संवैधानिक-मान्यता भोजपुरी का अधिकार है

 पियूष द्विवेदी ‘भारत’

पिछले संसदीय सत्र में तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम, जिन्हें कभी हिंदी बोलते हुवे भी नही देखा गया, ने जब संसद के अंदर भोजपुरिया लोगों के प्रति भोजपुरी में कहा कि – ‘हम रऊवा सब के भावना समझतानी’ तब उनकी इस बात से हर उस भोजपुरिया आदमी, जो बहुत काल से इस बात का प्रतीक्षार्थी है कि कब उसकी मातृभाषा भोजपुरी को संविधान की आठवी अनुसूची में शामिल कर संवैधानिक मान्यता दी जाएगी, के मन में ये आस जगना स्वाभाविक ही था कि अब भोजपुरी को उसके अधिकार का उचित सम्मान मिल जाएगा! अटकलें तो ये भी थी कि चिदंबरम संसद के मानसून सत्र में भोजपुरी को संविधान की आठवी अनुसूची में शामिल करने के लिए प्रस्ताव भी लेंगे! पर इसे दुर्योग ही कहेंगे कि संसद के उस सत्र से इस मानसून सत्र के आने तक राजनीति की उथल-पुथल में चिदंबरम गृहमंत्री से वित्तमंत्री बन चुके हैं, और जो वर्तमान गृहमंत्री हैं, उन्हें शायद चिदंबरम की बतौर गृहमंत्री कही वो बात याद भी नही होगी! बात साफ़ है कि भोजपुरी के संविधान की आठवी अनुसूची तक पहुँचने के लिए अभी और सफर तय करना पड़ सकता है!

एक नज़र अगर हम संविधान की आठवी अनुसूची पर डालें, तो इसमे बाईस भारतीय-भाषाओँ को शामिल किया गया है, पर विडम्बना तो ये है कि उन बाईस भाषाओँ में से असमिया, मणिपुरी, संथाली, कश्मीरी, आदि कई ऐसी भाषाएँ भी हैं, जिन्हें बोलने वालों की संख्या, भोजपुरी बोलने वालों की तुलना में काफी कम है! इसके अतिरिक्त क्षेत्रविस्तार के मामले में भी भोजपुरी आठवी अनुसूची की कई भाषाओँ पर भारी है! देश, तो देश, विदेशों में भी भोजपुरी मजबूती से मौजूद है! भारत में पूर्वी-यूपी, पश्चिमी-बिहार और झारखण्ड जैसे राज्यों से लिए नेपाल, मारिशस, सूरीनाम, त्रिनिदाद आदि तमाम देशों तक भोजपुरी व्यापक रूप से व्याप्त है! मारिशस में तो भोजपुरी को राष्ट्रभाषा का दर्जा तक प्राप्त है! पर इन सब उपलब्धियों के बावजूद आज अपने ही देश में भोजपुरी को अबतक संवैधानिक मान्यता न मिलना, उसके प्रति अबतक की सभी सरकारों के रूखेपन को ही दर्शाता है!

वैसे, अगर भोजपुरी को आठवी अनुसूची में शामिल करने का समर्थन करने वाले हैं, तो बहुतों विरोधी भी हैं, उनके पास विरोध के लिए कई तर्क हैं! विरोधियों का सबसे बड़ा तर्क ये होता है कि भोजपुरी की अपनी कोई लिपि नही है; वो देवनागरी लिपि के सहारे लिखी जाती है! पर ऐसा कहने वालों का ये तर्क पूर्णतया निरर्थक ही प्रतीत होता है, क्योंकि ये कोई आधार नही हो सकता किसी भाषा को संवैधानिक मान्यता देने या ना देने के लिए! चूंकि, विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा अंग्रेजी की भी अपनी कोई लिपि नही है, अंग्रेजी लेखन के लिए जिस लिपि का प्रयोग किया जाता है, वो रोमन-लिपि है! विरोधियों का एक तर्क ये भी होता है कि भोजपुरी कोई भाषा नही, वरन हिंदी की ही एक उपभाषा है! पर उनका ये तर्क भी बेबुनियाद ही प्रतीत होता है, क्योंकि भोजपुरी का अस्तित्व हिंदी से अलग, भोजपुरी-सिनेमा हिंदी से अलग, भोजपुरी-साहित्य हिंदी से अलग, समान्तर रूप से समुन्नत हुवा है! ‘भोजपुरी सांस्कृतिक सम्मलेन’, ‘विश्व भोजपुरी सम्मलेन’ जैसे और भी कई संगठन भोजपुरी साहित्य के विकास में निरंतर रूप से संलग्न हैं! इंटरनेट पर भी ‘जयभोजपुरी.कॉम’, ‘अंजोरिया.कॉम’, ‘भोजपुरिया माटी.कॉम’ आदि तमाम वेबसाईटों के द्वारा तमाम लोग भोजपुरी के प्रचार-प्रसार में तन-मन-धन से जुटे हैं! भोजपुरी-सिनेमा का आरम्भ सन १९६० में तब हुवा, जब भारत के प्रथम राष्ट्रपती डॉ. राजेंद्र प्रसाद, बिश्वनाथ प्रसाद शाहबादी से मिलकर, उन्हें एक भोजपुरी फिल्म बनाने को कहा! और इस तरह सन १९६३ में आई पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढाईब’’ उसके बाद से भोजपुरी सिनेमा में ‘बिदेसिया’, ‘गंगा’ ‘गंगा किनारे मोरा गाँव’, ‘नदिया के पार’ जैसी एक से बढ़कर एक फ़िल्में आईं! आज भोजपुरी-संगीत और भोजपुरी-सिनेमा भी उन्नति की ओर ही अग्रसर है, बस जरूरत है तो थोड़ा रचनात्मक होने और अश्लीलता को त्यागने की!

आज भोजपुरी हर तरह से, हर क्षेत्र से, संपूर्ण होने के बावजूद भी, संवैधानिक-मान्यता से वंचित है, और बस इसी कारण तमाम उपलब्धियों के होते हुवे भी भोजपुरी दबी-दबी सी लगती है! आज जरूरत है सभी भोजपुरिया लोगों को एकजुट होकर, भोजपुरी को संवैधानिक-मान्यता देने के लिए आवाज उठाने की! जरूरत ये भी है कि अपनी भाषा की उपलब्धियों को खुलकर सरकार के सामने रखी जाएँ, और उसे आभास कराया जाए कि उन्होंने भोजपुरी को संवैधानिक-मान्यता न देकर, उसके साथ कितना बड़ा किया है, क्योंकि संवैधानिक-मान्यता कोई उपकार या पुरस्कार नही, वरन हमारी मातृभाषा भोजपुरी का अधिकार है! जय हिंद, जय भोजपुरी!

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