राजनीति

कांग्रेस में घर वापसी

काफी ना-नुच के बावजूद राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बन ही गये। जैसे व्यापारियों के लड़के इच्छा न होने पर भी अपनी नियति मानकर कारोबार में लग जाते हैं। इसी तरह राहुल गांधी भी काफी समय तो टालते रहे; पर ‘‘ना ना करते प्यार तुम्हीं से कर बैठे..’’ की तर्ज पर आखिरकार उन्होंने अध्यक्ष बनना मान ही लिया। अब कांग्रेस का भविष्य उनके पल्लू के साथ बंधा है।

पिछले दिनों राहुल गांधी ने अपील करते हुए कहा कि भारतीय जनता पार्टी को हराने के लिए वे सब पुराने लोग वापस घर आ जाएं, जो कभी कांग्रेस छोड़कर चले गये थे। संघ वाले लम्बे समय से ‘घर वापसी’ के काम में लगे हैं। वे कहते हैं कि भारत के उन सब लोगों को अपने पूर्वजों के पवित्र हिन्दू धर्म में लौट आना चाहिए, जो डर, लालच या अन्य किसी कारण से विधर्मी हो गये थे; पर राहुल जी के मुंह से ये बात पहली बार ही सुनी है। अब उन्हें ये भी सोचना होगा कि आखिर कांग्रेस छोड़कर लोग गये क्यों ? जब तक वे इसे नहीं समझेंगे, तब तक वापस आना तो दूर, घर छोड़कर जाने का क्रम ही बना रहेगा।

असल में कांग्रेस की मूल बीमारी वंशवाद है। मोतीलाल से शुरू होकर जवाहरलाल, इंदिरा गांधी, संजय, राजीव और सोनिया मैडम से होती हुए यह बीमारी राहुल गांधी तक आ पहुंची है। इन्हें लगता है कि भले ही भारत में लोकतंत्र हो; पर राज करने का हक उन्हीं को है। अर्थात पार्टी हो या सरकार, नंबर एक की कुर्सी उनके लिए आरक्षित है। बाकी को नंबर दो या तीन से संतोष करना होगा। भले ही वे कितने भी योग्य, चरित्रवान, देशभक्त और पार्टी के लिए समर्पित हों।

नेहरू ने अपने सामने ही अपनी बेटी इंदिरा गांधी को पार्टी अध्यक्ष और मंत्री बना दिया था, जबकि उनसे वरिष्ठ कई लोग मौजूद थे। डा. लोहिया, चरणसिंह, आचार्य कृपलानी, आचार्य नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश नारायण आदि पहले कांग्रेसी ही थे; पर फिर इनके नेहरू और इंदिरा गांधी से मतभेद हो गये, इनमें वंशवाद एक प्रमुख कारण था। नेहरू और शास्त्री जी के जाने से मोरारजी देसाई आदि की इच्छाएं फिर जाग गयीं; पर कामराज के सहयोग से प्रधानमंत्री बनने पर इंदिरा गांधी ने पुराने लोगों से पिंड छुड़ाने के लिए 1969 में पार्टी ही तोड़ दी। असल में वे अपनी अगली पीढ़ी के लिए कुर्सी सुरक्षित करना चाहती थीं। अतः कई वरिष्ठ लोगों ने कांग्रेस ही छोड़ दी।

1977 में आपातकाल के बाद मोरारजी प्रधानमंत्री बने; पर पुराने कांग्रेसियों और समाजवादियों ने सरकार नहीं चलने दी। 1980 में फिर सत्ता पाकर इंदिरा गांधी उत्तराधिकारी के नाते अपने छोटे बेटे संजय को आगे बढ़ाने लगीं, जबकि आपातकाल में वे खूब बदनाम हो चुके थे; पर राजीव राजनीति से दूर रहते थे। अतः इंदिरा जी के पास कोई विकल्प नहीं था; पर 1980 में संजय की मृत्यु के बाद उन्होंने राजीव को राजनीति में खींच लिया। 1975 से 1988 के बीच इस परिवार के दखल से दुखी होकर चंद्रशेखर, रामधन, कृष्णकांत, मोहन धारिया, नीलम संजीव रेड्डी और फिर विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे कई जमीनी नेताओं ने कांग्रेस छोड़ दी।

