दशा और सम्भावनाएं-बाल साहित्य की

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bal sahityaडा.राज सक्सेना

डा.राज सक्सेना

बाल साहित्य लेखन कोई बच्चों का खेल नहीं है | व्यापक क्षेत्र के बावजूद

सीमित सीमाओं ने इसे कठिन बना दिया है | इसे हम इस तरह भी कह सकते हैं कि

बच्चों के लिये लिखने की कला लगभग ऐसी ही है जैसे बच्चों को पाल पोस कर बड़ा

करना कितना कठिन एंव श्रम साध्य कार्य है | वस्तुतः जो कुछ भी बच्चों के बारे में

लिखा जाता है वह बालवाड़्मय है  यह किसी भी दशा में सही नहीं है | सच्चा बाल-

वाड़्मय वही कहा जा सकता है जो बच्चों के लिये लिखा जाता है | साहित्य का सृजन

स्वान्तः सुखाय माना जाता है | यूं तो कला कला के लिये और कला उपयोगिता  के

लिये का विवाद सम्भवतः ललित कलाओं के जन्म से ही प्रारम्भ हो चुका था और –

स्वान्त;सुखाय तथा सत्यम शिवम सुन्दरम का लक्ष्य भी निर्धारित किया जा चुका था |

इस विवाद के रक्तबीज होने का रहस्य यह है कि कसौटी पर देश,काल और परिस्थिति

में से किसी भी एक के बदल जाने पर पुनर्मूल्यांकन की चर्चा आवश्यक हो जाती है |

यही बात बाल साहित्य पर भी शब्दश; सही बैठती है और खरी भी उतरती है |

यहां यह कहना भी आवश्यक हो जाता है कि साहित्य की व्याख्या में

मुख्य रूप से दो दृष्टिकोणों से अनुशीलन किया गया है |प्रथम के अनुसार वह साहित्य

जो साहित्येत्तर प्रभावों,वर्जनाओं और प्रतिमानों से मुक्त है वह साहित्य है | दूसरे –

दृष्टिकोण के अनुसार ‘लोकहिताय’रचित साहित्य ही साहित्य है | यहां यह स्पष्ट करना

भी आवशयक है कि साहित्य में शुद्धता का प्रश्न आधुनिक विज्ञान और तकनीकी प्रगति

के कारण उभरा है | विज्ञानवेत्ताओं और नेताओं ने सामाजिक नेतृत्व अपने अधीन –

करके साहित्य के नेतृत्व को किनारे कर दिया है |परिणामस्वरूप वह और अन्तर्मुखी

होता गया और समाज के पथप्रदर्शन्,सुधार के लिये नेतृत्व को उसने भी गौण कर

दिया | लगभग यही स्थिति बाल साहित्य के सन्दर्भ में भी कही जा सकती है |

इसे इतना बांध दिया गया है कि स्थिति बड़ी अस्पष्ट सी हो गई है | वर्जनाओं का

अम्बार लगा है , बिषयों का अकाल है | पश्चिम के परिप्रेक्ष्य में रची गई धारणाएं

जबरदस्ती लादी जा रही हैं किन्तु इनके बीच भी प्रचुर बाल साहित्य सृजन हो रहा

है | बाल साहित्य का भण्डार बढ रहा है |

हिन्दी बाल साहित्य का सुनियोजित प्रकाशन इण्डियन प्रेस,रामनारायण

लाल इलाहाबाद तथा हरि दास मणिक कलकत्ता की प्रकाशन संस्थाओं के माध्यम से

 

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बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक से प्रारम्भ हो चुका था |किन्तु सही ढंग और सुचारू

रूप से बाल साहित्य की समीक्षा का आज भी लगभग अकाल ही है | यद्यपि बालहित

तथा साहित्य संदेश में 1939 से 1960 के मध्य कुछ लेख समीक्षा के प्रकाशित भी

हुये और भी कुछ छिट-पुट लेख तद्-विषयक प्रकाशित तो हुए किन्तु वे मात्र सरसरी

नज़र से सर्वेक्षण समान ही थे | 1946 में भीष्म एण्ड कम्पनी द्वारा प्रकाशित एंव –

श्री कृष्ण विनायक द्वारा लिखित ‘बाल दर्शन’ सम्भवतः बाल साहित्य विमर्श की –

प्रथम पुस्तक के रूप में सामने आती है | तदोपरान्त 1952 में ‘हिन्दी किशोर सा-

हित्य’जो ज्योत्सना द्विवेदी द्वारा रचित थी नन्द किशोर एण्ड ब्रदर्स बनारस से प्रकाशित

हुई | 1966 में बाल काव्य पर स्वनामधन्य निरंकार देव सेवक की ‘बाल गीत साहित्य’

