कोरोना काल और निजी अस्पतालों के बंद दरबाजे

राजेन्द्र बंधु

चिकित्सा क्षेत्र में निजी अस्पतालों की तरफदारी करने वाला देश का नीति आयोग इन दिनों खामोश है। शायद उसे यह अहसास हो चुका है कि आयुष्मान भारत एवं अन्य योजनाओं नाम पर सरकार से लाखों करोड़ रूपए पाने वाले निजी अस्पताल सेवा देने से इंकार कर रहे हैं। उनके इस इंकार से आज जितने लोग भारत में कोविड—19 ये मारे गए, लगभग उतने अन्य बीमारियों से भी मारे गए। इन मौतों के लिए निजी अस्पताल तो जिम्मेदार हैं ही, साथ ही नीति आयोग की पूंजीपति पोषित नीति भी कम जिम्मेदार नहीं है। इस नीति की वजह से देश का सरकारी स्वास्थ्य तंत्रमजबूत नहीं हो पाया । यह बात इस तथ्य से भी सबित होती है कि मध्यप्रदेश सरकार पीपीपी मॉडल के चलते निजी अस्तपतालों को हर साल 460 करोड़ रूपए देती है, जबकि एक अच्छा एम्स चलाने के लिए करीब 300 करोड़ रूपए सालाना की जरूरत होती है।

कोरोना काल में निजी अस्पतालों की कारगूजारियों पर चर्चा से पहले हमें सरकार की उन नीतियों को समझना होगा,​ जिससे निजी अस्पतालों की शोषणपरक बुनियाद को मजबूती मिली। नीति आयोग ने सन् 2017 में सरकारी जिला अस्पतालों की व्यवस्था को पब्लिक प्राईवेट पर्टनरशिप यानी पीपीपी मॉडल के तहत सुधारने की योजना बनाई थीं। किन्तु विशेषज्ञों के विरोध के बाद वह वापस ले ली गई। जनवरी 2020 में आयोग ने ढाई सौ पन्नों के दस्तावेज के मध्यम से प्राईवेट मेडिकल कॉलेजों के जरिये सरकारी जिला अस्पतालों में निजी क्षेत्र के प्रवेश की बात कही। इसका मतलब यह हुआ कि सरकार स्वास्थ्य सेवा से पल्ला झाड़कर एक ऐसी व्यवस्था देश को देना चा​हती है, जिसमें जिसके पास जितना पैसा होगा, वह वैसी चिकित्सा पा सकेगा और जिसमें पास पैसा नहीं होगा, उसकी​ चिकित्सा की कोई गारंटी नहीं होगी। यह व्यवस्था किसी एक सरकार की नहीं, बल्कि देश में अब तक शासन करने वाली सभी सरकारों की देन है। इसके परिणाम का अंदाज नेशल क्राईम रिकार्ड ब्यूरों के उन आंकड़ों से लगाया जा सकता है, जिनके अनुसार सन् 2001 से 2015 के बीच भारत में 3.8 लाख लोगों ने इलाज नहीं मिलने के कारण आत्महत्या कर ली, जो इस अवधि में आत्महत्या करने वाले कुल लोगों का 21 प्रतिशत थीं।

आयुष्मान भारत की बुनियाद भी पीपीपी मॉडल के आधार पर रखी गई। निजी चिकित्सा क्षेत्र द्वारा उसके इलाज के सरकारी पैकेज को ठुकराए जाने पर सरकार ने इलाज की दरो में 50 प्रतिशत से लेकर 75 प्रतिशत की वृ​द्धि कर दी। उदाहरण के लिए आयुष्मान भारत में एंजियोप्लास्टि की कीमत 40 हजार रूपए रखी गई थी, वहीं उसे बढ़कार 65 हजार रूपए कर दिया गया। इसी तरह सर्वाइकल सर्जरी को 20 हजार से बढ़ाकर 40 हजार, आर्टरी सर्जरी की दर 42 हजार से बढ़ाकर 65 हजार, स्पाईन सर्जरी की दर 20 हजार से बढ़ाकर 40 कर दी गई। इस तरह स्पष्ट ​है कि देश में सरकारी चिकित्सा तंत्र को मजबूत और बेहतर बनाने के बजाय निजी चिकित्सा तंत्र के पालन—पोषण पर ज्यादा ध्यान दिया गया। वर्ष 2020—21 के बजट से भी यह बात साबित होती है। इस बजट में भारत सरकार द्वारा सावर्जनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए 67,489 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है जो देश कुल बजट को मात्र 1.6 प्रतिशत है। यानी सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं जस की तस बनी रहेगी। प्रत्येक जिला और ग्रामीण क्षेत्र में ब्लाक स्तर पर बेंटीलेटर युक्त बेहतर सरकार अस्तताल की कोई योजना है। वहां के लोगों को सिर्फ प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों से ही काम चलाना पड़ेगा। गंभीर अवस्था में शहरो में इलाज के ठिकाने तलाशने होंगे। निजी अस्पताल तो मोटे बिल और पीपीपी के जरिये अपनी सेहत सुधार ही लेंगे।

