चीनी साम्राज्यवाद का विस्तार अब श्रीलंका तक बताया जा रहा है। खबर है कि चीन अपने गुप्तचरों की सहायता से श्रीलंका में अच्छा-खासा प्रभाव जमा लिया है। विगत दिनों जब भारत के गृहमंत्री पी0 चिदंबरम ने श्रीलंकायी तमिल उग्रवादियों को चीनी सहयोग का खुलासा किया तो लोग आश्चर्य व्यक्त करने लगे, लेकिन अब इस तथ्य की सत्यता का खुलासा ब्रीतानी अखबार संडे टाइम्स ने भी कर दिया है। उक्त अखबार के अनुसार श्रीलंका में तमिल विद्रोहियों को संगठित करने का काम अब चीन समर्थित जनवादी मुक्ति सेना करेगा। अखबार के अनुसार इन साम्यवादी गुरिल्लों का संबंध भारत के चरम साम्यवादी संगठनों के साथ भी है। अखबार ने यह भी खुलासा किया है कि उक्त श्रीलंकायी चरमपंथी गुट ने यह कबूल किया है कि दुनिया के कई देशों में सक्रिय साम्यवादी चरमपंथी उसे सहयोग कर रहे हैं। हालांकि श्रीलंकायी चरमपंथियों ने चीन की चर्चा तो नहीं की है लेकिन नेपाल के माओवादी संगठन, भारत के चरम साम्यवादी आतंकी, फलस्तीन तथा क्यूबा के साथ उसने अपना संबंध स्वीकारा है। ऐसे में चीन के साथ श्रीलंकायी चरमपंथी गुट के संबंध को नकारा नहीं जा सकता है।
चीनी रणनीति के जानकारों का मानना है कि चीन भारत की घेरेबंदी में लगा है। वह बांग्लादेश में सक्रिय भारत विरोधी चरमपंथियों को भारत के खिलाफ उकसा रहा है। नेपाल में माओवादी संगठन को प्रत्यक्ष रूप से नैतिक और परोक्ष रूप से सभी प्रकार का सहयोग दे रहा है। पाकिस्तान के साथ चीन का सैन्य समझौता जगजाहिर है। भारत में माओवादियों के पास से जो हथियार और क्षद्म लडाई में प्रयुक्त होने वाले साजोसामान बरामद हो रहे हैं वह चीन का बना होता है। यही नहीं कई साम्यवादी आतंकियों ने यह भी कबूल किया है कि उसके संगठन को चीन का नैतिक समर्थन प्रप्त है। ऐसी परिस्थिति में चीन का श्रीलंकायी अलगाववादी गुटों के माध्यम से हिन्दमहासागर में गुपचुप हस्तक्षेप न केवल भारत के लिए अपितु हिन्दमहासार के सामरिक संतुलन के लिए भी खतरना है। चीन अच्छी तरह जानता है कि पूरे पूरी भारत के साथ प्रत्यक्ष संघर्ष अब उसे महगा पडेगा। यही नहीं चीन भारत के अन्तरद्वंद्व को भी समझ रहा है। चीन को इस बात का एहसास हो गया है कि भारत का पूर्वी हिस्सा असंतोष में जी रहा है। चीनी जासूस इस असंतोष को भुनाकर भारत में साम्यवादी चीन समर्थित गणतंत्र बनाने के फिराक में है। इधर के दिनों में भारत के अंदर जिस परिस्थिति का निर्माण हुआ है उससे भी चीन का काम आसान हो गया है। खासकर बिहार, झारखंड, उडीसा और छत्तीसगढ को अलगाववाद विहीन माना जाता था लेकिन मुम्बई, दिल्ली और अन्य पश्चिमी प्रांतों में बिहारियों के खिलाफ अभियान ने बिहार तथा झारखंड में भी एक नये प्रकार के अलगाववाद को जन्म दिया है। अब बिहारी अवाम तथा प्रबुधजनों का दिल्ली से मोह भंग होने लगा है। हालांकि अभी उस हद तक यह मामला नहीं पहुंचा है लेकिन लुत्ती को धिधोरा बनने में समय नहीं लगता है। चीन नेपाल के रास्ते बिहार पर अपनी पकड मजबूत बनाने के प्रयास में है। माओवादी रोडमैंप का अध्धयन करने से पता चलता है कि माओआदी पूरा नहीं तो रत्नगर्भा कहे जाने वाले पूर्वी भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के फिराक में है। माओवादी चरम्पंथी अपनी योजना को साकार करने के लिए पूर्वी भारत में सक्रिय तमाम अलगाववादी संगठनों को अपनी छतरी के नीचे लाने की योजना पर काम कर रहें हैं। इस योजना में माओवादियों को न केवल चीन का समर्थन अपितु कुछ प्रभावशाली आद्योगिक घरानों और भारत में सक्रिय ईसाई मिशनरियों का भी सहयोग मिल रहा है। दुनिया के बडे व्यापारियों की