सर्दी, सिहरन और एक दुखद सच्चाई ?

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वीरभान सिंह

यह हाड कंपाने वाली ठंड। बस, रजाई में दुबके पडे रहें और हाथ बाहर न निकालना पडे। अपना हाथ पानी में भले ही कटकर गिरता हुआ सा लगे, पर मां अपने हाथ से गरमा-गरम पकौडियां, मटर और आलू भरे पराठे देती रहे। चाय-काॅफी की गर्माहट मिलती रहे। ज्यादा शौक चढे तो चोक-चोराहों पर आइसक्रीम का दौर भी बुरा नहीं। लेकिन…..जी हां लेकिन…..इसका एक कृष्ण पक्ष भी है। तन पर कपडा नहीं, नंगे पांव, सिर पर छत नहीं और इन सब पर ओस की बूंदों से भीगते हुए माथे। जड होते हाथों से घरों में बर्तन मांजती, पोछा लगाती औरतें, बहती नाक और गठरी बने बच्चे। न हाथ में गर्माहट और ही पेट में गर्मी, बस, अकुलाते कटते दिन और रातें। धूप के टुकडे की ख्वाहिश और प्रेमचन्द्र की पूस की रात, फिर भी जिए चले जाते हैं….एक अदद गर्माहट भरी सुबह के इंतजार में…..ये गरीब……वो बेसहारा, जिनका  निगेहबां कम से कम कोई नहीं।

सिहरती सर्दियों के बीच मौसम का पल-पल बदलता मिजाज और उस मिजाज पर हवा में गलन घोलता हौले-हौले लुढकता पारा, नसों में बह रहे रक्त को भी अब जमाने सा लगा है।  ऐसी सर्दी, जिसने समाज के हर वर्ग की घिग्गी बांध कर रख दी। दिनों-दिन ठिठुरते और सर्द होते जा रहे मौसम के बीच सडकों के किनारे फुटपाथों पर गठरी की मानिंद सिमटे-बकुटे पडे गरीबों की जिंदगी पर रहम तो हर कोई खाता है, मगर हाथ बढाकर उनकी मदद करने का माद्दा अभी तक तो ना समाजसेवियों में दिखा और ना ही किसी अधिकारी में। 21वीं सदी के आजाद भारत और बर्गर-पिज्जा की कडवी सच्चाई बयान करती हैं ये बोलती तस्वीरें। इन तस्वीरों में राजनेताओं के तमाम वायदे और वायदों से खुलकर की गई बेमानी की कहानी बखूबी उभरकर सामने आ जाती है।

 

आईना-1: पूरी सर्दियां सिर्फ बरसाती में ही काट लीं –

हम गरीब हैं, भीख मांगकर पापी पेट को पालते हैं लेकिन क्या हमें जीने का अधिकार नहीं है। हम भी इसी जिले के हैं मगर हमारी सुनने वाला कोई नहीं। लोग तरस तो खाते हैं पर मदद मांगने जाओ तो दुत्कार कर ऐसे भगा देते हैं जैसे हम इंसान नहीं, गंदे बदबूदार जानवर हों। ये शब्द सुनकर मौजूद लोगों को खुद पर शर्म तो आयी मगर दया नहीं। रेलवे स्टेशन रोड पर पहले फाटक के सामने बने फुटपाथ पर दो विकलांग महिला एक बरसाती तानकर अपनी सर्दियां काटने को विवश हैं। कोई भी रहनुमा न होने और शरीर से लाचार होने के कारण दोनों भीख मांगकर अपने दिन गुजार रही हैं। पूछने पर इन्होंने बताया कि हमें मदद देने के लिए न तो अधिकारी आगे आते हैं और न ही कोई समाजसेवी। दुर्भाग्य है कि इतनी भीषण सर्दी में जहां जानवर भी आंच सेंकते हैं वहां हम लोगों को ठिठुरकर रात काटनी पडती है। क्या करें साहब, हमारी अपनी मजबूरी है। खुले में लावारिस हालत में हम विकलांग महिलाओं की आबरू तक मांगने में बहशी भेडिए गुरेज नहीं करते।

आईना-2: कहीं फुटपाथ पर ही न निकल जाये दम-

मैं किसी से कुछ नहीं कहना चाहता, जिजसे तरस आये मेरी मदद कर दे। न तो मेरा कोई घर है और न ही ठिकाना। इस फुटपाथ पर सो लेता हूं, अब क्या यहां से भी हटवाओगे। नगर के राधा रमन रोड पर फुटपाथ के किनारे महीनों से सिर्फ एक रजाई के सहारे अपनी राते काट रहा वृद्ध किसी से भी बात करने को तैयार नहीं है। लोगों का कहना है कि यह इसी जगह पर पडा रहता है। दरिद्रता को देखते हुए लोगों ने इसे रजाई तो दे दी लेकिन प्रशासनिक स्तर पर अभी कोई मदद नहीं मिली है। लोगों की मानें तो इस भीषण सर्दी से ठिठुरकर कहीं इस वृद्ध की फुटपाथ पर ही मौत न हो जाये।

 आईना-3: कूडा बीनना, फिर खाना जुटाना, यही जीवन है-

उम्र के आखिरी पडाव पर कूडा-करकट बीनने के बाद दो वक्त की रोटी जुगाडने वाली वृद्धा तो बात करते ही फफक पडती है। वृद्धा को अपना असली नाम भी याद नहीं है। पूछने पर वह कहती है कि कचरा बीनने जाती हूं तो लोग पागल-पागल बोलकर मेरे पीछे चलने लगते हैं और मुझे परेशान करते हैं। कंधे पर कूडे की बोरी देखकर गली-मोहल्लों के कुत्ते मुझे देखकर भौंकते हैं। मेरा तो कोई नहीं है, बस कूडा बीनकर खाना खाती हू। कुछ दयामंदों ने पुराने कपडे तो जरूर दे दिए हैं लेकिन किसी ने कंबल नहीं दिया है। एक कंबल दिला दो बाबूजी, नही तो ठंड मार डालेगी। अब बर्दास्त नहीं होती है सर्दी, लगता है हाड जम जायेंगे।

ऐसे ही कई आत्मा को कचोटने और झिझकोरने वाले अत्यंत दयनीय हालातों में बशर कर रहे हैं  गरीब और बेसहारा। तस्वीरें कम पड जायेंगी मगर फेहरिश्त बढती ही जायेगी। न जाने कब सरकारी मदद असलियत में इन गरीबों तक पहुंचेगी ? यह यज्ञ प्रश्न इस विधानसभा चुनाव में अब भी एक अनसुलझा सा सवाल लगता है।

1 COMMENT

  1. सारा समाज धन के पीछे भाग रहा है ऐसे में कौन किसकी फ़िक्र करे जैसी जनता वैसे नेता काश हम धनपशु से इन्सान बन जाएँ तो गरीबों को सर्दी से बचाने की सोच सकेंगे.

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