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कोयला-कालिख की जवाबदेही

-प्रमोद भार्गव-  coal4

आखिरकार संप्रग सरकार ने मान ही लिया कि कोयला खादान आवंटन में कहीं न कहीं गड़बड़ी हुई है। इस प्रकिया को और बेहतर व पारदर्शी तरीके से अमल में लाने की जरूरत थी। यह बात सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति आरएम लोढ़ा की खण्डपीठ के समक्ष महान्यावादी गुलाम ई वाहनवती ने कही। जाहिर है, केंद्र सरकार ने अपनी गलती मानी तो सही, लेकिन बहुत देर कर दी। सरकार ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि यह उदारता बिजली की कमी की पूर्ति के लिए बरती गई थी। यह मामला नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की जांच में पहली बार सामने आया था। कैग ने माना था कि इस कारण 2004 से 2009 के बीच निजी कंपनियों को हुए 57 कोयला खादानों के आवंटन से राजकोष को लगभग 1,86,000 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। इस राजफाश के बाद पता चला कि राजनीतिक पहुंच और नौकरशाहों से साठगांठ में माहिर कंपनियों को नियम ताक पर रखकर खदानें आवंटित की गई थीं। इस कबूलनामे से तय है कि जल्दी ही सरकार ऐसी खदानों के आवंटन रद्द कर देगी जिन्हें उत्खनन के लाइसेंस जारी नहीं हुए हैं। ऐसी खदानों की संख्या 26 है।
कोयला घोटाले के सिलसिले में सरकार का नरम रूख सामने आएगा ये बात तभी तय हो गई थी जब इस घोटाले के बावत चौदहवीं एफआईआर दर्ज हुई थी। इसमें देश के प्रसिद्ध और सम्मानित उद्योगपति कुमार मंगलम् बिड़ला के साथ पूर्व कोयला सचिव प्रकाशचंद्र पारिख के खिलाफ भी आपराधिक साजिश और भ्रष्टाचार के मामले दर्ज किए गए थे। हालांकि आदित्य बिड़ला समूह की कंपनी हिंडालको पहले से ही संदेह के घेरे में थी, लेकिन कंपनी अध्यक्ष के नाते खुद बिड़ला और पूर्व कोयला साचिव प्रकाश चंद्र पारिख पर पुलिस प्रकरण कायम हुआ तो राजनीति, नौकरशाही और उद्योग जगत में हड़कंप मच गया था। बिड़ला और पारिख दोनों की ही छवि साफ सुथरी मानी जाती है। इसीलिए पारिख ने तत्काल पलटवार करते हुए तार्किक सवाल उठाया था कि ‘यदि कोल खण्डों के आवंटन में कोई षड्यंत्र हुआ है तो बतौर कोयला मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का नाम भी षड्यंत्रकारियों की आपराधिक सूची में दर्ज होना चाहिए, क्योंकि फाइल पर अंतिम हस्ताक्षर मनमोहन सिंह के ही हुए हैं। लिहाजा उन्हें क्लीन चीट नहीं दी जा सकती है ? जाहिर है प्रधानमंत्री को कोयला आवंटन घोटाले की प्रक्रिया से बचाने के जितने भी प्रयास किए गए, उतना ही यह मामला गंभीर होता चला गया। यहां तक की सीबीआई की स्थिति रिपोर्ट बदलवाने की कार्यवाही में कानून मंत्री अश्विनी कुमार को इस्तीफा देना पड़ा था और सर्वोच्च न्यायालय के अतिरिक्त महाअधिवक्ता हरेंद्र रावल भी यह रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय को दिखाने के एवज में नप चुके हैं।

