आओ, थोड़ा-थोड़ा भोपाली हो जाएं

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मनोज कुमार

आओ, थोड़ा थोड़ा भोपाली हो जाएं। इस पंक्ति को पढ़ते हुए एक पुरानी हिन्दी फिल्म ‘थोड़ा रूमानी हो जाएं’ कि याद आ रही होगी। हां, आप इसे ऐसे भी मान सकते हैं और कल्पना भी कर सकते हैं लेकिन रूमानी होने और भोपाली होने में बहुत फर्क है। रूमानी तो आप किसी भी पसंद की चीज के साथ हो सकते हैं लेकिन भोपाली होने के लिए आपको भोपाल से दिल लगाना होगा। दिल भी ऐसा लगाना होगा कि आपको भीतर से लगे कि आप पूरा ना सही ‘थोड़ा थोड़ा तो भोपाली‘ हो गए हैं। भोपाली हो जाने से मतलब है आपका स्वच्छता से जुड़ जाना। भोपाली होने का अर्थ है एक तहजीब से जुड़ जाना। भोपाली होने का मतलब यह भी है कि आप अपने शहर से कितनी मोहब्बत करते हैं। बातों को बूझने के लिए थोड़ा विस्तार देना होगा। आगे पढ़ते हुए जब आप समझते चले जाएंगे तो खुद ब खुद कहेंगे ‘आओ, थोड़ा थोड़ा भोपाली हो जाएं।‘
आप भोपाल में रहते हैं या नहीं, यह बात मायने नहीं रखती है। आप भोपाल में कितने पहले रहने आये हैं, यह बात भी कोई मायने नहीं रखती है। मायने रखती है तो आप भोपाल को जानते कितना हैं? नए और पुराने दो हिस्सों में बंटे भोपाल में आप किस हिस्से को बेहतर जानते हैं? क्या नए भोपाल के साहब वाले शहर को ज्यादा जानते हैं या राम-रहीम की दोस्ताना वाले पुराने भोपाल को इससे भी बेहतर समझते हैं। थोड़ा थोड़ा भोपाली हो जाने के लिए आपको राम-रहीम के पुराने भोपाल को जानना और समझना होगा। राजधानी भोपाल का यह इलाका नए भोपाल के मुकाबले थोड़ा पिछड़ा है। तंग गलियां और गलियों में ज्यादतर कच्चे मकान और भी दिक्कतों में जीता-मरता पुराना भोपाल। वैसे ही जैसे उम्रदराज लोग हमारी जिंदगी में होते हैं। कम पढ़े-लिखे और घर में उपेक्षित। लेकिन पुराने भोपाल और पुराने लोगों में एक समानता है। वह यह कि दोनों के पास संस्कार है, संस्कृति है और तर्जुबा भी।
पुराने भोपाल की जमाने पुरानी तहजीब है। संस्कार है और जीने का सलीका भी। इस इलाके में रहने वाले लोग कम पढ़े-लिखे हो सकते हैं। कुछ थोड़े से हमारी आपकी भाषा में गंवार भी लेकिन जो जीवन जीने की कला इनके पास है। वह हमारे पास कदापि नहीं है। यकिन नहीं हो रहा होगा आपको। ये उतना ही सच है जितना बड़े तालाब के पानी का खरा होना। पुराने भोपाल की पुरानी पीढ़ी को देखिए। वो लोग पान खाते हैं। पान के साथ मुंह में चूना भी दबाते हैं। पानी का रोग पुराना है और इसका इलाज पान और चूना है। यदा-कदा इस पीढ़ी के कुछ लोग खैनी भी खाते होंगे लेकिन एक काम नहीं करते हैं तो अपने शहर को गंदा करना। यहां-वहां थूकना। वे तहजीब के लोग हैं तो अपने साथ पीकदान लेकर चलते हैं। सफर में उनके साथ पीकदान के तौर पर बटुआ हुआ करता है। बेहद सलीके से अपने साथ रखे बटुए भी पीक करते हैं। अपने शहर की गलियों को, दीवारों को, रास्तों को कतई गंदा नहीं करते हैं। आप भी इन से ये सब सीख सकते हैं। तहजीब और जीने का सलीका। इसलिए तो हम कह रहे हैं आओ, थोड़ा थोड़ा भोपाली हो जाएं।
