आओ समझें: हिन्दी अक्षरों का वैज्ञानिक स्वरूप

hindiभारत की राष्ट्रभाषा हिंदी अपने आप में पूर्णत: वैज्ञानिक भाषा है। कंप्यूटर के लिए संस्कृत को सबसे उपयुक्त भाषा आज के वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है। हिंदी इस भाषा (संस्कृत) की उत्तराधिकारी भाषा है। संस्कृत ने जिन अक्षरों का प्राचीन काल में आविष्कार कर भाषा विज्ञान को विकसित किया उसे हिंदी ने बड़े ही गौरवमयी ढंग से सहेज कर रखा है। अक्षर का अर्थ क्षरण न होने वाले से है। ‘ऊँ’ भी एक अक्षर है, जो प्रलयपर्यन्त भी क्षरित अर्थात नष्ट नही होता। इसका अस्तित्व सदा बना रहता है। इसी प्रकार भाषा के विकास के लिए जिन अक्षरों का आविष्कार किया गया है वो भी नष्टï न होने वाले हैं। उन्हें लिखने का ढंग नई सृष्टि में भिन्न हो सकता है-लेकिन उनका अस्तित्व नष्ट नही होगा। इसी लिए संस्कृत जैसी समृद्घ भाषा ने ‘अक्षर’ नाम देकर अक्षरों के साथ न्याय ही किया है-मानो अक्षर नाम के साथ सृष्टिï से सृष्टि का जो अनवरत क्रम चला आ रहा है और आगे भी चलता रहेगा-इस क्रम का रहस्य खोल दिया गया है-कि इनमें ईश्वर, जीव और प्रकृति की भांति अजर और अमर यदि कोई है तो वह अक्षर ही है। संसार की अन्य भाषाओं ने अक्षर को अक्षर जैसा नाम नही दिया है। संस्कृत ने अक्षर नाम विज्ञान के शाश्वत नियमों को पढ़ व समझकर दिया है कि प्रत्येक वस्तु अपना रूप परिवर्तित करती है-उसके तत्वों का कभी विनाश नही होता। इस विज्ञान को समझने में पश्चिमी जगत को युगों लगे जबकि संस्कृत ने इसे सृष्टि के प्रारंभ में ही समझ लिया था और जब ये सृष्टिï आंखें खोल रही थी। जो संस्कृत मां के रूप में उसे अक्षर की लोरियां सुना रही थी। संसार के वैज्ञानिक सृष्टि प्रारंभ में सर्वप्रथम ध्वनि के उत्पन्न होने की बात कहते हैं-वह ध्वनि ओउम का पवित्र गुंजन था। यह पवित्र गुंजन बहुत देर तक चला और फिर इसी से सृष्टि का निर्माण होना प्रारंभ हुआ। आज भी सनातन धर्म में प्रत्येक शुभ कार्य का प्रारंभ ‘ध्वनि’ (शंख में पवित्र शब्द ओउम की गुंजार) से किये जाने की परंपरा है। मानो आज फिर एक नई सृष्टि की रचना हो रही है। शंख ध्वनि हमें बहुत कुछ बताती है। ये केवल गले की सफाई के लिए अपनाई जाने वाली कोई धार्मिक क्रिया मात्र नही है। शंख ध्वनि अक्षर की उपासना की वैदिक पद्घति है। जो हमें सृष्टिï के प्रारंभ की पक्रिया से जोड़ती है और उससे अनुप्रमाणित होकर हमें अपना कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।

इतनी पवित्र और उच्च संस्कारों से युक्त देववाणी भाषा के एक एक अक्षर पर हम यहां विचार करेंगे। विचार करते करते हम पाएंगे कि एक एक अक्षर की बनावट के पीछे तथा लिखावट के पीछे हमारे भाषा विज्ञानी संतों व ऋषियों का कितना प्यारा उच्च और वैज्ञानिक चिंतन छिपा है। संसार की अन्य भाषाओं के (जैसे चीनी और जापानी) अक्षरों शब्दों की बनावट को लेक विद्वानों ने पर्याप्त लिखा है। परंतु अपनी भाषा पर नही लिखा गया है। मेरे मन मस्तिष्क में अपनी भाषा की वैज्ञानिकता पर लिखने का विचार आया तो अक्षरों की बनावट पर चिंतन चलने लगा। बड़े प्यारे-प्यारे हृदय स्पर्शी अर्थ सामने आने लगे। बड़ी श्रद्घा उत्पन्न हुई अपने भाषा विज्ञानी ऋषियों के श्रीचरणों में जिन्होंने हमें देववाणी दी और उससे हमारी देव नागरी का विकास हुआ। हम यहां एक एक अक्षर पर क्रमश: विचार करेंगे।

‘अ’

देवनागरी का सर्वप्रथम अक्षर ‘अ’ है। बहुत ही विशिष्ट अक्षर है यह। हिंदी अंकों में ३ की ईकाई में ‘ा’ लगाकर यदि इसको बनाया जाए तो बड़ा अद्भुत परंतु वास्तविक अर्थ निकल कर सामने आता है। इससे सृष्टि की तीनों उत्पादक, पालक और संहारक शक्तियों का अर्थात ब्रहमा, विष्णु और महेश का पता चलता है। ईश्वर के इन तीनों प्रकार के गुण कर्म, स्वभाव के कारण ही तो सृष्टि क्रम चल रहा है। गायत्री में भू:=उत्पादक है (ब्रहमा है) इंग्लिश के गॉड में ये G अर्थात Generator है। स्व: पालक सुखप्रदाता=विष्णु है जिसे गॉड में O अक्षर से Operator कहा जा सकता है। भुव: दु:खहर्ता अर्थात संहारक= महेश=गॉड में अक्षर D से बनने वाला Destroyer है। इस प्रकार इंग्लिश का गॉड भूर्भुव: स्व का ही रूप है। बस केवल क्रम बदला है, अन्यथा तीनों शक्तियों का प्रतिपादक शब्द है, जो कि संस्कृत की वैज्ञानिक भाषा को अपने ढंग से परिभाषित करता है। इसीलिए इन तीनों शक्तियों को दर्शाते हुए ३ के अंक के साथ अकार का निर्माण किया गया। ‘ऋ’ का कुछ ऐसा ही अर्थ है। ऐसे गुणों से संपन्न ईश्वर को वेद ने ‘स्वयंम्भू रसेन तृप्तो न कुतश्चनोन:’ कहा है। इसका अभिप्राय है कि वह स्वयं उत्पन्न होता है और वह सारे रसों से तृप्त रहने वाला और कहीं से भी न्यूनता न रखने वाला है। वह पूर्ण है।