प्रकाशचंद पारिख ने एक हिन्दी समाचार चैनल को दिये साक्षात्कार में कहा है , ‘प्रधानमंत्री का नाम तो एफआईआर में ‘ फर्स्ट कॉन्सपिरेटर’ मसलन बतौर प्रथम साजिषकर्ता के रूप में शामिल होना चाहिए क्योंकि अंतिम निर्णय उन्हीं का था। वो चाहते तो मेरी सिफारिश को खारिज भी कर सकते थे।’ दरअसल सीबीआई ने 8 साल पहले ओडि़सा में बिड़ला की कंपनी हिंडालको को तालाबीरा-2 और तालाबीरा-3 कोलखण्ड आवंटित किए थे। ये दोनों खण्ड सरकारी कंपनी नायवेली को दरकिनार कर दिए गए थे। जाहिर है, साजिश बरती गई और इस साजिश में प्रधानमंत्री के शामिल होने की आशंका पर शक की सुई इसलिए जा टिकती है क्योंकि उन्होंने भी सरकारी कंपनी को दरकिनार किए जाने के विशय पर कोई पूछताछ करने की बजाय पारिख द्वारा भेजी फाइल पर दस्तखत कर दिए। यहां यह भी गौरतलब है कि प्रधानमंत्री ने शिबू सोरेने के बाद कोयला मंत्रालय का प्रभार संभाला था और कोयले के सभी आवंटन उन्हीं के कार्यकाल में हुए। यही नहीं प्रधानमंत्री के कोयला मंत्री रहने के दौरान कोल खण्ड ऐसी कंपनियों को दिये गए जिनकी न तो कोई बाजार में साख थी और न ही इस क्षेत्र में काम करने के अनुभव थे।
कोल खण्डों के आवंटन से जुड़ी गड़बड़ियां कैग की अंकेक्षण प्रतिवेदन (ऑडिट रिपोर्ट) से सामने आई थीं। उसमें तथ्यात्मक आशंकाएं जताई गईं। इसी से एहसास हो गया था कि इस रिपोर्ट के अर्थ गंभीर मायनों के पर्याय हैं। लेकिन सरकार ने उस समय केवल यह जुमला छोड़कर बरी हो जाने की कोशिश की थी कि नीति पारदर्शी थी और उसमें कोई अनियमियता या गलती नहीं हुई है। वैसे नीतियां तो सभी पारदर्शी और जन कल्याणकारी होती हैं, लेकिन निजी स्वार्थपूर्तियों के लिए उन पर अपारदर्शिता का मुलल्मा चढ़ाकर ही भ्रष्टाचार के द्वार खोले जाते हैं। अपारदर्शिता और अनीति का यही खेल कोल खण्डों के आवंटन में बरता गया और पलक झपकते ही चुनिंदा निजी कंपनियों को 1.86 लाख करोड़ रुपये का लाभ पहुंचा दिया। कोयले की इस दलाली में काले हाथ किसी और मंत्री-संत्री के नहीं बल्कि उस प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के हुए हैं जो ईमानदारी का कथित चोला ओढ़े हुए हैं, क्योंकि 2004 से लेकर 2009 के दौरान जिन कोल खण्डों का आवंटन किया गया, तब कोई और नहीं खुद प्रधानमंत्री कोयला मंत्री का अतिरिक्त प्रभार संभाले हुए थे।
मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुए देशभर में भू-संपदा के रूप में फैले कोयले के ये टुकड़े बिना किसी नीलामी के पूंजीपातियों को बांट दिये गए थे। जबकि इन्हीं कोयला सचिव पारिख ने नोटशीट पर बाकायदा टीप दर्ज की थी कि प्रतिस्पर्धी बोलियों के बिना महज आवेदन के आधार पर खदानों का आवंटन किया गया तो इससे सरकारी खजाने को बड़ी मात्रा में नुकसान होगा। हुआ भी यही। कैग ने तय किया कि देश में अब तक का सबसे बड़ा घोटाला 1.76 लाख करोड़ रुपये का 2जी स्पेक्ट्रम था और अब यह कोयला घोटाला 1.86 लाख करोड़ रुपये का हो गया।
2003 में जब पहली बार मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने कोयला मंत्रालय अपने ही अधीन रखा। 2004 में सरकार ने नीलामी के जरिए कोल खंड देने का फैसला किया। लेकिन इस हेतु न तो कोई वैधानिक तौर तरीके बनाए और न ही कोई प्रक्रिया अपनाई। लिहाजा प्रतिस्पर्धा बोलियों को आमंत्रित किए बिना ही निजी क्षेत्र की कंपनियों को सीधे नामांकन के आधार पर कोल खण्ड आवंटित किए जाने लगे। देखते – देखते 2004 – 2009 के बीच रिपोर्ट के मुताबिक 342 खदानों के पट्टे 155 निजी कंपनियों को दे दिए गए। कैग ने अभी केवल 194 कोल खण्डों की जांच की है। कैग ने कहा है, 25 नामी कंपनियां तो ऐसी हैं जिन्हें औने-पौने दामों में सीधे नामांकन के आधार पर कोल खंड दिए गए हैं। इनमें एस्सार पावर, हिंडालको इंइस्ट्रीज, टाटा स्टील, टाटा पावर और जिंदल पावर व जिंदल स्टील के नाम षामिल हैं। इनके साथ ही संगीत कंपनी से लेकर गुटखा, बनियान, मिनरल वाटर और समाचार पत्र छापने वाली कंपनियों को भी नियमों को धता बताकर कोल खंड आबंटित किए गए। इनमें से जिन कंपनियों ने अनुबंध में नए उर्जा संयंत्र लगाने का वायदा किया था, उनमें से किसी ने भी नया उर्जा संयंत्र नहीं लगाया। इसके उलट निजी कंपनियों को कोल खंड देने के ये दुष्परिणाम देखने में आए कि जिन कोयला खदानों में निजीकरण होने से पहले आठ लाख मजदूर व कर्मचारी रोजगार पाते थे, उनमें घटकर तीन लाख रह गए। जाहिर है, खदानों में मशीनीकरण बढ़ाकर सिर्फ प्राकृतिक संपदा का अंधाधुंध दोहन किया गया। लिहाजा इस घोटाले से जुड़े जो क्रमबद्ध तथ्य व सबूत सामने आ रहे हैं उस परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री का बेदाग बने रहना मुमकिन नहीं।