित सीमाओं को भेद कर शत्रु कभी भी देश के भीतर आ सकता है और इस तथाकथित उन्नति को पलक झपकते ही मिटटी में मिला सकता है। महाभारत में इसे एक और तरीके से कहा गया है। उसके अनुसार सीमाएं राष्ट्रमाता के वस्त्र होते हैं और सीमाओं का अतिक्रमण मां के चीर हरण के समान होता है। भारत को सीमा रक्षा के मामले में जागृत रहना और भी आवश्यक है क्योंकि यह उत्तर पूर्व से लेकर उत्तर पश्चिम तक शत्रु देशों से घिरा हुआ है। चीन और पकिस्तान दोनों ने भारत के खिलाफ हाथ मिला लिए हैं। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि चीन ने पाकिस्तान का प्रयोग भारत के खिलाफ हथियार के तौर पर करना शुरू कर दिया है। पाकिस्तान का निमार्ण ही एक बड़ी रणनीति के तहत भारत के शत्रु देश के तौर पर किया गया था। इस लिए वह अपने जन्म से ही भारत के प्रति अपना शत्रु धर्म निभा रहा है। परन्तु छोटा और कमजोर होने के कारण भारत का कुछ बिगाड़ नही पाता था। चीन ने भारत के संदर्भ में पाकिस्तान की इस ताकत और कमजोरी को ठीक ढंग से पहचान लिया और उसका प्रयोग भारत के खिलाफ करना शुरू कर दिया। पाकिस्तान भी चीन की हथेली पर बैठ कर अपनी इस नई भूमिका से संतुष्ट है। क्योंकि उसका मकसद भारत पर चोट करना है। यह चोट अमेरिका की हथेली पर बैठ कर होती है या फिर चीन की हथेली पर बैठ कर, उसे इससे कोई फर्क नही पडता।

19वीं और 20वीं शताब्दी में ब्रिटिश सम्राज्यवाद अपने भारतीय सामा्रज्य की रक्षा के लिए अतिरिक्त चौक्कना था। उसे लगता था कि रूस, तिब्बत और अफगानिस्तान में घुसकर भारत के सीमांत तक आना चाहता है। अंग्रेजी कूटनीति ने इसे ग्रेट गेम का नाम दिया अर्थात शिकारी रूस है और वह तिब्बत और अफगानिस्तान में घुस कर भारत का शिकार करना चाहता है। अंग्रेजों ने रूस की इस तथा कथित गेम को असफल बना दिया फिर चाहे उन्हें तिब्बत पर चीन के अधिराज्य का काल्पनिक सिद्वान्त भी गढ़ना पड़ा। 20वीें शताब्दी के मघ्य में भारत में ब्रिटिश सम्राज्य का अंत हुआ तो ऐसा आभास होने लगा था कि ग्रेट गेम के युग का भी अंत हो गया है। लेकिन दुर्भाग्य से ग्रेट गेम के युग का अंत नही हुआ था, केवल शिकारी बदला था। भारत इस नए उभर रहे शिकारी को या तो देख नही पाया या फिर देख कर भी अनजान बनता रहा। अब शिकारी रूस की जगह चीन था। जिस ग्रेट गेम अभियान को ब्रिटिश कूटनीति ने असफल कर दिया था वह इस बार भारतीय कूटनीति की असफलता के कारण सफल होता दिखाई दे रहा है। चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया है। पाकिस्तान ने व्यवहारिक रूप से गिलगित और वाल्तीस्तान चीन के हवाले कर दिये हैं और जो खबरें वहां से छन-छन कर आ रही हैं उनके अनुसार वहां हजारों की संख्या में चीनी सैनिक आ पहुंचे हैं। अफगानिस्तान में भी चीन सरकार पूरा प्रयास कर रही है कि वहां से अनेक क्षेत्रों से भारतीय भागीदारी को समाप्त करके चीनी भागीदारी को सुनिश्चित किया जाए।

