संदर्भः- उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने की चरखा बांटने की शुरूआत
प्रमोद भार्गव
तकनीक के युग में तकनीकी षिक्षा प्राप्त कोई मुख्यमंत्री यदि कंप्युटर और लैपटॉप बांटते-बांटते चरखा बांटने लग जाए तो हैरानी होना स्वाभाविक है। लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने गरीबों को चरखे बांटकर ऐसा ही किया है। खादी संवर्द्धन कार्यक्रम के तहत बांदा और झांसी की 75 महिलाओं को चरखे दिए गए हैं। इस मौके पर अखिलेश ने कहा कि ‘प्रदेश भर में गरीबों को चरखे बांटने की पहल होगी। सरकार ने जिस तरह से लैपटॉप बांटकर ज्ञान का संसार बढ़ाया है, उसी तर्ज पर चरखे बांटकर रोजगार के अवसर बढ़ाएं जाएंगे। साथ ही खादी का आधुनिकीकरण भी किया जाएगा, जिससे धुलाई के बाद वस्त्र ओछे न हों।‘ खादी को बाजार के हिसाब से बदलने की जरूरत भी मुख्यमंत्री ने जताई है।
गांधी ने केंद्रिय उद्योग समूहों के विरूद्ध चरखे को बीच में रखकर लोगो के लिए उत्पादन की जगह, उत्पादन लोगो द्वारा हो का आंदोलन चलाया था। जिससे एक बढ़ी आबादी वाले देश में बहुसंख्यक लोग रोजगार से जुड़ें और बड़े उद्योगों का विस्तार सीमित रहे। इस दृष्टिकोण के पीछे महात्मा का उद्देश्य यांत्रिकीकरण से मानव मात्र को छुटकारा दिलाकर उसे सीधे स्वरोजगार से जोड़ना था। क्योंकि दूरदृष्टा गांधी की अंर्तदुष्टि ने तभी अनुमान लगा लिया था कि औद्योगिक उत्पादन और प्रौद्योगिकी विस्तार में सृष्टि के विनाश के कारण अंतनिर्हित हैं। आज दुनिया के वैज्ञानिक अपने प्रयोगों से जल, थल और नभ को एक साथ दूषित कर देने के कारणों में यही कारण गिनाते हुए, प्रलय की ओर कदम बढ़ा रहे इंसान को औद्योगीकरण घटाने के लिए पुरजोरी से आगह कर रहे है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के स्पष्ट संकेतों के बावजूद इंसान की मानसिकता फिलहाल गलतियां सुधारने के लिए तैयार नहीं है।
गांधी गरीब की गरीबी से कटु यर्थाथ के रूप में परिचित थे। इस निवर्सन गरीबी से उनका साक्षात्कार उड़ीसा के एक गांव में हुआ। यहां एक बूढ़़ी औरत ने गांधी से मुलाकात की थी। जिसके पैंबद लगे वस्त्र बेहद मैले-कुचेले थे। गांधी ने शायद साफ-सफाई के प्रति लापरवाही बरतना महिला की आदत समझी। इसलिए उसे हिदायत देते हुए बोले, ‘अम्मां क्यों नहीं, कपड़ों को धो लेती हो ?’ बुढ़िया बेवाकी से बोली, ‘बेटा जब बदलने को दूसरे कपड़े हों, तब न धोकर पहनूं।’ महात्मा आपादमस्तक सन्न व निरूत्तर रह गए। इस घटना से उनके अंर्तमन में गरीब की दिगंबर देह को वस्त्र से ढंकने के उपाय के रूप में चरखा का विचार कौंधा। साथ ही उन्होंने स्वयं एक वस्त्र पहनने व ओढ़ने का संकल्प लिया। देखते-देखते उन्होंने वस्त्र के स्वावलंबन’ का एक पूरा आंदोलन ही खड़ा कर दिया। लोगों को तकली-चरखे से सूत कातने को उत्प्रेरित किया। सुखद परिणामों के चलते चरखा स्वनिर्मित वस्त्रों से देह ढकने का एक कारगर अस्त्र ही बन गया। आज चरखे के इस बुनियादी महत्व को कमोवेश नजरअंदाज कर दिया गया है।
पिछले दो-ढाई दशक के भीतर उद्योगों की स्थापना के सिलसिले में हमारी जो नीतियां सामने आई हैं उनमें अकुशल मानव श्रम की उपेक्षा उसी तर्ज पर अंतर्निहित है, जिस तर्ज पर अठारहवीं सदी में अंग्रेजों ने ब्रिटेन में मशीनों से निर्मित कपड़े बेचने के लिए ढाका और मुर्शिदाबाद के जुलाहों के अंगूठे कटवा दिए थे। आज स्वतंत्र भारत में पूंजीवादी अभियान के चलते रिलांयस फ्रेस और वालमार्ट के हित साधन को दृष्टिगत रखते हुए खुदरा व्यापार से मानवश्रम को बेदखल किया जा रहा है, वहीं सेज और एक्सप्रेस हाइवे के लिए कृषि भूमि हथियाकर किसानों को खेती से खदेड़ देने की मुहिमें चल रही हैं। जबकि होना यह चाहिए था कि हम अपने देश के समग्र कुशल-अकुशल मानव समुदायों के हित साधनों के दृष्टिकोण सामने लाएं। हमारी अर्थव्यवस्था गांधी की सोच वाली आर्थिक प्रक्रिया की स्थापना और विस्तार में न मनुष्य के हितों पर कुठाराघात होता हैं और न ही प्राकृतिक संपदा के हितों के सरोकार पूंजीवादियों के हितों पर ? अलबत्ता मौजूदा आर्थिक हितों के सरोकार पूंजीवादियों के हित तो साधते हैं, इसके विपरीत मानवश्रम से जुड़े हितों को तिरष्कृत करते हैं और प्राकृतिक संपदा को नष्ट करते हैं।
चरखा और खादी परस्पर एक दूसरे के पर्याय हैं। गांधी की शिष्या निर्मला देशपाण्डे ने अपने एक संस्मरण का उद्घाटन करते हुए कहा था, ‘नेहरू ने पहली पंचवर्षीय योजना का स्वरूप तैयार करने से पहले आचार्य विनोबा भावे को मार्गदर्शन हेतु आमंत्रित किया था। राजघाट पर योजना आयोग के सदस्यों के साथ हुई बातचीत के दौरान आचार्य ने कहा कि ऐसी योजनाएं बननी चाहिएं, जिनसे हर भारतीय को रोटी और रोजगार मिले। क्योंकि गरीब इंतजार नहीं कर सकता। उसे अविलंब काम और रोटी चाहिए। आप गरीब को काम नहीं दे सकते, लेकिन मेरा चरखा ऐसा कर सकता है।‘ वाकई यदि पहली पंचवर्षीय योजना को अमल में लाने के प्रावधानों में चरखा और खादी को रखा गया होता तो मौसम की मार और कर्ज का संकट झेल रहा किसान आत्महत्या करने को विवश नहीं होता।
दरअसल आर्थिक उन्नति का अर्थ प्रकृति के दोहन से मालामाल हुए अरबपतियों-खरबपतियों की फोब्र्स पत्रिका में छप रहे नामों से निकाला जाने लगा है। आर्थिक उन्नति का यह पैमाना पूंजीवादी मानसिकता की उपज है,, जिसका सीधा संबंध भोगवादी लोग और उपभोग वादी संस्कृति से जुड़ा है। जबकि हमारे परंपरावादी आदर्श किसी भी प्रकार के भोग में अतिवादिता को अस्वीकार तो करते ही हैं, भोग की दुष्परिणति, चारित्रिक पतन में भी देखते हैं। अनेक प्राचीन संस्कृतियां जब उच्चता के चरम पर पहुंचकर विलासिता में लिप्त हो गई तो उनके पतन का सिलसिला शुरू हो गया। रक्ष, मिश्र, रोमन, नंद और मुगल संस्कृतियों का यही हश्र हुआ। भगवान कृष्ण के सगे-संबंधी जब दुराचार और भोगविलास में संलग्न हो गए तो स्वयं भगवान कृष्ण ने उनका अंत कर दिया। इतिहास दृष्टि से सबक लेते हुए गांधी ने कहा था, ‘किसी भी सुव्यवस्थित समाज में रोजी कमाना सबसे सुगम बात होनी चाहिए और हुआ करती है। बेशक किसी देश की अच्छी अर्थव्यवस्था की पहचान यह नहीं है कि उसमें कितने लखपति लोग रहते हैं, बल्कि जनसाधारण का कोई भी व्यक्ति भूखों तो नहीं मर रहा है, यह होनी चाहिए।’ यह कैसी विडंबना है कि आज हम अंबानी बंधुओं की आय की तुलना, उस आम आदमी की मासिक आय से करते हैं जो 30-32 रूपये रोज कमाता है। राष्ट्रीय औसत आय का यह पैमाना, क्या आर्थिक दरिद्रता पर पर्दा डालने का उपक्रम नहीं हैं ?
