कविता

अनुवर्त्ती रात

 विजय निकोर

दीवार पर

दो घड़ियाँ लगा देने से रात

कभी जल्दी नहीं कटती ।

 

कोई हादसा नया

छोटा-सा, बड़ा-सा

ढीठ और बेअदब

संतरी-सा कमरे में खड़ा

रात को सोने नहीं देता,

सरकने नहीं देता ।

कितने पुराने असम्बद्ध हादसे

कि जैसे सारे सोय संतरी जागे,

इन आन्तरिक संतरियों की फ़ौज

रात को अभित्रस्त करती

कोने-से-कोने चक्कर लगा रही है।

 

चारों ओर भय, भय

और भयाविक्ता

निशब्द सन्नाटे के भी रौंगटे खड़े,

और वह मापता है निराश

घड़ी की सुई के

हर काँपते अन्तराल में

मौन की अवधि

और रात की तितिक्षा ।

 

अनन्वित अनुवर्त्ती रात

मेरे अनुरोध पर आज

कुछ देर और ठहर गई है ।