हास्य-व्यंग्य : रपट कूकर कॉलौनी की

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मैं नगर के सबसे पॉश इलाके में रहता हूं। चाय के उत्पादन से लिए जैसे दार्जिलिंग और बरसात के मामले में चेरापूंजी की प्रतिष्ठा है,ठीक वैसे ही कुत्तों के मामले में हमारी कॉलौनी का भी अखिल भारतीय रुतबा है। एक-से-एक उच्चवर्णी और कुलीन गोत्रों के कुत्ते इस कूकर कॉलौनी में निवास करते हैं। इसलिए ही इस कुत्ता बाहुल्य भूखंड को सभ्यसमाज में पॉश कॉलौनी के नाम से जाना जाता है। वैसे यहां के रहनेवाले अज्ञानतावश यह समझते हैं कि उनके यहां रहने से कॉलोनी पॉश कॉलोनी कहलाती है। नीरस ज़िंदगी को चंद गलतफहमियों और मुगालतों के जरिए यदि छोटा आदमी चार्मिंग बनाने की हरकतें करता हैं तो ऊंचे लोग इन्हें नज़रअंदाज़ करने की उदारता दिखाकर,अपने बड़े होने का हमेशा सबूत देते हैं। इस बड़प्पन के कारण ही आजतक किसी सामाजिक संगठन ने कॉलौनीवासियों के इस अंधविश्वास के खिलाफ कोई आवाज़ नहीं उठाई है। उन्हें विश्वास है कि जैसे नवजात पिल्लों की बिना किसी आंदोलन के अपने-आप आंखें खुल जाती हैं,वैसे ही इस कुत्ता-बाहुल्य कॉलौनी के निवासियों की भी एक-न-एक दिन आंखें ऑटोमेटिकली खुल जांएगी। और तब इन्हें इस बात का आत्मबोध होगा कि उनकी समाज में जो भी कुल जमा पचास ग्राम इज्जत है,वह भी इन संभ्रांत,कुलीन कुत्तों के ही केअर ऑफ है। वरना ऐसी नस्ल के आदमी तो देश की तमाम कॉलौनियों में यूं ही पड़े रहते हैं। कौन पूछता है,इन्हें। इक्कीसवीं सदी में तो दो कौड़ी की इज्जत नहीं रही है आदमी की। हां,अगर आदमी कोई कुत्ता हो तो बात दीगर है। ऐसे सिद्ध मानव जो कठोर तपस्या और निरंतर अभ्यास के बाद कुत्तत्व को उपलब्ध होते हैं, उन पहुंचे महाप्रज्ञाश्वानों को तो भक्तगण श्री-श्री 108 स्वामी श्वानानंदजी महाराज या इसी तर्ज पर की कोई और कीमती उपाधि से सम्मानित कर अपने अहोभाव की अभिव्यक्ति करते हैं। पर ऐसे सिद्ध तेजस्वी श्वानी होते कितने हैं। ठीक वैसे ही जैसे दाढ़ी-मूंछ बढाकर लाखों बहुरूपिए सड़कों से लेकर आश्रम तक रेंगते-बिलबिलाते मिल जाएंगे मगर हर साधु कोई गौतम बुद्ध थोड़े ही हो जाता है। वैसे चाहता हर महत्वाकांक्षी आदमी है कि वह कुत्ता हो जाए और पूंछ हिलाकर वह भी नौकरी में प्रमोशन,व्यापार में धन और राजनीति में उच्चपद पर पहुंच जाए मगर कितनें हैं जो समग्रता से परम कुत्तत्व को उपलब्ध हो पाते हैं। तमाम आधे-अधूरे लोगों का जमघट है,यह समाज। जहां ना आदमी पूरा आदमी है और ना पूरा कुत्ता। श्वान सिद्धि के मार्ग के पथभ्रष्ट योगी। जो न गृहस्थ हैं न साधु। मौका देखते ही आश्रम में फेमिली बसा लेते हैं। और अधिकारी हैं तो घर बसाने के साथ-साथ स्टेनो के साथ ऑफिस भी बसा लेते हैं। ऐसे ही आधे-अधूरे लोगों से बसी है ये कॉलौनी। जिसकी शौहरत इन इज्जतदार कुत्तों के कारण ही बनी और बढ़ी है। जहां के कुत्ते हैं तो जन्मजात कुत्ते ही मगर उन्होंने आदमियत भी खूब कमाई है। इन कुत्तों की आदमियत ही अब आदमियों की आदमियत नापने का बैरोमीटर बन गई है। कोई प्रतिभाशाली आदमी यदि इस कसौटी पर सत्ताइस कैरेट का खरा सोना उतरता है तो लोग ससम्मान घोषणा करते हैं कि वो साला…बड़ी कुत्ती चीज़ है। और इस अलंकरण को पाकर वह विजेता भी ऐसे ही ऐंठ जाता है जैसे कि फिरंगियों के जमाने में रायबहादुर का खिताब हथियाने के बाद चंट-चापलूसों की चाल में अकड़ आ जाती थी। आजकल कुत्ता होना आदमी की बहुमुखी प्रतिभा के पंचमुखी पराक्रम का गोल्डमैडल है। अब देखिए न मैदान में खेलते तो तमाम खिलाड़ी हैं मगर गोल्डमैडल हर किसी को थोड़े ही मिल जाता है। हम सब कुत्तत्व के