यहां वेद का शब्द स्वयंभू ध्यातव्य है। इसी से ‘खुदा’ शब्द बना है। वेद का स्वयंभू शब्द खुदा का समानार्थक है। उसे कोई ना तो बना सकता है और ना ही पैदा कर सकता है। वह स्वयंभू भू: भुव: स्व: से पूर्ण है और उससे अन्यत्र कोई पूजा के योग्य नही है-क्योंकि संसार के किसी अन्य पदार्थ में ये तीनों गुण नही मिलते। ‘अ’ का अर्थ नही भी होता है-जैसे अज्ञान, अभाव, अन्याय आदि में। ‘अ’ मानो अपनी नकारात्मक शक्ति से हमें निषिद्घ कर रहा है कि उस सर्वेश्वर, सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी ओ३म् के अतिरिक्त किसी अन्य की उपासना नही करनी है। वह सर्वाधार है और सर्वनियन्ता है।

ओ३म् में हम ‘३’ ईकाई को इसलिए लिखते हैं कि वह एकाक्षर ऊं तीन शक्तियों से निर्मित है-सत=प्रकृति, चित=चेतन जीव, और आनंद। ईश्वर यहां अकार से अखिलेश्वर, सृष्टि नियन्ता ईश्वर से अभिप्राय है, तो उकार से चेतन जीव और मकार से प्रकृति से अभिप्राय है। सच्चिदानन्द स्वरूप ईश्वर सत चित और आनंद स्वरूप है। लेकिन प्रकृति केवल सत है और जीव केवल चेतन है।

जिस सत चित और आनंद के त्रैतवाद पर भारतीय संस्कृति टिकी है उसकी कुंजी अकार में है। यह ‘अ’ अक्षर इसीलिए सर्वोत्तम और सर्वप्रथम उपासनीय है।

ऐसे दिव्य गुणों और दिव्य विज्ञान पर आधारित अक्षर ‘अ’ व्यवहार में जहां जहां भी किसी शब्द में प्रयुक्त होता है वहां वहां ही ‘अ’ शब्द के अर्थ में दिव्यता, अलौकिकता और वैज्ञानिकता का पुट भरता है। यह सृजन के लिए भी प्रयुक्त होता है-पूर्णत: नकारात्मकता के लिए भी प्रयुक्त होता है। जैसे = अंश = भाग, अंशुमत= प्रभायुक्त, अंसल= बलवान, अग्नि=आग, अग्र=प्रथम इत्यादि सृजनात्मक अर्थ हैं जबकि अकुशल, असफलता, अक्षर, अखंडित अघोष=जो ध्वनि हीन हो, इत्यादि नकारात्मकता के अर्थ हैं। इसका अभिप्राय है कि विश्व की धनात्मक और नकारा

त्मक दोनों शक्तियां इसी अकार में व्याप्त हैं। दैवीय और दानवीय शक्तियों के मध्य चलने वाला सुरासुर संग्राम भी मानो इसी अकार में व्याप्त हैं। जैसे यह ध्वनि को ऊँ की गुंजार से गुंजित करता है तो सृजन होता है, देवों को बल मिलता है। संसार में दैवीय गुणों की शक्ति में वृद्घि होती है, पर जब यह अघोष हो जाता है तो ध्वनि को शांत कर देता है। यदि संसार में दिव्यता की अनुभूति कराने वाली शक्तियों की ध्वनि शांत हो जाए तो आसुरी शक्तियां बलवती होती हैं। उस अवस्था में उत्पात खड़ा हो जाता है और संसार में उपद्रव और विप्लवों की बाढ़ सी आ जाती है। यह अनादि और अनंत दोनों शब्दों में प्रयुक्त होता है। दोनों शब्दों का निर्माण करता है। अनादि अर्थात जिसका प्रारंभ न हो और अनंत अर्थात जिसका अंत न हो। अनादि की खोज के लिए आपकी यात्रा पीछे की ओर भागेगी जबकि अनंत के लिए आगे की ओर भागेगी। पर अंत में ज्ञात होगा कि कहीं भागो मत अपितु अनादि और अनंत को साथ ही साथ एक ही ईश्वर में अनुभव करो। सारी लड़ाई का हो गया ना अंत=इसीलिए यह अक्षर अदभुत और विलक्षण है। इसकी अदभुतता का, विलक्षणता का, गांभीर्य का , पवित्रता का, और पूर्ण उच्चता का अनुभव हिंदी के हर उस शब्द में आप करेंगे जिसका प्रारंभ अकार से होता है।

संसार की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं ने अपनी वर्णमाला में ‘अ’ को प्रथम स्थान दिया है। अन्य भाषाओं में इसको प्राधान्यता संस्कृत और देवनागरी के कारण ही मिली है। इसे अन्य भाषाओं में संस्कृत और देवनागरी के समान ही प्रयुक्त किया जाता है। लैटिन के in अंग्रेजी के in या un यूनानी के a या un के समान नकारात्मक अर्थ अनुत्तम, अनुपयोगी, अनुचित जैसे शब्दों की भांति ही शब्द का अर्थ परिवर्तित कर उसे नकारात्मक बना देते हैं।