(1983 में उ०प्र० हिन्दी संस्थान से पुनर्मुद्रित) किताब महल इलाहाबाद से प्रकाशित –

हुई जिसे बाल साहित्य संकलन का हर दृष्टि से समग्र और समर्थ ग्रंथ कहा जा सकता

है |यह ग्रंथ वर्तमान बाल साहित्यकारों का प्रतिमान एंव मार्गदर्शक भी  बना | इसके

पश्चात अनेक विद्वानों ने इस बिषय में योगदान प्रस्तुत किये जिनमें कुछ प्रयास अच्छे

और प्रमांणिक भी थे और कुछ संकलन सूचकांक सरीखे भी थे |

प्रसंगवश यहां पुनः उद्धरण देना आवश्यक है | ब्रैसी सैंड्रारस ने कहा है कि

‘कोई काम इतना कठिन नही है जितना बच्चों के लिये लिखना |’ आगे कहती हैं

‘बच्चों के लिये पुस्तक लिखने के बाद कोई काम इतना कठिन नहीं है जितना बच्चों

की पुस्तकों के बारे में लिखना |’प्रसंग को और विस्तार देते हुए फिर कहती हैं,’बच्चों

की पुस्तकें लिखने के बाद कोई काम इतना कठिन नहीं है जितना बच्चों की पुस्तकों के

बारे में लिखना किन्तु बच्चों की पुस्तकों के लिखने के बारे में लिखना इसका अपवाद है |’

भारतीय बाल साहित्य के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी बाल साहित्य पर चर्चा से पूर्व

उसका आकलन आवश्यक है | भारतीय समाज में बालक का प्रारम्भ से बड़ा महत्व रहा

है | इसी लिए बालक को पांच वर्ष तक माता के अधीन, आठ तक पिता के और फिर

पच्चीस वर्ष तक आचार्य के अधीन रखने की व्यवस्था की गई है | उपरोक्त महत्ता और

जीवन पद्दति के अनुरूप हमारा प्राकृत,पाली और संस्कृत बाल साहित्य ग्रंथित है | इसी

प्रकार दंत कथाओं,लोक कथाओं और रूपक कथाओं से भारतीय बाल साहित्य भरा पड़ा

है | साहित्य में वात्सल्य रस को बाल साहित्य के रूप में एक विशिष्ट मान्यता प्राप्त

रही है | हिन्दी बाल साहित्य से यदि पूर्व अनुवादों को हटा दिया जाय तो आधुनिक बाल

साहित्य यद्यपि संख्या बल में ,बीसवी सदी के दूसरे दशक से प्रारम्भ होने के बावजूद

पच्चीस हजार के लगभग पुस्तकों का प्रकाशन हो चुकने के बाद भी, इनमें से आधे से

भी कम पुस्तकों को ठीकठाक और दस प्रतिशत से भी कम पुस्तकों को श्रेष्ठ बालसाहित्य

का दर्जा दिया जा सकता है | व्यापक अर्थ में सामान्यतः बाल साहित्य से तात्पर्य –

 

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शिशु और किशोर साहित्य ही है |पांच वर्ष से कम आयु के बच्चे को मोटेतौर पर ठीक

से अक्षर ज्ञान नहीं होता है | वह श्रवण मात्र से ही लोरी और अर्थहीन तुकबंद कविता

का आनन्द लेता है | चार से छै वर्ष तक के बालक चित्रों या चित्रकथाओं से चेतना

और आनन्द प्राप्त करते हैं | सात से दस वर्षों की वय में वह वयस्कों के सानिध्य से

पढना प्रारम्भ कर देता है | इस आयु का बालक सामान्यत: तीसरी से पांचवी स्तर का

छात्र होता है | इस समय अपनी मातृभाषा के 200 से अधिक शब्दों का उसे ज्ञान हो

जाता है | इस आयुवर्ग का बालक लोककथा,रूपककथा.भूतप्रेत तथा राक्षसों की कथाएं

पसंद करता है | इससे पूर्व वह परी कथाओं और उड़नखटोलों जैसी कथाओं का आनन्द

ले चुका होता है | इस आयु वर्ग में ही उसका रुझान शिकार व युद्ध कथाएं सुनने,भ्रमण

वार्ताओं,अभियान कथाओं तथा वीर कथाओं की ओर बढता है |

जहां तक पुस्तकों का प्रश्न है,अबतक प्रकाशित बाल पुस्तकों के सर्वेक्षण

के आधार पर आलोचकों का निष्कर्ष है कि अधिकतर पुस्तकें 12 वर्ष से कम आयुवर्ग

के लिये हैं | 12 से 15 की आयु के वर्ग के लिये श्रेष्ठ बाल साहित्य कम प्रकाशित –

हुआ है और 15 से 18 वर्ष के किशोरों के लिये तो श्रेष्ठ पुस्तकों का लगभग अभाव सा

ही है | सर्वेक्षंणों से असहमति का प्रश्न ही नहीं है | एक तो बालकों के लिखने का

कठिन कार्य और वह भी उस दशा में जहां आप एक निश्चित सीमा से, चाहे वह बिषय-

गत हो, विधागत हो या भाषागत, सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकते | यहां यह