ओलंपिक स्टेडियम के छोटे-बड़े खिलाड़ी हैं। सभी अपनी-अपनी क्षमताओं के साथ खेलते हैं। मगर जो जीता वही सिकंदर। और जो कभी नहीं जीता वो रेफरी। अपुन तो इतने प्रतिभावान हैं कि कुत्तत्व-प्रतियोगिता के फर्स्ट राउंड में ही घर धकेल दिए गए। तो लिखने पर आमादा हो गए। क्या हुआ जो सफल कुत्ते नहीं बन सके। लेखक होकर सफल कुत्तों का गुण-गान तो कर ही सकते हैं। कुत्तत्व, करिअर में सफलता की पराकाष्ठा है। और प्रेम में मुहब्बत का क्लाइनेक्स भी। अक्सर जब लड़की मूड में आती है तो दांतों को भींचकर,होठों को कान तक खींचकर और फिर अपने प्रेमी पर रीझकर जबान को जबानी के रस में डुबाकर पूरी अदा के साथ कहती है-साले कुत्ते। लड़कपन में मुझे भी एक बार एक कन्या ने इस शाश्वत अलंकरण से सम्मानित किया था। मुझे उसकी डायलाग डिलीवरी इतनी भायी कि मैंने स्वेच्छा से उसके कुत्ते का पूर्णकालिक आजन्म पद स्वीकार कर लिया। और फिलहाल वीआऱएस लेने का कोई इरादा भी नहीं है। क्योंकि कुत्ता प्रतियोगिता में हमेशा ससम्मान पराजित रहने के बाद यह मानद उपाधि मुझे मिली है,इसे मैं कैसे छोड़ सकता हूं। चलिए अब आपको हम अपनी कॉलौनी की मुफ्त सैर भी करा दें। क्या कहा आपको कॉलौनी दिख नहीं रही। तो ध्यान दीजिए और याद कीजिए। आपके कमरे में यदि किसी छिपकली या तिलचट्टे का आकस्मिक निधन हो जाए और इस गुमनाम शहादत की आपको भनक तक ना लगे। और फिर एक दिन अचानक अपने कमरे में चींटियों का महाकुंभ देखकर आप चौंक पड़े। जहां चींटिंया तो दिखती हैं मगर तिलचट्टे या छिपकिली का पार्थिव शरीर नहीं दिखता। कुछ ऐसा ही नजारा है हमारी कॉलौनी का। जहां कुत्ते दृष्टिगोचर होते हैं और कॉलौनी अगोचर। कुत्तों के कुत्तत्व के कोहरे में डूबी कॉलौनी। माला के धागे की तरह। जिसके फूल दिखते हैं। मगर माला का धागा नहीं। ऐसे ही यहां कुत्ते दिखते हैं,कॉलौनी नहीं। सुबह मॉर्निंगवॉक पर मालिक को ले जाते कुत्ते,मैमसाहिबा को शॉपिंग पर ले जाते कुत्ते, प्रेमिका को प्रेमी से मिलवाने ले जाते कुत्ते और-तो-और रेजीडेंटवेलफेयर एसोसीएशन के दफ्तर में समस्याओं को सुनते-सुनाते कुत्ते। भूले-भटके कोई अजूबा आदमी कॉलौनी में आ जाए तो सिक्योरिटी चैकिंग के नाम पर उसकी रैगिंग करते कुत्ते। यत्र-तत्र-सर्वत्र कुत्ते-ही-कुत्ते। कॉलौनी में रहनेवालों की पर्सनैलिल्टी का ऐसा कुत्तईकरण हुआ है कि यदि किसी के कान में खुजली भी मचती है तो वह हाथों से खुजाने की बजाय पांव से कान खुजाता है। बिजली का खंभा दिखता है तो, टांग उसकी अपने आप उठने लगती है। चाल में ऐसा डॉगीय बांकपन,लगता है कि जैसे कोई कुत्ता दो हाथों को ऊपर उठाकर चले। अभी एक पड़ौसी के यहां कोई मिलनेवाले आए। उन्होंने उनको,ब्रूनो,जॉर्ज,टाइगर,लायन और शेरू अपने पैट्स के नाम बताए।. मिलनेवाले बहुत खुश हुए। बोले- कुत्तों के नाम तो आपने बहुत अच्छे रखे हैं। वाय दि वे आपका शुभनाम क्या है। वह गर्व से बोले-टॉमी। यह कहकर मिलनेवाले से हाथ मिलाने के लिए टॉमी ने अपना पंजा आगे बढ़ा दिया। साथ ही मिलनेवाले को होमियोपैथिक हिदायत दी कि- आइंदा वो कुत्तों को कुत्ता न कहें। क्योंकि पढ़े-लिखे समाज में अब कुत्तों को कुत्ता नहीं कहा जाता है। इससे कुत्ते और कुत्तों के मालिक दोनों को बुरा लग सकता है। आप इन्हें डॉगी या पैट्स कहकर ही संबोधित किया करें। पढ़े-लिखे समाज का यही लेटेस्ट फैशन है। साथ ही ध्यान रखें कि ग्लोबलाइजेशन को दौर में कुत्ते काफी पढ़े-लिखे होने लगे हैं। इनसे अब आप जब भी बात करें तो प्लीज अंग्रेजी में ही करें। हिंदी ये नहीं समझते हैं। और सरकार के हिंदी पखवाड़ों को उन्होंने आजतक कभी सीरियसली नहीं लिया है। हमारे कई साथी तो रेपीडेक्स लाकर घर में अंग्रेजी इसीलिए सीख रहे हैं ताकि कुत्तों से बात करने का सलीका सीख सकें। और सुनिए..