हिंदी में वांछित का नकारात्मक विपरीतार्थक शब्द अवांछित है तो अंग्रेजी में wanted का विपरीतार्थक शब्द Unwanted है। यहां शब्दों की समानता भी देखिए वांछित का समानार्थक शब्द वांटिड है तो अवांछित का अनवांटिड है। इससे ज्ञात होता है ‘अ’ का अन विपरीतार्थक उपसर्ग तो संस्कृत से गया ही है शब्द भी संस्कृत मूलक है, और देखिए संस्कृत का ऋत और अनृत अंग्रेजी के truth और Untruth के समानार्थक है। अपेक्षित और अनपेक्षित के लिए expected और Unexepcted शब्द हैं, दृषित दृश्य के लिए Direct और अदृश्य के लिए अदृशित indirect शब्द है। हमारे ज्ञात अज्ञात (अनजान) के लिए Known व Unknown शब्द हैं। उद्देश्य यहां ऐसे शब्दों को ढूंढऩा नही है परंतु यह सिद्घ करना है कि संस्कृत की वर्णमाला के अक्षरों से ही अन्य भाषाओं ने चलना सीखा है, न्यूनाधिक वे सभी इसी भाषा की अनुचरी है। ‘अ’ को हम जिस प्रकार यहां प्रयोग करते हैं वैसे ही वह अन्य भाषाओं में प्रयोग होता है। आप देखें मोल मूल्य का पर्यायवाची है तो अनमोल अमूल्य का पर्यायवाची है।

‘आ’

देवनागरी वर्णमाला का द्वितीय अक्षर ‘आ’ है। इस अक्षर के दो आधार (ाा) हैं, इसे देखकर ऐसा लगता है जैसे कोई आकर खड़ा हो गया है। आकर रूकने का प्रतीक चिन्ह इससे सुंदर नही हो सकता। विस्यमयादिबोधक अव्यय के लिए भी यही प्रतीक चिन्ह (!!) है। अत: आ अक्षर स्वीकृति सूचक, हां, दया के अर्थ में आह, पीड़ा या खेद प्रकट करने के अर्थों की ओर हमारा ध्यान खींचता है। यह अक्षर स्थानांतरणार्थक (जैसे गम=जाना और आगम = आना) व नयनार्थक (जैसे दा=देना और आदा= लेना) क्रियाओं से पूर्व लगकर विपरीतार्थक बोध कराता है। आकर खड़ा होने वाला जब रूकता है तो या तो आपको अपनी ओर आकर्षित करता है, या वस्तुस्थिति का आंकलन करता है, आप पर आक्रमण भी कर सकता है। आखेट भी कर सकता है, वस्तुस्थिति की आख्या भी तैयार कर सकता है, आप पर कोई आक्षेप भी लगा सकता है, आप को आरोपित भी कर सकता है, आप पर आक्रोश भी व्यक्त कर सकता है, वह आख्यापक (हरकाटा) भी हो सकता है उसे आप आगन्तुक भी कह सकते हैं, वह आपसे कोई आग्रह भी कर सकता है, कोई आपत्ति भी कर सकता है, आपको कोई आघात भी दे सकता है। आपको आलोकित कर सकता है अपनी आभा से। ऐसे बहुत से संकेत हैं जो आने वाले के प्रति प्रकट किये जा सकते हैं। ये सारे शब्द ‘आ’ से बने हैं। किसी के आने पर व्यक्ति विस्मय प्रकट करता है, इसीलिए ऐसे सारे संकेत भावों को प्रकट करने वाला अक्षर हमारे भाषा वैज्ञानिकों ने ‘आÓ के रूप में स्थापित किया। यह केवल एक अक्षर नही बल्कि विभिन्न अर्थों को प्रकट करने वाला एक शब्द ही है। इसकी आकृति हमें बहुत कुछ बताती है। इसकी आकृति में ‘अ’ स्वयं ही समाहित है, इसलिए यह अक्षर भू: भुव: स्व: जैसी पवित्रता के अर्थों में भी प्रयुक्त होकर शब्द को शोभायमान करता है। उसे उच्चता देता है, दिव्यता देता है और महानता देता है। जैसे आदर, आदरणीय, आश्रम, आचार्य, आर्य, आशा, आश्चर्य, आत्मन, आत्मा, आश्वासन, आश्रय, आहुति, आहार, आहलाद, आरोहण, आर्यावत्र्त इत्यादि। बहुत ही पवित्र, बहुत ही उच्च और बहुत ही दिव्यता लिया हुआ शब्द है ये। ऐेसे कितने ही शब्द हैं जो ‘आ’ से ही शोभित होते हैं।

‘इ’

‘इ’ नागरी वर्णमाला का तीसरा अक्षर है। यह अक्षर गति निकटता, और वाला (जैसे घर वाला, भूमि वाला) के अर्थों को प्रकट करता है। इस अक्षर की आकृति कुछ इस प्रकार की है। जिससे गति का भाव प्रकट होता है। हिंदी वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर में मूलदण्ड (ा) मिलता है। इसी दण्ड पर ही प्रत्येक अक्षर किसी न किसी रूप में बनाया जाता है। यह मूलदण्ड अ का प्रतीक है। इसीलिए प्रत्येक अक्षर के अंत में अ की आवाज अपने आप ही निकलती है। मूलदण्ड का हर अक्षर में विद्यमान होना स्पष्टï करता है कि जैसे पिण्ड बिना आत्मा के और यह जगत बिना परमात्मा के अस्तित्वहीन है, उसी प्रकार कोई भी अक्षर बिना अ के अस्तित्वहीन है। मानो अकार प्रत्येक अक्षर की आत्मा है। ‘इ’ निचले ओष्ठ की सहायता से बोली जाती है। बोलते ही हम देखते हैं कि दूरियां निकटता में परिवर्तित हो जाती है, जैसे दूर के लिए आप उस का प्रयोग करेंगे। परलोक कहीं दूर की बात है लेकिन इहलोक शब्द इसी लोक की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। यहां हमने देखा इहलोक की बात आते ही दूरियां निकटता में परिवर्तित हो गयीं। इन, इतर, इच्छा, इति, इदम, इंद्रियां, इष्टापूत्र्त आदि शब्द इ के निकटता बोधक अर्थों की ओर ही हमारा ध्यान आकृष्ट’ करते हैं। जब हम किसी अक्षर पर इ की मात्रा चढ़ाते हैं तो ‘Óि इस प्रकार चढ़ाते हैं यह भी अक्षर के प्रति उसकी निकटता की ही प्रतीक है।