इस प्रकार के वातावरण में चीन भारत पर धौंस जमाने और उसे धमकाने की भूमिका में उतर आया है। वह अरूणाचल प्रदेश पर अपना दावा तो लम्बे समय से करता आ रहा है लेकिन अब उसने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अरूणाचल प्रदेश के दौरे पर भी बकायदा आपत्तियां दर्ज करवानी शुरू कर दी हैं। उसका तर्क है कि विवादास्पद क्षेत्र में भारत के प्रधानमंत्री को जाने का कोई अधिकार नही है। अरूणाचल प्रदेश के लोगों को चीन वीजा नही देता। उसका तर्क है कि ये लोग तो चीन के ही नागरिक हैं। इनको वीजा लेने की जरूरत नहीं है। जम्मू कश्मीर के लोगों को भी अब उसने भारतीय पासपोर्ट की बजाय कागज के टुकडे़ पर वीजा देना शुरू कर दिया है। उसका तर्क है कि जम्मू कश्मीर विवादित क्षेत्र है इस लिए यहां के नागरिकों को भारतीय नागरिक कैसे माना जा सकता है। पिछले दिनों तो उसने कश्मीर में तैनात एक भारतीय सेनिक अधिकरी को भी वीजा देने से इन्कार कर दिया था। इस पर तर्क और भी विचित्र था कि यह अधिकरी विवादित संवेदनशील क्षेत्र में तैनात है।

लेकिन इस उभर रहे नए ग्रेट गेम अभियान का सामाना करने के लिए भारत सरकार की रणनीति क्या है ? वैश्वीकरण के इस तथाकथित युग में भारत और चीन के बीच पिछले कुछ दशकों से व्यापार के क्षेत्र में वृ़िद्व हुई है। भारत की अनेक कम्पनियों के हित चीन में निवेश की गई अपनी पूजीं में जुड़ गए हैं। ऐसी एक सशक्त लॉबी दिल्ली में पन्नप रही है। इसका मानना है कि भारत और चीन के बीच सीमा और सुरक्षा को लेकर इस प्रकार के छोटे मोटे मसलों को ज्यादा तूल नही दिया जाना चाहिए। दोनों देशों का हित इसी में है कि सीमा शांत रहे और आपसी व्यापार में वृद्वि हो। यह लॉबी चीन के व्यवहार और नीति को तो बदल नही सकती। इसका यह मानना है कि चीन शुरू से ही उददंड रहा है। इसलिए भारत को ही सहनशीलता सीखनी होगी। भारत को सीमा सुरक्षा के मामले को इतना तूल नही देना चाहिए अन्यथा व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव पडेगा। अपने सुभीते के लिए खडे किये गए थिंक टैंकों के माध्यम से अब यह भी कहा जाने लगा है कि सीमा पर कुछ ले देकर समझौता कर लेना चाहिए। जाहिर है चीन अपनी तथाकथित ताकत और इस लॉबी के सहयोग से भारत को डरा कर अपना उल्लू सीधा कारना चाहता है और भारत को घेर कर इस क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। भारत सरकार को भी अपनी परम्परागत यूरोपोन्मुखी विदेश नीति के साथ एशिया और खास करके दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ अपने सम्बन्धों का विस्तार करना चाहिए। दक्षिण पूर्व एशिया के अधिकांश देशों की सीमा चीन से लगती है। चीन इन देशों को केवल धमकाता ही नहीं है बल्कि समय असमय उन पर सीमित आक्रमण भी करता है। वियतनाम उसकी इस दादागीरी को झेल चुका है और कम्बोडिया ने तो चीन के इन प्रयोगों की कीमत लाखों मौतों में चुकायी है। कोरिया के विभाजन में चीन का ही हाथ है। ये सभी देश चीन की इस दादागीरी का जवाब देना चाहते हैं लेकिन वे किस के बलबूते पर ऐसा करें।भारत को चीन की कूटनीति का उत्तर उसी की भाषा में देना होगा। वाजपयी के शासन काल में इसकी शुरूआत हुई थी। अब भारत की राष्ट्र्पति लाओस और कम्बोडिया की यात्रा करके आई हैं और इन दोनों देशों के साथ कुछ समझौतों पर भी हस्ताक्षर हुए है। चीन के खतरे का सामना बिल में घुस कर नहीं किया जा सकता। इसका जवाब उसी की भाषा में देना होगा।