हिंदी की तरफदारी करके आपने अपना भविष्य तो चौपट कर ही लिया,कम-से-कम इन कुत्तों के फ्यूचर से तो खिलवाड़ न करें। बल्कि हो सके तो इनसे कुछ मॉडर्न सोसायटी के टिप्स लें, मसलन-सेकुलरिज्म (कुत्ते हमेशा धर्मनिरपेक्ष होते हैं) बॉस के प्रति वफादारी और लिव इन रिलेशन में आस्था। लिव इन रिलेशन की थ्यौरी मनुष्य को इन फन-लविंग कुत्तों की ही देन है। और ये आजकल काफी चलन में भी है। न शादी की झंझट ना तलाक का लफड़ा। कुत्तों की ईमानदारी का जलबा तो ये है कि परिवर्तनवादी लोग जल्दी ही इस बात का आंदोलन शुरू करने जा रहे हैं कि देश की राजनीति को अब आदमी की जगह कुत्तों से संचालित किया जाना चाहिए। इससे आर्थिक घोटाले और जातिवादी सर्कस एकदम बंद हो जाएंगे और देश फटाफट सुपर पावर बन जाएगा। वैसे भी बड़ी और वीआईपी वारदातों में पुनर्जन्म की विश्वासी जनता यह मानकर चलती है कि अगर जांच दल में पुलिस के अलावा कुत्ते भी शामिल हों तो अपराध-सूत्र को सूंघते हुए असली अपराधी तक इसी जन्म में ईमानदारी से पहुंचा जा सकता है। कुत्ते सतयुग से लेकर कलियुग तक आदमी के साथ रहे हैं। गुरु द्रोणाचार्य जब अर्जुन को तीर चलाना सिखा रहे थे तो कुत्ता उनके भी साथ था। एकलव्य को देखकर कुत्ता भौंकने लगा। एकलव्य ने तब तीर चलाकर उसका मुंह बंद कर दिया। कुत्ते के अपमान से द्रोणाचार्य आग बबूला हो उठे। तब चतुर एकलव्य ने अपना अंगूठा काटकर उसकी चूसनी बनाकर गुरुदेव के मुखमंडल में प्रविष्ट करके गुरू और गुरु के क्रोध दोनों को काबू में कर लिया। वरना बड़ा झंझट हो जाता। हमारी कॉलोनी में एक फौजी के कुत्ते को बाहर के एक सिरफिरे लड़के ने पत्थर मार दिया। फौजी ने लड़के को गोली मारकर ही अपने श्वान के अपमान का हिसाब चुकता किया। जब फौजी ये काम कलियुग में कर सकता है तो सतयुग में द्रोणाचार्य भी अपने डॉगी के अपमान के जुर्म में एकलव्य को जिंदा थोड़े ही छोड़ते। एकलव्य बहुत समझदार बालक था। सस्ते में छूट गया। कुत्ता मेल हो या फीमेल इतिहास दोनों ही रचते हैं। अगर लायका नामक डॉगी ने सबसे पहले अंतरिक्ष यात्रा कर के इंसानों को अंतरिक्ष प्रतियोगिता में पछाड़कर कुत्तत्व का एक अदभुत कीर्तिमान बनाया तो वहीं पांडवों को स्वर्ग द्वार तक पहुंचाकर कुत्तों ने यह सिद्ध कर दिया कि वे कुत्ता हों या कुतिया आदमी से हमेशा श्रेष्ठ हैं। जरा सोचिए कि किसी कुतिया के लिए भारत में ही नहीं विश्व में कहीं भी, किसी कुत्ता समुदाय में, कहीं,किसी काल में कोई महाभारत नहीं हुआ। हां गली-कूंचे में थोड़ी-बहुत चैटिंग करली, वो अलग बात है। मुहल्ले स्तर की रैगिंग तो फ्रेशर के साथ कॉलेज स्टूडेंट भी कॉलेज में करते ही हैं। हो सकता है कि इसकी भी प्रेरणा उसे श्वान समाज से ही मिली हो। जैसे कि वफादारी और धर्मनिरपेक्षता की मिली है। ग्रामाफोन के भौंपू पर अपने स्वर्गीय मालिक की आवाज़ सुनकर सारी ज़िंदगी काट देनेवाले स्वामीवृता कुत्ते भगवान भैंरों, दत्तात्रेय और एडीसन से लेकर मुझ तक सभी को प्रिय हैं। कुत्तों से हमारे जनम-जनम का नाता है। लेटेस्ट मेडिकल सर्वेक्षम के मुताबिक हर आदमी के डीएनए में एक कुत्ता टहलता है। और गोपनीय या सार्वजनिकरूप से हर आदमी मौका देखकर कुत्ता होना चाहता है। चाहे वह व्हाइट हाउस में हो या फार्महाउस में। अभी एक धार्मिक ग्रंथ में खोजा तो कुत्तों की एक दुर्लभ वंदना प्राप्त हुई। इस मौलिक एवं अप्रकाशित वंदना को मैं आज जनहित में जारी करते हुए अनेक तीर्थयात्राओं का पुण्य हथिया रहा हूं।