‘ई’

संस्कृत या नागरी वर्णमाला का चौथा स्वर अक्षर ‘ई’ है। यह अक्षर जाना, चमकना, व्याप्त होना, चाहना, कामना करना, फेंकना, खाना, प्रार्थना करना, गर्भवती होना इत्यादि अर्थों को लिए हुए है। इसकी आकृति में इ की भांति मूलदण्ड में गति तो है ही परंतु ऊपर इ लग जाने से इसकी आकृति में भिन्नता आयी है ‘ का चिन्ह इस अक्षर को अनोखापन और विशिष्ट पहचान प्रदान करता है।

‘उ’

हिन्दी वर्णमाला में पांचवां स्थान ‘उ’ का है। ओउम में यह ‘जीव’ का प्रतीक है। अ, उ, म इन तीन से ओ३म् बना है, इस प्रकार उ की पीठ म से फिरी हुई है। ‘म’ प्रकृति का और अ ईश्वर का अर्थ प्रकट करते हैं। प्रकृति पांच तत्वों अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश से निर्मित है। प्रकृति के मायावाद से पीठ फेरना ही जीव के लिए शुभ है। पांच तत्व प्रकृति के और पांचवां अक्षर देवनागरी का ‘उ’ है जो हमें बताता है कि मायावाद से पीठ फेरो और ईश्वर की ओर चलो। कहने का अभिप्राय है कि यहां से हटो और उधर चलो-ईश्वर की ओर। इसलिए ‘उ’ दूर के अर्थों में प्रयुक्त होता है। हम साधारण बोलचाल में दूर की चीज के लिए ‘उ’ का प्रयोग करते हैं। इसीलिए दूर के लिए ऊपर के लिए, वह के उकार का प्रयोग होता है। उग्र, उच्च, उक्त,उच्चारण,उचित उच्छिष्ट (छोड़ देना, बचा हुआ भोजन=दूर के अर्थों में) उत्कर्ष, उत्खनन, उत्क्रांति, उत्तर, उत्तेजक, उत्थान, उत्पत्ति, उत्पादन, उत्सर्ग, उत्सर्जन आदि ऐसे ही शब्द हैं, जो ‘उ’ के अर्थों को प्रकट करते हैं। कहीं पर भी हिंदी में ‘उ’ अक्षर से आरंभ होने वाला कोई शब्द निकट के अर्थों में या यह के अर्थों में या नीचे के अर्थों में प्रयुक्त नही हुआ है। पं. रघुनंदन शर्मा ने ‘वैदिक संपत्ति’ नामक अपनी पुस्तक में ‘उ’ की निचली आकृति को चित्र में दिये अनुसार इस रूप में लिखकर दूर के लिए इसकी समानता उंगली के इशारे के समान स्थापित की है। यह समानता बड़ी ही स्वाभाविक और प्राकृतिक है। इस अक्षर ‘उ’ के पश्चात अगला नागरी वर्ण ‘ऊ’ है। इसका उच्चारण स्थान होठों को माना गया है। यह अक्षर शिव (एक प्रकार से ऊं के कल्याणकारी स्वरूप के अर्थ में) चंद्रमा, आरंभ सूचक अव्यय के रूप में तो प्रयुक्त होता ही है साथ ही बुलावा, करूणा तथा सुरक्षा के लिए भी प्रयोग किया जाता है।

‘ऋ’

यह अक्षर बड़ा प्यारा है। बचपन में ऋ से ऋषि हमें पढ़ाया गया था। सारे वर्णों में यह अक्षर भी मानो पूर्णत: ऋषि ही है। ऋषि का अर्थ चिंतन का अधिष्ठाता माना गया है, अर्थात ऋत=सत्य के अनुसंधान और स्थापन में निरंतर रत रहने वाला वैज्ञानिक ऋषि कहा जाता है। निरंतर गतिशील और उन्नति शील जीवन का निरंतर प्रवाहमान रहने वाली सरिता का और निरंतर सत्यान्वेषी बनी रहने वाली प्रज्ञा शक्ति का प्रतीक है यह अक्षर। इसी से आर्य शब्द बना है। प्राचीन काल में यह एक ऐसा पंथनिरपेक्ष शब्द था जो हमारे राष्ट्रीय संबोधन का प्रतीक बन गया था। आजकल जैसे लोग किसी अनजान व्यक्ति के लिए श्रीमन या मान्यवर या सज्जन जैसे शब्दों का आदर के साथ संबोधन किया करते हैं वैसे ही प्राचीन काल में एक दूसरे के सम्मान में यह शब्द उच्चारित करके दूसरे की जीवन साधना को महिमा मंडित किया जाता था। इस प्रकार ऋ अक्षर हमारे लिए बहुत ही प्यारा है-इसी से हमारे पारिवारिक सामाजिक और राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण होता था क्योंकि आर्यत्व एक जीवन शैली है-जिसे ऋत सुंदरता प्रदान करता है। वेदों के मंत्रों को ऋचा इसीलिए कहा जाता है कि उनमें निरंतर उच्च से उच्चतर = सुंदर जीवन शैली प्रदान कराने और मोक्ष दिलाने की दिव्य शक्ति है-अर्थात आर्यत्व का अंतिम ध्येय। ऋतुएं बार बार पलटकर (निरंतरता की प्रवाहमानता को लेकर) आ रही हैं, उनकी इस प्रवाहमानता के पीछे प्रकृति के सनातन नियम काम कर रहे हैं-इसलिए वे ऋतुएं हैं। ऋतु=सत्य (अंग्रेजी का ञ्जह्म्ह्वह्लद्ध) इसलिए सत्य है कि उसमें भी प्रवाहमानता है, पवित्रता है, अटलता है, निर्मलता और निर्विकारता है।