नजर पूर्वी भारत के अपार खनिज एवं वन संपदा पर है। भविष्य के उर्जा के साधन परमाणु उर्जा के लिए उपयोग में लाये जाने वाले खनिज युरेनियम और प्लूटोनियम भी इस क्षेत्र में प्रचूर मात्रा में है। माओवाद के माध्यम से अगर इस भूभाग पर चीन का कब्जा होता है तो दूनिया के व्यापारियों के लिए पूर्वी भारत के खनिजों का विदोहन आसान हो जाएगा। फिर इस क्षेत्र में मानव श्रम का भी अभाव नहीं है। कुशल मानव श्रम, खनिज और वन संपदा की प्रचुरता, शोषण और आसंतोष, केन्द्रीय नेतृत्व का कमजोर होना आदि परिस्थितियों का लाभ उठाकर चीन समर्थित माओवादी पूर्वी भारत में बहुत हद तक सफल हो चुके हैं। अब जब श्रीलंकायी अलगाववादी भी उनके साथ हो गये हैं तो भारतीय सुरक्षा बल को माओवादियों से निवटना और कठिन हो जाएगा।
चीनी जासूसों के कई ऑप्रेशन सफल हो चुके हैं। नेपाल को चीन ने अपने पक्ष में किस प्रकार किया यह सबके सामने हैं। यही नहीं जो पाकिस्तान भारत पर चीनी आक्रमण का विरोध किया था आज वही पाकिस्तान चीन के साथ भारत के खिलाफ षडयंत्र में संलिप्त है। इधर के दिनों मे भारत के अंदर एक नये किस्म के उपराष्ट्रवाद का उदय हुआ है। जो देश के अंदर भाषा, क्षेत्र आदि विषयों के लिए लगातार अन्तरद्वंद्व पैदा कर रहा है। इस भाव ने चीनी षडयंत्र को और बल प्रदान किया है। भारत ने मुस्लिम आंतकवाद और सिख अलगाववाद पर लगभग नियंत्रण कर लिया है लेकिन महाराष्ट्र में तथा अन्य अहिंदी भाषी राज्यों में जिस प्रकार पूरब के लोगों को अपमानित और प्रताडित किया जा रहा है उससे खासकर बिहार, पूर्व उत्तरप्रदेश, झारखण्ड आदि मानवश्रम एवं बौद्विक दृष्टि से मजबूत प्रान्तों में दिल्ली के प्रति नफरत का भाव उत्पन्न होने लगा है जिसे रोका जाना जरूरी है अन्यथा आने वाले मात्र 10 साल के अंदर चीन समर्थक माओवादी भारत को विभाजित कर लेने में सफल हो लाऐगें । माओवादियों को सामान्य आंतकवादियों की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। वे राजनीतिक ढंग से प्रशिक्षित होते है तथा कुशल संगठन कत्ता होते है। जिस प्रकार नेपाल तथा भारतीय माओवादियों ने अपने सिध्दांत और संगठन के स्वरूप में परिवर्तन किया है उससे यह साबित होता है कि माओवादियों की लडाई केवल स्थानीय स्तर की नहीं है। माओवादी नेपाल से लेकर श्रीलंका तक एक बडी योजना पर काम कर रह हैं। माओवादी संगठनों के स्वरूप को देखकर इस अनुमान को भी बल मिलने लगा है कि माओवादियों को चीन के आलवा अन्य कई शक्तियों से सहयोग मिल रहा है। गृहमंत्री यह स्वीकार चुके हैं कि माओवादियों का सालाना बजट कई हजार करोड रूपये का है। ऐसे में बिना किसी संगठित व्यापारिक समूह के सहयोग के इतनी बडी रकम एकत्र करना मुमकिन नहीं है । इस बीच तमिल विद्रोहियों का चीनी खेमे में जाना भी भारत के लिए अशुभ है। तमिल विद्रोही न केवल संगठित हैं अपितु वे खतरनाक और खुखार भी है। फिर वे क्षद्म लडाई में दुनिया के सबसे सिध्दस्त लडाका माने जाते हैं। यही नहीं दुनियाभर में फैले तमिल व्यापारियों से संगठन को पैसा भी प्राप्त होगा। अब जब यह स्पष्ट हो गया है कि माओवादी चीन के सहयोग से श्रीलंका तक अपने संगठन का विस्तार कर चुके हैं तो भारत सरकार को भी हाथ पर हाथ रख बैठे नहीं रहना चाहिए । भारतीय उपमहाद्वीप को विभाजन से बचाना है तो देश में उठ रहे उपराष्ट्रवाद पर नियंत्रण करना होगा फिर पूर्वी भारत में विकास को नया आयाम देना होगा। इसके बाद माओवादी चरंपथियों को सहयोग करने वाली शक्तियों को चिन्हित कर उसके खिनाफ मुकम्मल कार्यवाई, करनी होगी अन्यथा भारत को विभाजन से कोई रोक नही सकता हैं।
-गौतम चौधरी