अनुवर्त्ती रात

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 विजय निकोर

दीवार पर

दो घड़ियाँ लगा देने से रात

कभी जल्दी नहीं कटती ।

 

कोई हादसा नया

छोटा-सा, बड़ा-सा

ढीठ और बेअदब

संतरी-सा कमरे में खड़ा

रात को सोने नहीं देता,

सरकने नहीं देता ।

कितने पुराने असम्बद्ध हादसे

कि जैसे सारे सोय संतरी जागे,

इन आन्तरिक संतरियों की फ़ौज

रात को अभित्रस्त करती

कोने-से-कोने चक्कर लगा रही है।

 

चारों ओर भय, भय

और भयाविक्ता

निशब्द सन्नाटे के भी रौंगटे खड़े,

और वह मापता है निराश

घड़ी की सुई के

हर काँपते अन्तराल में

मौन की अवधि

और रात की तितिक्षा ।

 

अनन्वित अनुवर्त्ती रात

मेरे अनुरोध पर आज

कुछ देर और ठहर गई है ।

 

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विजय निकोर
विजय निकोर जी का जन्म दिसम्बर १९४१ में लाहोर में हुआ। १९४७ में देश के दुखद बटवारे के बाद दिल्ली में निवास। अब १९६५ से यू.एस.ए. में हैं । १९६० और १९७० के दशकों में हिन्दी और अन्ग्रेज़ी में कई रचनाएँ प्रकाशित हुईं...(कल्पना, लहर, आजकल, वातायन, रानी, Hindustan Times, Thought, आदि में) । अब कई वर्षों के अवकाश के बाद लेखन में पुन: सक्रिय हैं और गत कुछ वर्षों में तीन सो से अधिक कविताएँ लिखी हैं। कवि सम्मेलनों में नियमित रूप से भाग लेते हैं।

2 COMMENTS

  1. सुन्दर.. बहुत सुन्दर, दीवार पर दो घड़ियाँ लगा देने से समय जल्दी नही गु़ज़रता, बहुत अच्छी अभिव्यक्ति लगी।

    • इतनी अच्छी प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद, बीनू जी।
      विजय निकोर

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