पं. रघुनंदन शर्मा इस अक्षर की बनावट के लिए इसके दो रूप बनाते हैं। पहला है – यह और दूसरा – ये है। इसमें विद्वान लेखक पहले वाले रूप में इसके बाहय स्वरूप को रखते हैं तो दूसरे रूप में इसके भीतरी स्वरूप को रखते हैं। उन्होंने इसको गति और सत्य के समानार्थक माना है। उन्नति के भी बाहरी और भीतरी दो ही स्वरूप होते हैं। पवित्रता के भी बाहरी और भीतरी देा ही स्वरूप हैं, क्योंकि प्रदूषण भी बाहरी और भीतरी दो ही प्रकार का होता है। अन्य विद्वानों ने इस अक्षर के अर्थों को जाना हिलना, डुलना, प्राप्त करना, अधिगत करना, चलायमान करना, चोट पहुंचाना, फेंकना, स्थिर करना स्थापित करना, देना, सौंपना, इत्यादि अर्थों का उदघोषक माना है। ये सब भी सत्य और गति की ओर ही हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं। ऋचा, ऋज, ऋतु, ऋण, ऋत, ऋतु, ऋतुमती ऋद्घि (सफलता) ऋध, ऋषि, ऋष्यक=(बारहसिंगा हिरण) इत्यादि शब्द जीवन में गति और सत्य की ओर ही इशारा करते हैं, ऋ से प्रारंभ होने वाले शब्द इसीलिए हमें इन्हीं अर्थों में हिंदी और संस्कृत में प्रयुक्त होते मिलेंगे।

‘ए’

हिंदी वर्णमाला का अगला अक्षर ‘ए’ है। इंग्लिश में A से यह कतई भिन्न है। यह अक्षर स्मरण, ईष्र्या, करूणा, आमंत्रण, घृणा और निंदा व्यंजक (विस्मयादि-द्योतक) अव्यय माना गया है। यह स्थिर अपरिवर्तित, अद्वितीय, अनुपम आदि अर्थों की ओर भी इशारा करता है।

पं. रघुनंदन शर्मा जी ने अकार के मूलदंड के साथ इसकी आकृति चित्र के अनुसार बनाई है-अभिप्राय है कि दण्ड नही का अर्थ दे रहा है तो उसके दूसरी ओर गति करती रेखा उसमें आकर मिल रही है। इसलिए श्री शर्मा ने इस अक्षर के अर्थ-नही गति, गतिहीन, निश्चय, पूर्ण, अव्यय, ऐसे किये हैं। इसलिए यह अक्षर पूर्णतया और अखंडता का द्योतक माना गया है।

‘ऐ’

‘ऐ’ अक्षर भी लगभग उन्हीं अर्थों का प्रतिपादक है जिनका ‘ए’ अक्षर है। यह अक्षर बुलाने, स्मरण करने, आमंत्रण को प्रकट करने के अर्थों में प्रयुक्त होता है। ऐकमत्यम्=एकमतता ऐकांग=शरीर रक्षक दल का सिपाही, ऐकान्तिक=पूर्ण, ऐकाहिक = दैनिक ऐक्यम्=एकता आदि संस्कृत के ऐसे शब्द हैं जो ‘ऐ’ से आरंभ होते हैं और ए की भांति ही बनने वाले शब्दों में पूर्णता दिखाते हैं।

कई बार हम किसी व्यक्ति को ‘ऐ! सुनो’ कहकर भी बुलाते हैं-तब यह अक्षर बुलाने के अर्थों में प्रयुक्त होता है। स्मरण करते समय कई बार हम अपनी कनपटी पर ऊंगली रखकर ऐ….ऐ.. करते हैं…और हमें अपना विषय स्मरण हो आता है। तब यह अक्षर स्मरण कराने में हमें एकाग्रता प्रदान करता है। एकाग्र हो जाना भी किसी पूर्णता की ओर ही इशारा करता है। जबकि ए की स्थिति ऐ से कई बार अलग होती है।

जैसे ‘ए’ यह भी कोई व्यक्ति है-यहां घृणा प्रकट हो रही है। ‘ए’! यार उसका मकान बड़ा अच्छा था-यहां ईष्र्या बता रहा है। ‘ए’ बड़े दुख की बात है-यहां करूणा दिखा रहा है। ‘ए’ इधर आओ। यहां आमंत्रण दे रहा है।

‘ओ’

हिंदी वर्णमाला का यह अक्षर संबोधनात्मक, बुलावा देने वाला, स्मरण करना, करूणा बोधक विस्मयादिद्योतक माना गया है। हमने पूर्व में उल्लेख किया है कि अकार का अर्थ नही भी होता है। जैसे भाव में ‘अ’ लगाने पर अभाव हो गया, अर्थ ही बदल गया। इसी प्रकार उकार का अर्थ वह, अन्य दूसरा होता है। उंगली उठाकर आप किसी को ‘उ’ कहते हैं। जिसका अभिप्राय वह होता है। इस अकार और उकार से मिलकर ‘ओ’ बनता है। जिसका अर्थ हुआ दूसरा नही, वही, अन्य नही, ऐसा माना गया है। जब हम चिंतन, मंथन, या मनन के पश्चात किसी निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं तो अक्सर हमारे मुंह से, निष्कर्ष कई बार यूं प्रकट होता हे-सो, मैं इस मत पर पहुंचा हूं कि… यहां सो में ‘ओ’ छिपा है। जो बता रहा है कि मेरी राय में अब अन्य संशय नही रहा, बल्कि जो मैं बता रहा हूं वही सही है-अन्य मत नही, दूसरा विचार नही इत्यादि। यहां सो अत: और इसलिए का अर्थ निकालता है-जो कि अंग्रेजी में स्ह्र ज्यों का त्यों है। पर आया यह ‘ओ’ से है।