भी उल्लेखनीय है कि अवशेष साहित्य में अधिकाधिक भावाभिव्यक्ति है तो बाल साहित्य

के सृजन में अधिकांशतः ज्ञान कराना,शिक्षा देना ही अभीष्ट बन जाता है,जो इसे सोद्देश्य

लेखन होने के कारण स्वान्तः सुखाय या लोक हिताय लेखक से अलग कर सोद्देश्यपरक

मूल्यों के कारण क्रत्रिम,आरोपित और उपदेशात्मक होने के दोषों से परिपूर्ण कह कर –

प्रथक कर देता है |

चर्चा का बिषय तो हिन्दी में बाल साहित्य कभी रहा ही नहीं | बच्चों के

लिये पत्रिकाये भी निकलती रहीं और पुस्तकें भी,मगर इनके पीछे रचनात्मक सोच रही

या रही तो उस पर कुछ अमल भी होता रहा यह नही लगा | लोग जो लिखते रहे वह

छपता रहा | संक्षेप में कहें तो हिन्दी साहित्य में बाल साहित्य भरती का बिषय बन

गया और पृष्ठों को भरता रहा | हिन्दी में बड़ों की पत्रिकाओं में कुछ पृष्ठ बच्चों के लिये

‘बच्चों का कोना या अन्य नाम से’निर्धारित कर दिये जाते हैं जिन्हें भरने के लिए –

लिखा या लिखवाया जाता रहा है |

बच्चों के लिये शुद्ध व्यवसायिक पत्रिकाएं भी निकलती रही हैं | किन्तु

उनका मानद्ण्ड लोकप्रियता के आसपास घूमता रहा है | उदाहरण स्वरूप’चन्दा मामा’

को लिया जा सकता है जिसे बच्चों के बजाय बडों ने अधिक पढा है | बच्चों के लिये

निकलने वाली पत्रिकाओं ने अधिकतर अपनी पाठ्यसामग्री को दोहराया ही है | यह

 

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अपनी रूढियों, वर्जनाओं और सीमाओं यथा लोककथा,परी कथा और प्रतीक पशु क-

थाओं के इर्द-गिर्द ही घूमती रहीं हैं | इनमें से कुछ तो बन्द हो चुकी हैं और कुछ

बस निकलती ही जा रही हैं | कारण दुतरफा रहा है कहा जाय तो उचित होगा | –

बाल साहित्य के लेखकों,कवियों की ओर से कोई सार्थक प्रयत्न हुआ न प्रकाशकों और

सम्पादकों की ओर से ही | इन दोनों ने बाल साहित्य के वास्तविक आलोचकों बाल-

पाठकों की न तो प्रतिक्रियाएं ही सुनीं और न वांछना पर ही ध्यान दिया | अगर यह

सब किया गया होता तो शायद, न यह ठहराव ही होता और न यह दोहराव | सम्भ-

वतः तब इसे समकालीन जीवन से भी जोड़ा जा सकता था | अब इक्का दुक्का स्तर

पर इस बिषय पर विचार और कार्य हो रहा है | इस सम्बन्ध में यह कहना समीचीन

होगा कि स्वतंत्र रूप से स्वंय प्रकाशित पुस्तकों में तो यह विड्म्बना के रूप में उभरा