अथश्री श्वान वंदना-

लंबाकारम,स्ट्रीटशयनम वक्रपुच्छम,

तीक्ष्ण पंजम,डॉगी महे

दिन-रात भौंकम,निद्राय चौंकम

श्वान श्रेष्ठम नमो नमः।

(इतिश्री कुत्ताय कथा।)

2 COMMENTS

  1. कुत्ता पच्चीसी के इस मोहजाल से बड़ी मुश्किल से छूटा. कई दिनों के बाद इतना अच्छा व्यंग्य नज़र में आया. नीरव जी आपने सचमुच कुत्तत्व का गहन अध्ययन किया है.कुत्ते ही हर जगह अपना वर्चस्व बना रखने में सक्षम हैं क्योंकि वे भोंकने की कला में पारंगत हैं.

  2. हास्य-व्यंग्य : रपट कूकर कॉलौनी की – by – पंडित सुरेश नीरव

    मॉर्निंगवॉक पर मालिक को ले जाते कुत्ते
    साला…बड़ी कुत्ती चीज़ है
    साले कुत्ते, आइंदा कुत्तों को कुत्ता न कहें

    कुत्ते हमेशा धर्मनिरपेक्ष होते हैं – लिव इन रिलेशन की थ्यौरी मनुष्य को इन फन-लविंग कुत्तों की ही देन है

    श्वान श्रेष्ठम नमो नमः

    – अनिल सहगल –

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