इस अक्षर को उदगीथ (ओ३म् को उच्चारकर गाना) के अर्थों में भी प्रयुक्त किया जाता है। आप ध्यान मग्न हो हाथ ऊपर करके ओ३म् का गान करें, तो आपके हाथों और सिर से जो चित्र बनेगा वह ‘ओ’ होगा। जिस प्रकार हम अपने इष्ट को बुला रहे हैं, उसमें आप ध्यान मग्न हैं उसी प्रकार ‘ओ’ बुलाने के अर्थों में भी प्रकट होता है। ओ३म्, ओज, ओजस्वी ओष्ठ, आदि शब्द इसी प्रकार के अर्थ प्रकट कर रहे हैं। जबकि ‘औ’ अक्षर शपथोक्ति अथवा संकल्प द्योतक अव्यय के रूप में भी आता है।

शेष इसके अर्थ ‘ओ’ जैसे ही माने गये हैं। जहां यह ‘उ’ के स्थान पर प्रयोग हो जाता है वहां ‘का’ का अर्थ निकालता है, जैसे औपनिषद=उपनिषद का।

 

ऐसे कराई जाए अक्षरों की पहचान

अ से अज-सर्वशक्तिमान ईश्वर जिसका जन्म नही होता। जो अजर और अमर है, अखण्ड और अविनाशी है। अनंत और अनादि है।

आ से आर्य-जीवन की उन्नत दशा और दिशा को दर्शाने वाले धीर वीर गंभीर और दिव्य गुणों से परिपूर्ण व्यक्ति का चित्र जो प्राचीन काल में भारत में आर्य के नाम से संबोधित किया जाता था। यहां के रहने वाले लोग आर्य, यहां की भाषा आर्य भाषा (संस्कृत) तथा देश का नाम आर्यावत्र्त था। कालांतर में भारतीय, भारती और भारत व हिंदू, हिंदी, हिंदुस्तान इसी समीकरण को पूर्ण कराने वाले शब्द कवियों और विद्वानों ने खोजे।

इ से इंदु-इन्दु चंद्रमा को कहते हैं। यह शब्द बड़ा ही प्यारा है। यूनानी इन्दु को इण्डु कहते थे। मुसलमानों से पूर्व भारतीय लोगों को इन लोगों ने इण्डु (सिंधु से इन्दु का उच्चारण किया जाना) या इन्दु इसलिए भी कहा था कि हमारे पंजाब और कश्मीर के जिन लोगों के संपर्क में यूनानी आए उनकी खूबसूरती चंद्रमा के समान थी।

ई से ईशान-शिव के रूप में सूर्य की मुखाकृति। शिव कल्याणकारी को कहते हैं सूर्य पूरे भूमंडल के जीवधारियों के लिए शिव कल्याण कारक है। इसलिए इस महान देवता के विषय में बताते हुए विद्यार्थियों को प्रारंभ से ही शिक्षा दी जाए।

उ से उत्सव-उत्सव जीवन में उत्स-उत्साह को उत्पन्न करते हैं। इससे जीवन संगीतमय बना रहता है। जीवन में इसलिए उत्सवों का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है।

ऊ से ऊषा-‘ऊ’ के लिए ऊषा-प्रात:काल के स्वैर्गिक वातावरण को दर्शाने वाला चित्र। बहुत ही सुंदर संस्कार देने वाला काल और जीवन को उन्नति में ढालने वाला पवित्र काल।

ऋ से ऋषि-चिंतन के अधिष्ठाता ऋषि का चित्र। पूरा भारतीय वांग्मय चिंतन की पराकाष्ठा तक पहुंचाने वाला और आनंद प्रदायक है। इस अक्षर के लिए ऋषि का चित्र ही सबसे उत्तम है।

ए से एकल-एकाकी व्यक्ति। एकाकीपन हमारे लिए ईश्वर भजन के लिए सर्वोत्तम होता है। प्राचीन काल में ऐसी अवस्था का उपयोग हमारे पूर्वज जीवन की साधना के लिए किया करते थे। एकाकीपन ईश्वरीय आनंद की अनुभूति कराने में सहायक होता है।

ऐ से ऐरावत-‘ऐरावत’ नामक इंद्र के हाथी का हमारे इतिहास में विशेष उल्लेख है। ऐरावत के माध्यम से बच्चों को इतिहास की झलक दिखायी जा सकती है।

ओ से ओ३म्-सृष्टि का सबसे प्यारा शब्द, ईश्वर का निज नाम। सर्वरक्षक ईश्वर सर्वान्तर्यामी सर्वाधार, सर्वेश्वर और सर्वव्यापक परमात्मा के सभी गुण, कर्म, स्वभाव का वाचक शब्द।

औ से औषधि – औषधियों का जीवन में विशेष महत्व है। बच्चों को औषधियों के चित्रों से स्वास्थ्य संबंधी जानकारी खेल खेल में दी जाए। हिंदी वर्णमाला में ये सारे अक्षर स्वर कहलाते हैं। संस्कृत में इनकी संख्या तेरह है स्वर उन वर्णों को कहा जाता है जिन्हें बोलते समय किसी दूसरे वर्ण की सहायता न लेनी पड़े।

तनिक सोचें: गुरूनानक ने सिखों को नाम के पीछे सिंह लगाना सिखाया तो सिख जाति संसार की सबसे बहादुर कौम बनी। महर्षि दयानंद ने हमें आर्य शब्द दिया तो भारत में ज्ञान विज्ञान की धूम मच गयी। इसलिए उ से उल्लू और ग से गधा बनने की बजाए अपने वर्णों के वैज्ञानिक अर्थों को समझकर उनके अनुसार चित्र बनाकर बच्चों को वैज्ञानिक बुद्घि का बनाना शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। इसलिए उपरोक्तानुसार पढ़ाया जाना आवश्यक है।

 

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

14 COMMENTS

  1. An excerpt from “Justice Markandey Katju’s reply to two students who want to sue him” NDTV.com; Updated: December 10, 2012.