तमाम सुविधाओ के बावजूद कोविड—19 की महामारी के दौर में देश के निजी चिकित्सालयों को बहुत ही क्रूर चेहरा सामने आया है। ज्यादातर निजी अस्पतालों ने मरीजों के लिए अपने दरवाजे बंद कर दिए, जिन्हें जिला कलेक्टर का आदेश भी आसानी से नहीं खुलवा पाया। लाक डाउन में लोग घरों में बंद होकर छोटी—मोटी बीमारियों को अनदेखा कर रहे हैं, पुलिस के जवान, पैरा मेडिकल स्टाफ और अन्य कई लोग 40 डिग्री की गर्मी में अथक परिश्रम से देश को कोरोनामुक्त करने में लगे हैं। दूसरी ओर सरकार से सुविधा पाने वाले निजी अस्पतालों के दरवाजे बंद है। कई बार प्रशासन भी उन्हें बचने का अवसर देता है। इन्दौर के गोकुलदास अस्पताल द्वारा 23 मार्च को एक कोरोना पाजिटिव मरीज का इलाज करने से इंकार करने पर तत्कालीन जिलाधीश ने अस्पताल को जवाब देने के लिए तीन दिनों का समय दिया। सोचा जा सकता है कि महामारी के संकटकालीन दौर में जब एक—एक घंटा महत्वपूर्ण होता है, उसमें किसी निजी अस्पताल को जवाब के लिए तीन दिनों का समय देना कितना उचित था ? इसी से शह पाकर इस अस्पाताल द्वारा मरीजों के इलाज में बरती गई लापरवाही की वजह से 7 मई को लगातार तीन मौतें हुई। एक महिला ने आरोप लगाया कि उसके परिजन को रिपेार्ट के इंतजार में भर्ती कर रखा, जबकि रिपोर्ट पहले ही आ चुकी थीं। इस तरह संकटकालीन परिस्थिति में भी ये अस्पताल अपना मुनाफा बढ़ाने में लगे हैं।

दिल्ली के पुलिस कांस्टेबल अमित राणा बीमारी की हालत में अस्पताल दर अस्पताल भटकते रहे। आखिरकार उनकी मृत्यु हो गई। उत्तरप्रदेश के चित्रकूट की मंजू को भी प्रसव के दौरान अस्पतालों ने भर्ती करने से इंकार दिया। उसे सड़क पर ही बच्चे को जन्म देना पड़ा, जिससे नवजात शिशु की मौत हो गई। इस दौरान जबलपुर के लक्ष्मण केवट की मौत भी इसलिए हो गई क्योंकि उसे अस्पताल ने इलाज करने से इंकार कर दिया था। जिन निजी अस्पतालों ने मरीजों को इलाज मुहैया करवाया, उन्होंने फीस के नाम पर लाखों रूपए वसूले।

निजी चिकित्सालयों द्वारा मरीजों का इलाज नहीं किए जाने के ये कुछ उदाहरण मात्र नहीं है, बल्कि एनएचए के आंकड़े भी यही साबित करते हैं, जिसके अनुसार फरवरी से अप्रैल के बीच कैंसर के 57 प्रतिशत, हृदय रोग के 76 प्रतिशत एवं प्रसूति तथा स्त्री रोग के 26 प्रतिशत कम मरीज अस्पतालों में पहुंचे। साथ ही सांस संबंधी लक्षणों वाले 80 प्रतिशत मरीज अस्पतालों में नहीं पहुंचे। इसका मतलब यह नहीं है इन बीमारियों में अचानक कमी आ गई,  बल्कि अस्पतालों ने मरीजों का इलाज करने से ही इंकार कर दिया है। ​ इस तरह सरकार की गोद में फलने—फूलने वाले निजी चिकित्सालय मौत के मुंह में धकेल रहे हैं और सरकार कुछ कर नहीं पा रही है।  हमें यह सोचना होगा कि निजी चिकित्सालयों यह सब करने की ताक​त कहां से मिलती है? स्पष्ट है कि इन अस्पतालों में हमारे राजनेताओं की प्रत्यक्ष — अप्रयत्क्ष साझेदारी होती है, जो इन्हें संकटकाल में भी संजीवनी प्रदान करती है।

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  1. बहुत ही महत्वपूर्ण आलेख है। स्वास्थ्य क्षेत्र में सरकार की पूंजीवादी नीति का अच्छा विश्लेषण किया गया है। यदि सरकार जनता के प्रति प्रतिबद्ध है तो सबके लिए नि:शुल्क स्वास्थ्य का कानून पारित कर स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार बनाएं।

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