हालांकि सोहबत अच्छी हो तो परम्परा आगे बढ़ जाती है और सोहबत खराब हो तो परम्परा दम तोड़ने लगती है। पुराने भोपाल के नौजवान पीढ़ी के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। नए भोपाल के लोगों को साथ में पीकदान रखने के लिए कहने का मतलब बेवजह समय खराब करना है। ऐसे में पुराने भोपाल में पीकदान साथ लेकर चलने की परम्परा आहिस्ता आहिस्ता दम तोड़ रही है। पानी का खारापन जो पान और चूना से दूर करते थे, आज नौजवान मुंह में गुटखा और खैनी दबाये मिल जाएंगे। यहां आकर पुराने और नए भोपाल के गुण एकसरीखे हो जाते हैं। ऐसे में सरकार मजबूर हो जाती है कि सरेआम थूकने पर जुर्माना ठोंकने के लिए। सजा देने के लिए।
हालांकि कोरोना संकट के पहले प्रधानमंत्री मोदी ने स्वच्छता का आह्वान किया था। नम्बरों की रेस लगी। कौन सा शहर कितना स्वच्छ बनेगा? सारे संसाधन खर्च कर दिए गए। जांच करने वाली टीम को बता दिया गया कि हमारे शहर ने स्वच्छता के लिए कितना और क्या काम किया है। इंदौर लगातार नंबर एक पर आता रहा तो भोपाल दूसरे नंबर पर टिका रहा। पक्की बात है कि नम्बरों की दौड़ में शहरों ने बाजी तो मार ली लेकिन लोगों की आदत नहीं बदल पायी। नगर निगम भोपाल के लोगों को यह बताने में विफल रही कि ये वही भोपाल है, ये वही भोपाली हैं जिन्हें खुद होकर अपने शहर का खयाल है। उन्हें शहर को साफ-स्वच्छ रखने के लिए माइक से जताना-बताना नहीं पड़ता था। लेकिन आज हालात खराब है। हम कहते हैं कि कचरा वाला आया। सच तो यह है कि कचरा वाला तो हम हैं। वे तो सफाई के लिए आते हैं। कचरा तो हम बगराते हैं।
यह क्यों हुआ? केवल और केवल नम्बरों की दौड़ के लिए हमने पूरा जोर लगा दिया। इतना ही जोर कम्युनिटी की मीटिंग करते और भोपाली जीवनषैली पर फोकस करते तो आज जुर्माना लगाने और डंडा दिखाकर स्वच्छता की कोई चर्चा हम और आप नहीं कर रहे होते। लेकिन सच यही है कि आज डंडे के बल पर हम स्वच्छता की कामना कर रहे हैं। लेकिन सच यह भी है कि डंडे के बल पर कुछ दिन तो स्वच्छता की मुहिम को आगे बढ़ा सकते हैं लेकिन थोड़े दिनों बाद नतीजा वही होगा। हम जान हथेली पर लेकर चल सकते हैं लेकिन सिर पर हेलमेट नहीं लगाएंगे। पुलिस की चौकसी को देखकर रफूचक्कर हो जाने की कोषिष में हाथ पैर तुड़वा बैठेंगे। ये सब कुछ होता है और होता रहेगा। पीकदान भले ही साथ ना रखें लेकिन  पीकदान के भीतर थूकने की आदत डालें। तम्बाकू और सिगरेट के पैकेट पर बना कैंसर का कीड़ा देखकर जिन्हें मौत का भय नहीं होता है। वह लोग हजार रुपये के जुर्माने से थूकने की आदत छोड़ देंगे, यह सोच पक्की तो नहीं हो सकती है। जरूरी है कि हम दंड दें, डर पैदा करें लेकिन उनके मन को बदलने की कोषिष करें। दीवारों को, सड़कों को, गलियों को, अस्पताल को स्वच्छ रखना है तो हम सबको थोड़ा थोड़ा भोपाली होना पड़ेगा।

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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