    3. The English alphabets are all arranged haphazardly, there is no reason why D is followed by E, or E by F, or F by G, etc. On the other hand Panini in the first 14 sutras of his Ashtadhyayi arranged the alphabets in Sanskrit scientifically. Thus , the first sequence of 5 consonants (the ka varga i.e. ka, kha, ga, gha, na ) are all sounds which emanate from the throat, the second sequence from the middle of the tongue, the third from the roof of the mouth, the fourth from the tip of the tongue, and the fifth from the lips. The second and fourth consonants in each sequence are aspirants in which the sound ‘ha’ is combined with the previous consonant e.g. ka+ha =kha.

  2. very good article.

    Hindi’s simplicity lies in India’s simplest Nuktaa and Shirorekhaa free Gujarati script.
    Praising Hindi language is easier than teaching.How will you teach complex script and grammar to others?
    Most foreigners learn Sanskrit in Roman script. Why?
    India can retain two languages state formula by learning Hindi in regional state language script via script converters.
    For some it’s difficult to learn third language.Those who promote Hindi know English very well but encourage others to learn Hindi only and deprive them from global general knowledge.
    You may read these articles.
    https://jainismus.hubpages.com/hub/Is-Sanskrit-The-Language-of-Gods
    https://jainismus.hubpages.com/hub/Using-Roman-Alphabets-for-Hindi-Language

    • Hindi is unique for its Devnagari script and must not be modified in any form whatsoever just because it is hard for someone interested in the language. There has been a nefarious debate on whether or not Hindi should be written in Roman script. Even after two centuries of British occupation of Indian sub-continent, English could never substitute the rich literary languages in regions across the country. Not even during the past sixty-five years that the language reigned freely through our educational institutions. We do not have to experiment with Roman transliteration for it will kill the very spirit of Hindi language, its Devnagari script, and should the foreign-looking monster prevail, the language itself.

      • Here is Roman transliteration that restores the beauty of Devanagari script and revives Brahmi script having many letters resembling to Roman script. Westerners were able to simplify Brahmi script to their proper use but Sanskrit pundits ended up creating various scripts under different rulers to divide India.

        अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ ए ऐ ओ औ ऍ ऑ अः
        क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ
        ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म
        य र ल ळ व ह श ष स
        क़ ख़ ग़ ज़ ड़ ढ़ फ़ ऱ ऴ
        अं आं इं ईं उं ऊं एं ऐं ओं औं
        अँ आँ इँ ईँ उँ ऊँ एँ ऐँ ओँ औँ

        અ આ ઇ ઈ ઉ ઊ ઋ ૠ એ ઐ ઓ ઔ ઍ ઑ અઃ
        ક ખ ગ ઘ ઙ ચ છ જ ઝ ઞ
        ટ ઠ ડ ઢ ણ ત થ દ ધ ન પ ફ બ ભ મ
        ય ર લ ળ વ હ શ ષ સ
        ક઼ ખ઼ ગ઼ જ઼ ડ઼ ઢ઼ ફ઼ ર઼ ળ઼
        અં આં ઇં ઈં ઉં ઊં એં ઐં ૐ ઔં
        અઁ આઁ ઇઁ ઈઁ ઉઁ ઊઁ એઁ ઐઁ ૐ ઔઁ

        a ā i ī u ū ṛ ṝ e ai o au ă ŏ aḥ
        ka kha ga gha ṅa cha chha ja jha/za ña
        ṭa ṭha ḍa ḍha ṇa ta tha da dha na pa pha/fa ba bha ma
        ya ra la ḷ a va ha sha ṣa sa
        ḳ a ḳha g̣a j̣a d̤a d̤ha f̣a ṛa l̤a
        ȧ ā̇ ï ī̇ u̇ ū̇ ė aï ȯ au̇
        a̐ ā̐ i̐ ī̐ u̐ ū̐ e̐ ai̐ o̐ au̐……..Roman Diacritics

        Ṭhukarā do yā pyār karo ………Kāvya

        Dev! tumhāre kaī upāsak kaī ḍhȧg se āte haï
        sevā mė bahumūly bhėṭ ve kaī rȧg kī lāte haï

        dhūmadhām se sāj-bāj se ve mȧdir mė āte haï
        muktāmṇi bahumuly vastuaï lākar tumhė chad̤hāte haï

        maï hī hū̐ garībinī aisī jo kuchh sāth nahī̇ lāyī
        phir bhī sāhas kar mȧdir mė pūjā karne chalī āyī

        dhūp-dīp-naivedy nahī̇ hai jhā̇kī kā shrṛ̇gār nahī̇
        hāy! gale mė pahanāne ko phūlȯ kā bhī hār nahī̇

        kaise karū̐ kīrtan, mere svar mė hai mādhury nahī̇
        man kā bhāv prakaṭ karne ko vāṇī mė chātury nahī̇

        nahī̇ dān hai, nahī̇ dakṣiṇā khālī hāth chalī āyī
        pūjā kī vidhi nahī̇ jānatī, phir bhī nāth chalī āyī

        pūjā aur pujāpā prabhuvar isī pujārin ko samajho
        dān-dakṣiṇā aur nichhāvar isī bhikhārin ko samajho

        maï unamatt prem kī pyāsī hṛaday dikhāne āyī hū̐
        jo kuchh hai, vah yahī pās hai, ise chad̤hāne āyī hū̐

        charaṇȯ par arpit hai, isko chāho to svīkār karo
        yah to vastu tumhārī hī hai ṭhukarā do yā pyār karo

