विविधा

असमंजस और कुछ नहीं!

दुर्गेश कुमार मिश्रा

शासन और व्यवस्था से सभी पीडित हैं । जिम्मेदार कौन ? स्वयं उत्तर देते हैं, नेता ! ये जवाब सभी की जुबान पर होता है। जैसी आजादी के मतवालों के लिए वन्देमातरम्। हर कोई भ्रष्ट व्यवस्था व इस तंत्र के कानूनी मकड़जाल में फंसा है। हताश, परेशान, शोषित, झुझलाते आपको जरूर मिल जायेगा। इससे कुछ वक्त बचा तो नुक्कड़, चौराहों व चाय की दुकान पर नेता और बाबू को इतनी गालियाँ देंगे कि महाभारत में दुष्शासन ने भी श्रीकृष्ण को नहीं दिया । इससे इतर जो बुद्विजीवी है वे सत्ता और तंत्र पर बेबाक टिप्पणी करेंगे कि उन्हें छोड़कर मौजूदा हालात के सभी जिम्मेदार हैं और कहीं राजनीतिक पार्टियों से ताल्लुक रखते हैं, तो जगह कुछ भी हो कुरूक्षेत्र मानो वही है। एक वर्ग और भी जिसका केवल काम पुतला जलाओं और अनशन पर बेठना है। मसलन इस समूची व्यवस्था में दूसरे को चोर कहने से कोई पीछे नहीं हटता।

शासन से लेकर प्रशासन तक बिना माफियाओं एवं दलालों के कमजोर हैं । आज देशभक्ती वो दिखाते हैं, जिन्हें देश से कोई मतलब नहीं, वोट वो मांगते हैं, जिन्हें जनता से मतलब नहीं, धर्म के लिए वो लड़ते है जिन्हें कुरान, गीता से मतलब नहीं और समाज सेवा वो कर रहें है जिनके पास सबकुछ है पर समाज को देने के लिए कुछ नहीं । जनता भी इन्हीं महानुभावों की दीवानी है जैसे मीरा श्रीेकृष्ण की थी।

ये कैसा भारत और किसका भारत? शासन सत्ता स्वीकारती है भ्रष्टाचार है , न्यायालय मानती है भ्रष्टाचार है और मीडिया भी इससे अछूती नहीं है। सरकारी संपत्ति आपकी अपनी संपत्ति इसकी रक्षा करें अब इस आदर्श वाक्य को लोगों ने अपना लिया तो बुराई क्या है क्योंकि संपत्ति की हिफाजत तो घर की तिजोरी में होती है। अब इसे खत्म करने की मुहिम चलायी जा रही है और उसमें वही शामिल हैं जो इसके निरन्तर फलने-फूलने में प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से सहायक रहें है। मतलब चोरी खत्म करने की बात की जा रही पर चोर को पकड़कर उसे सजा देने की बात नहीं।ऐसे ही आतंकवाद को खत्म करो पर आतंकवादी को नहीं।अब ये खत्म कैसे हो? इस पर मंथन हो रहा है।

दुःख होता है जब आज की पीढ़ी लाचार और पंगु ऐसी खड़ी है मानो वे आज भी गुलाम हैं। और उन्हें देखकर लगे जैसे अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने वाले देशभक्त एक काल्पनिक पात्र थे। आखिर ये कब तक? एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण है कि उसकी जनता कैसे शासित होती है। आज बदलाव की जरूरत है । केवल सत्ता में ही नहीं बल्कि सभी जगह। इसलिए प्रजातंत्र में स्वयं के अधिकारों को जानना होगा । परिवर्तन के लिए आगे आना पड़ेगा । लेकिन उससे पहले स्वयं ईमानदार, देशभक्त नागरिक बनना होगा।


लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं