“अयोध्या फैसला : लोकतंत्र के समक्ष चुनौतियां’’ पर वाराणसी में सम्मेलन

 वाराणसी 28 नवंबर 10/ अयोध्या फैसला लोकतंत्र के समक्ष चुनौतियां विषय पर मैत्री भवन में हुए सम्मेलन में लोकतंत्र के चारों स्तंभों के भूमिका और उनकी गैरजिम्मेदारी पर सवाल उठाए गए। जहां प्रथम सत्र में इतिहास के आइनें में कानून की भूमिका पर बात हुयी तो वहीं द्वितीय सत्र में लोकतंत्र के धर्मनिरपेक्षता जैसे बुनियादी मूल्य के प्रति  मीडिया और राजनीतिक दलों की प्रतिबद्धता पर भी सवालिया निशान लगाए गए।

  अयोध्या फैसला कानून का मजाक और सांप्रदायिक राजनीति से प्रेरित है। यह बात  इलाहाबाद हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता रविकिरन जैन ने कहते हुए कहा कि न्यायपालिका में बढ़ता राजनीतिक हस्तक्षेप लोकतंत्र के भविष्य के लिए खतरनाक है। वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया ने सांप्रदायिकता को बढ़ाने में संविधानिक संस्थाओं की भूमिका का जिक्र करते हुए कहा कि अयोध्या फैसले को सिर्फ मंदिर-मस्जिद तक सीमित करके नहीं देखना चाहिए बल्कि इसके बहाने राज्य स्वंय अपने घोषित लोकतांत्रिक मान्यताओं को ध्वस्त करने का अभियान चलाएगा। पीयूसीएल के प्रदेश अध्यक्ष चितरंजन सिंह ने कहा कि इस फैसले पर कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों के रवैए के कारण मानवाधिकार संगठनों की भूमिका बढ़ गयी है। सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए गांधी संस्थान के अध्यक्ष दीपक मलिक ने कहा कि इस फैसले से न्यायपालिका ने भविष्य के विध्वंसक राजनीति और सांप्रदायिक कत्लेआम के लिए रास्ते खोल दिए है।
  मैग्सेसे पुरस्कार द्वारा सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडे ने कहा कि सांप्रदायिक तत्वों को पूरी व्यवस्था संरक्षण दे रही है जबकि पूरे देश में लोकतांत्रिक की आवाज उठाने वालों का दमन किया जा रहा है। लखनउ हाई कोर्ट के अधिवक्ता मो0 शोएब ने कहा कि अगर अब आस्था के आधार पर ही फैसले होंगे तो कोई भी कहीं भी आस्था के आधार पर दावा कर सकता है, इससे न्यायिक अराजकता फैल जाएगी। सुनील सहस्त्रबुद्धे ने कहा कि न्यायालय सांप्रदायिक तत्वों के आस्था को कानूनी वैधता तो दे रहा है लेकिन आदिवासियों की आस्था और मान्यताओं के साथ खिलवाड़ कर उन्हें उनके जल-जगल-जमीन से उजाड़े जाने पर न्यायपलिका क्यों चुप रहती है। 
  डिबेट सोसाइटी द्वारा आयोजित सम्मेलन में मो0 आरिफ, जहांगीर आलम, प्रशांत शुक्ला, चित्रा सहस्त्रबुद्धे, आनंद दीपायन आदि ने भी अपने विचार रखे। सम्मेलन में शाहनवाज आलम, अंशु माला सिंह, मनीष शर्मा, राजीव यादव, राघवेंद्र प्रताप सिंह, लक्ष्मण प्रसाद, बलबीर यादव, तारिक शफीक, आनंद, गुरविंदर सिंह, ताबिर कलाम, शशिकांत, यूसुफ, ज्ञान चंद्र पांडेय, विनोद यादव, मसीहुद्दीन संजरी आदि मौजूद रहे।सम्मेलन के प्रथम सत्र का संचालन एकता सिंह और द्वितीय सत्र का संचालन गुंजन सिंह ने किया और रवि शेखर ने धन्यवाद ज्ञापित किया।

4 COMMENTS

  1. मित्तल साहब आपने मेरी टिप्पणी को ही पोस्ट कर दिया आपके स्वतंत्र विचार भी तो भेजिए.

  2. यदि इस तरह के सेमिनारों से लोकतंत्र या उसका कोई भी स्तम्भ दोषमुक्त होता है -तो स्वागत है ,किन्तु यदि कोई बहुत पुराना और संवेदनशील मुद्दा बिना टकराव के आपसी रजामंदी या न्याय पालिका की देख रेख में निष्पादित होता है तो निरपेक्ष सत्य का दुराग्रही होना ठीक नहीं .किसी भी पक्ष को जब ९० दिन की अपीलीय अवधि दी गई तब तक उसके नकारात्मक विमर्श से लोगों को बचना चाहिए .

  3. यदि इस तरह के सेमिनारों से लोकतंत्र या उसका कोई भी स्तम्भ दोषमुक्त होता है -तो स्वागत है ,किन्तु यदि कोई बहुत पुराना और संवेदनशील मुद्दा बिना टकराव के आपसी रजामंदी या न्याय पालिका की देख रेख में निष्पादित होता है तो निरपेक्ष सत्य का दुराग्रही होना ठीक नहीं .किसी भी पक्ष को जब ९० दिन की अपीलीय अवधि दी गई तब तक उसके नकारात्मक विमर्श से लोगों को बचना चाहिए .

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