        Subhadrākumārī Chauhān

  3. भारत भूमि ही संसार की सर्व संस्कृतियों की जननी है, भाषाओँ की जननी है (कालान्तर में लोग इसे भूल गए ये बात अलग है). यही ज्ञान की भूमि विज्ञान की भूमि है। पुनः संसार को इसी के आगे झुकना ही होगा। भाषा की महत्ता और वैज्ञानिकता को दर्शाता सुंदर लेख। …… बहुत ही सार्थक प्रयास।

    सादर,

  4. राकेश कुमार आर्य भाई का लेख बहुत ही ज्ञानवर्धक है ।हृदय से धन्यबाद ।

  5. बहुत सुंदर लेख है| मैं इस लेख को बार बार पढूंगा ताकि इसकी गहराई को ठीक प्रकार समझते हुए मैं लेख की चिरकाल तक प्रशंसा करता रहूँ| आपको मेरा सह्रदय साधुवाद|

    • श्रीमन इंसान जी, आपकी टिप्पणी के लिए हृदय से आभार।वास्तव में यह मेरा प्रयास नहीं आपके प्रेम और विश्वास का प्रयास है और मैं इसे आपकी सहृदयी टिप्पणी के साथ पुनः लौटा रहा हूँ।

      • सर लेख बहुत बढिय है पर गुरु नानक जी ने नाम के साथ सिंह नहीं जोडा था यह दसवें गुरु गोबिंद जी ने जोडा था।

  6. लेखक का समग्र-सुंदर आलेख, उसका अंत हृदयंगम किया जाए। पढाते पढाते, बालकों पर, अनजाना संस्कार हो जाता है; और चेतना की अलक्ष्यित गहराई में पहुंच कर दीर्घ परिणामी फल देता है। और ग्रंथिंयाँ (लघु या गुरू) विकसित होती है।ऋषि पतंजली के अनुसार प्रत्येक स्मृति का ही संस्कार में योगदान है।
    ===>
    “गुरूनानक ने सिखों को नाम के पीछे सिंह लगाना सिखाया तो सिख जाति संसार की सबसे बहादुर कौम बनी।
    महर्षि दयानंद ने हमें आर्य शब्द दिया तो भारत में ज्ञान विज्ञान की धूम मच गयी।
    इसलिए उ से उल्लू और ग से गधा बनने की बजाए अपने वर्णों के वैज्ञानिक अर्थों को समझकर उनके अनुसार चित्र बनाकर बच्चों को वैज्ञानिक बुद्घि का बनाना शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए।,,,”
    बहुत बहुत धन्यवाद।

    • श्रद्धेय डाक्टर साहब,आपका प्रेम और अपनापन मुझे निरंतर मिल रहा है और आपने इस लेख को अपने व्यस्त समय में से समय निकालकर दोबारा भी पढ़ा तो यह तो आपने सचमुच मेरी लेखनी पर कृपा ही की है। हम बौद्धिक अहंकार में न भटके और ईश्वर हमारी बुद्धि को सदा अहंकार शून्य और पवित्र बनाए रखे ,ऐसी प्रार्थना जब हम उस परमपिता परमेश्वर से करते है तो आप जैसे विद्वानो से तो छोड़िए छोटे से छोटे व्यक्ति से भी हमे कुछ लेने के लिए तैयार रहना चाहिए । हमे उज्जवल भारत का निर्माण करना है।अतः मतेक्यता स्थापित करने के लिए बौद्धिक संतुलन बनाकर ही चलना होगा।बौद्धिक अंधकार में भटकने वाले लोग महाविनाश को निमंत्रण देते है।आप जैसे विद्वानो की भाति ही मैं भी इसी मत का हूँ कि संस्कृत सभी भाषाओ की जननी है। वास्तव में तो भाषा तो केवल संस्कृत है जिसे हम आपके शब्दो में देववाणी कहते है शेष जितनी कथित भाषाएँ है वे सब बोलियां है जो संस्कृत से निकली और कालांतर में अपनी-अपनी पैठ लगा बैठी। संस्कृत से संपर्क टूटने का ही यह परिणाम था। बाद में किसी बोली को किसी संप्रदाय ने या संप्रदाय के संस्थापक ने या किसी बड़े राजवंश ने जितने-जितने अनुपात में मान्यता दी वैसे ही वह बोली से भाषा बना दी गई जैसे संप्रदाय को धर्म बता दिया गया जब संस्कृत/हिन्दी का युक्ति शब्द बिगड़कर जुगति,जुगत और जुगाड़ जैसे विकृत शब्द तक पहुँच सकता है जिसे एक अंजान व्यक्ति पढे तो यह अनुमान नहीं लगा सकता कि यह युक्ति का विकृत स्वरूप है तो हम और आप जैसे लोग संस्कृत से निकली सभी भाषाओ के मूल शब्दो को पकड़ नहीं पाएंगे परंतु फिर भी प्रयास तो करने ही चाहिए।उसके लिए मैं आपके लेखो को निरंतर पढ़ रहा हूँ और आपसे और आपके लेखो से अपने पत्र के पाठको को भी लाभान्वित कर रहा हूँ । आपका प्रयास अभिनंदनीय है अपने प्रति दर्शाए गए प्रेम और अपनत्व के भाव । आपका हृदय से आभारी हूँ ।

    • श्रीमान संजय जी आपकी उत्साहजनक टिप्पणी के लिए धन्यवाद।हम पर भारत माँ का ऋण है और उसे चुकाने के लिए हम और आप साथ साथ आगे बढ़ रहे है उसमे कितने सफल होंगे बात यह नहीं है बल्कि बात ये है कि हम और आप उस दिशा में क्रियाशील है आप आज के संजय हो ना कि महाभारत का संवाद सुनाने वाले संजय हो आज आप संवाद लिख रहे है कल कोई उसे सुनाएगा।धन्यवाद।

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