गांधी के स्वरोजगार और स्वावलंबन के चिंतन और समाधन की जो धाराएं चरखे की गतिशीलता से फूटती थीं, उस गांधी का देश वैश्विक बाजार में समस्त बेरोजगारों के रोजगार का हल ढूढ़ रहे हैं और शांति के उपाय जिमखानों में ? यह मृग-मरीचिका नहीं तो और क्या हैं ? अब वैश्विक आर्थिक मंदी के चलते, भारतीय अर्थव्यवस्था में रोजगार और औद्योगिक उत्पादन दोनों के ही घटने के आंकड़े सामने आने लगे हैं। इन नतीजों से साफ हो गया है कि भू-मण्डलीकरण ने रोजगार के अवसर बढ़ाने की बजाये घटाये हैं। ऐसे में चरखे से खादी का निर्माण एक बढ़ी आबादी को रोजगार से जोड़ने का काम कर सकता है। वर्तमान में भी सात हजार से भी ज्यादा खादी आउटलेट्स हैं। इनसे सालाना साठ करोड़ रूपये की खादी का निर्यात कर विदेशी पंूजी भी कमाई जाती है। यदि घरेलू स्तर पर ही बुनकारों को समुचित कच्चा माल और बाजार मुहैया कराए जाएं तो खादी का उत्पादन और विपणन दोनों में ही आशातीत वृद्धि हो सकती है। इस उपाय से बेरोजगारी की समस्या को एक हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। इस संदर्भ में गांधी कह चुके हैं कि ‘भारत के किसान की रक्षा खादी के बिना नहीं की जा सकती है।‘ गांधी की इस सार्थक दृष्टि का आकलन हम विदर्भ, आंधप्रदेश, मध्यप्रदेश और बुन्देलखण्ड में आत्महत्या कर रहे किसानों के प्रसंग से जोड़कर देख सकते हैं। भारत की विशाल आबादी पूंजीवादी मुक्त अर्थव्यवस्था से समृद्धशाली नहीं हो सकती, बल्कि वैश्विक आर्थिकी से मुक्ति दिलाकर, विकास को समतामूलक कारको से जोड़कर इसे सुखी और संपन्न बनाया जा सकता है। इस दृष्टि से चरखा एक सार्थक औजार के रूप में खासतौर से ग्रामीण परिवेश में ग्रामीणों के लिए एक नया अर्थशास्त्र रच सकता है। इस दृष्टि से उत्तर प्रदेश सरकार ने सही पहल की है।
प्रमोद भार्गव जी,जब आज महात्मा गाँधी ही अप्रासंगिक हो गए है,तो आपकी कौन सुनेगा?ऐसे चरखा पूर्ण समाधान नहीं है,पर कुटीर उद्योग का प्रतीक तो है हीं.मैं बार बार कहता हूँ कि अगर भारत को सचमुच सर्वांगीण विकास करना है ,तो महात्मा गाँधी और पंडित दीन दयाल उपाध्याय को नए सिरे से समझना होगा.
नमस्कार सिंह साहब। आपको आज प्रकाशित *समृद्धि का अर्थ-तंत्र* नामक आलेख, पढनेका अनुरोध करता हूँं। आप की टिप्पणी के कारण ही, मैंने मेरे विचार व्यक्त किए –(समय भी था।)
आप देख लीजिए। गांधी जी के==> डाक्टर, वकील, यंत्र, मॅंचेस्टर और रेलगाडी विषयक नकारात्मक विचार से आप अवगत होंगे ही। उनके विचारों को, उस समय अंग्रेज़ों के *आर्थिक हित* पर प्रहार के रूपमें मैं देखता हँ।
टिप्पणी भी कीजिए। यदि संभव(?) हुआ तो प्रतिक्रिया कर पाऊंगा। धन्यवाद।
आलेख आज के समय में समसामयिक नहीं लगता।
प्रश्न: (१) तो गांधीजी ने खादी को प्रोत्साहित क्यों किया था?
उत्तर(१) उस समय गांधीजी स्वतंत्रता के उद्देश्य से व्य़ूह रचना करते है। अंग्रेज़ भारत से कच्ची सस्ती कपास मॅन्चेस्टर ले जाकर वहाँ मिलों में बुना कपडा भारत में ही महँगा बेचता था.
सस्ती कपास भारत की, और भारत को महँगा कपडा? पर ऐसा दोहरा लाभ अंग्रेज़ लेता था।
अंग्रेज़ के आर्थिक लाभ पर प्रहार करने गांधीजी ने खादी को प्रोत्साहित किया था। आज परिस्थिति अलग है। आज खादी व्यक्ति की श्वेच्छापर छोडी जाए। कुछ प्रोत्साहन स्वीकार्य है।
(१) और ७५ चरखों से क्या अंतर आएगा?
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दीनदयाल उपाध्याय जी ने स्वदेश हित चिन्तन के लिए, विवेक पर निम्न संकेत दिया है।
*दीनदयाल उपाध्याय:: कर्तृत्व एवं विचार* में –डॉ.महेशचंद्र शर्मा: (पी.एच. डी शोध निबंध) * पृष्ठ २८८ पर लिख्ते हैं;
*वे (दीनदयाल जी) किसी वादविशेष से कट्टरतापूर्वक बँधने की बजाय शाश्वत जीवनमूल्यों के प्रकाश में यथासमय आवश्यक परिवर्तन एवं मानवीय विवेक में आस्था रखते (थे)हैं।
कुछ भारतीय पूँजी निवेशकों को प्रोत्साहित नहीं करें, तो परदेशी पूंजी निवेश होगी।पूँजी निवेश होते ही रोजी मिलना प्रारंभ होता है।
जनता बिलकुल अधीर है। चरखें से समृद्धि नहीं आएगी।मितव्ययिता भी रोजी-रोटी को प्रोत्साहित नहीं करती।