1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद यदि राष्ट्रपति जैलसिंह चाहते, तो वे प्रणव मुखर्जी या नारायण दत्त तिवारी जैसे किसी वरिष्ठ नेता को प्रधानमंत्री बना सकते थे; पर वे इंदिरा जी के अहसानों से दबे थे। अतः उन्होंने अनुभवशून्य राजीव गांधी को शपथ दिला दी। इससे कांग्रेस फिर उस परिवार की बंधुआ बन गयी। इससे नाराज होकर प्रणव मुखर्जी, अर्जुन सिंह, नारायण दत्त तिवारी आदि ने कांग्रेस छोड़ दी; पर दाल न गलने पर वे फिर गुलामी में लौट आये।

1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद नरसिंहराव प्रधानमंत्री बने। सोनिया जी दुख में डूब गयीं। ऐसा लगा कि अब इस परिवार की काली छाया से कांग्रेस मुक्त हो गयी है; पर 1998 में मैडम का सत्ता मोह जाग उठा। उन्होंने कांग्रेस कार्यालय में आकर केसरी चाचा को अपमानित कर कुर्सी कब्जा ली। कांग्रेस एक बार फिर इस परिवार के दुष्चक्र में फंस गयी।

इसके बाद 18 साल तक कांग्रेस पर सोनिया जी का कब्जा रहा। इस दौरान महाराष्ट्र में शरद पवार और बंगाल में ममता बनर्जी जैसे जनाधार वाले नेता कांग्रेस छोड़ गये। तेजी से उभर रहे राजेश पायलेट 2000 में और माधवराव सिंधिया 2001 में हुई दुर्घटनाओं में मारे गये। पता नहीं यह नियति थी या षड्यंत्र ? 2004 में लोकसभा चुनाव में सबसे बड़ा दल होने के नाते कांग्रेस के नेतृत्व में गठबंधन सरकार बनी। सोनिया ने जनाधारहीन मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया, जिससे भविष्य में राहुल के लिए कोई बाधा उत्पन्न न हो।

पिछले तीन साल से बीमार मम्मीश्री तो नाममात्र की अध्यक्ष थीं। राहुल ही कांग्रेस के सर्वेसर्वा थे। तब भी नेताओं के कांग्रेस छोड़ने का क्रम जारी रहा। हेमंत बिस्व शर्मा पूर्वोत्तर भारत में कांग्रेस के बड़े नेता थे; पर कई बार आग्रह के बाद भी राहुल ने उन्हें मिलने का समय नहीं दिया। जब मिले, तब भी बात सुनने की बजाय वे अपने कुत्ते से खेलते रहे। इससे अपमानित होकर हेमंत ने कांग्रेस छोड़ दी और आज असम में भा.ज.पा. की सरकार है। अब वे शेष राज्यों में कांग्रेस को उखाड़ने में लगे हैं।

इस परिवार द्वारा लोगों का अपमान आम बात है। संजय इस मामले में कुख्यात थे। 1982 में राजीव गांधी ने हैदराबाद में हवाई अड्डे पर मुख्यमंत्री टी.अंजैया को डांटा था। 1987 में प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने प्रेस वार्ता में ही विदेश सचिव श्री वेंकटेश्वरन को हटा दिया था। अंग्रेजी न जानने के कारण उन्होंने जैलसिंह को कई बार अपमानित किया। नरसिंह राव की मृत्यु के बाद मैडम जी ने उनका अंतिम संस्कार दिल्ली में नहीं होने दिया। हैदराबाद में भी शवदाह का ठीक प्रबंध नहीं किया गया।

शरद पवार, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक आदि पुराने कांग्रेसी हैं। इनका अपने राज्यों में भारी जनाधार भी है, जबकि राहुल की जड़ें किसी राज्य में नहीं है। वे जहां से सांसद हैं, उस उ.प्र. में उन्हें पिछले चुनाव में अखिलेश यादव की साइकिल पर बैठने के बावजूद सात सीट मिली हैं। ऐसे में क्या वे या उनकी मम्मी किसी पुराने और जमीनी नेता को कांग्रेस का अध्यक्ष या प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाएंगे ? इसका उत्तर नकारात्मक ही है। जो परम्परा मोतीलाल नेहरू ने शुरू की है, उसे राहुल नहीं छोड़ सकते। ऐसे में ‘घर वापसी’ की अपील एक ढकोसला मात्र है।

विजय कुमार