है | जो मन आया लिख दिया गया और जुगाड़ करके प्रकाशित भी करा दिया गया |

भले ही वह कैसा भी हो | ऐसा नहीं है कि यह श्रेष्ठ या श्रेष्ठतम नहीं रहा किन्तु –

अधिक संख्या में वही हुआ जैसा कहा गया है | फलस्वरूप इस प्रकार नयापन न आ

सका एक ही बात को शब्द और भाव में परिमार्जन कर प्रकाशित करा दिया गया |

एक या कुछ धुरियों के गिर्द बाल साहित्य चक्कर लगाता रहा | आज स्थिति यह है

कि ‘बहुत सारे बाल साहित्यकारों में से कुछ स्वयंभू पुरोधा भी बन गये हैं | मगर

उनमें से कितने ऐसे हैं जिन्हें बच्चे अपना ‘लेखक’ या ‘कवि’ कह पाएंगे | यह –

बहस या विवाद का बिषय नहीं है , यह वास्तविकता है और इसे हमें स्वीकार करना

चाहिए |

ऐसा नहीं है कि बहुत अच्छा लिखा ही नहीं गया है किन्तु प्रकाशकों,क्रीत-

लेखकों और पुरोधाओं की जुगलबन्दी ने उसे प्रकाशित ही नहीं होने दिया | इधर-उधर

से व्यवस्था कर वह अच्छा साहित्य प्रकाशित भी हुआ तो न तो वह पाठकों तक ही

पहुंच पाया और न ही इन गुटबन्दियों ने उन्हें मंच प्रदान किया और ना ही उचित स-

मीक्षा कर प्रोत्साहित किया | फल आपके सामने है | हिन्दी का बाल साहित्यकार –

नम्बर तीन  से भी नीचे का या यूं कहें सबसे निकृष्ट श्रेणी का साहित्यकार होकर

रह गया | साहित्य के क्षेत्र में न तो वह कहीं पूछा ही जाता है और ना ही कहीं –

ठहरता भी है | कुछ लोग इस स्थिति में सुधार के प्रयास करते भी हैं तो या तो

उनकी टांग खींची जाती है या यह गिरोहबन्द बाल साहित्य पुरोधा उनका बहिष्कार

करने के फतवे जारी कर देते हैं ताकि उनकी बंधुआ बाल साहित्यजीवी प्रजा में जाग-

रूकता न आ जाय | यह भूल कर कि वे जिस पेड़ की डाल पर बैठे हैं उस पेड़ की

जड़ों में ही मट्ठा डाल रहे हैं | खैर वे जानें | बाल साहित्य उनसे नहीं वे बाल-

साहित्य से जाने जाते हैं | बालसाहित्य की उन्नति से ही उनकी उन्नति सम्भव है |

इन कुछ कारणों से बाल साहित्य में नयापन बहुत कम रहा | इस का

 

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क्रमिक और सतत विकास सम्भव नहीं हो सका | फलतः हिन्दी बाल साहित्य बराबर

उपेक्षित,अनियोजित,बिखरा,छिटपुट,भरती का और कामचलाऊ जैसा ही बन कर रह –

गया | ऐसे में कोई नया लेखक आया भी तो वह इस बिखराव में इधर-उधर बिखर

गया या निराश हो कर अवशेष साहित्य विधा की ओर मुड़ गया | उसे न प्रोत्साहन –

मिला न प्रदर्शन ही मिला तो वह यहां रुके भी क्यों ?

जहां तक बाल साहित्य के निम्नतम दर्जे का समझे जाने का प्रश्न है,

स्वंय बाल साहित्य के लेखकों,कवियों और अन्य प्रकार से बाल साहित्य से जुड़े लोगों

ने कभी इस ओर गंभीर प्रयास किये ही नहीं | बाल साहित्य को श्रम और समयदान

की बात निरंकार देव सेवक जैसे बिरले साहित्यकारों ने ही की है | बाल पाठकों के

लिए अच्छे साहित्य की खोज के गंभीर प्रयास भी न तो हुए और न ही अब हो पा रहे

हैं | फलतः परिणाम वही शून्य सरीखा है | अधिक अच्छा बाल साहित्य अधिक मात्रा

में सम्भवतः तभी सम्भव हो सकेगा जब बाल साहित्य और बाल साहित्यकारों की –

अलग से कोई अच्छी पहचान बने और श्रेष्ठ साहित्यिक तथा व्यवसायिक दोनों स्तरों

पर यह माना जाना प्रारम्भ हो जाय कि इन दोनों में उनका योगदान कम महत्वपूर्ण

नहीं है |

जहां तक सम्भावनाओं का प्रश्न है | यदि बदलती रूचियों और परि-

वर्तित संदर्भों की स्थिति ध्यान में नहीं रखी गई तो कुछ भी नहीं बदलेगा  स्थिति

और भी शोचनीय हो जाएगी | बाल साहित्य का अब तक जो रूप रहा है उसे बदलने

के लिए एक सामुहिक और सुनियोजित सोच लेकर उसका कार्यान्वयन सामुहिक रूप

से दृढ इच्छाशक्ति और सम्पूर्ण क्षमताओं के साथ करना होगा | हिन्दी बाल साहित्य-

कारों को स्वाभिमान के साथ अपना ‘स्वतंत्र व्यक्तित्व’ बनाना होगा | लेखन  और

सोच में बड़प्पन लाना होगा | नयापन लाना होगा | वरना कुछ नहीं बदलेगा सब –

कुछ ऐसा ही रहेगा | ठहरे हुए जल की तरह | सड़ने की स्थिति के सन्निकट |

और इस सब के जिम्मेवार हम सब होंगे | सिर्फ हम सब |

 

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