अघोषित आपातकाल से जूझता देश-अरविंद जयतिलक

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gandhiदेश का मौजूदा हाल 25 जून, 1975 को श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा थोपे गए आपातकाल से भिन्न नहीं है। अंतर भर इतना है कि तत्कालीन सरकार संप्रभु संविधान को निलंबित कर लोकतांत्रिक मर्यादाओं और संस्थाओं को मटियामेट किया वही मौजूदा सरकार संविधान की आड़ लेकर लोकतांत्रिक संस्थाओं और नागरिक अधिकारों का गला घोंट रही है। आपातकाल के चार दशक गुजर जाने के बाद देश में एक नई पीढ़ी आयी है। वह श्रीमती गांधी द्वारा थोपे गए आपातकाल से अपने को कितना जोड़ पायी है यह कहना तो कठिन है। लेकिन अपने अधिकारों के प्रति उसकी सजगता लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत है। फिर भी चार दशक पहले लूटी गयी लोकतंत्र की लाज से नई पीढ़ी को अंजान नहीं रहना चाहिए। जो राष्ट्र अपने अतीत से सबक नहीं लेता वह मर जाता है। नई पीढ़ी को जानना-समझना जरुरी है कि किस तरह एक निर्वाचित सरकार सत्ता अहंकार में निरंकुशता की हदें पार कर देश पर आपातकाल थोप दी थी। 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के रायबरेली चुनाव को भ्रष्ट तरीके से जीतने का आरोप लगाकर रद्द कर दिया। साथ ही उन पर छः साल चुनाव न लड़ने का प्रतिबंध भी लगाया। इस फैसले से श्रीमती गांधी बौखला गयी। उनका सत्तात्मक अहंकार जाग उठा। लेकिन उनके पास विकल्प सीमित थे। या तो वह न्यायालय के फैसले का सम्मान कर अपने पद से इस्तीफा देती या संविधान का गला घोंट तानाशाही लादती। उन्होंने दूसरा रास्ता चुना। संविधान को निलंबित कर बगैर कैबिनेट की मंजूरी के ही देश पर आपातकाल थोप दिया। निरंकुशता पर उतारु श्रीमती गांधी की सरकार की पुलिस जयप्रकाश नारायण समेत तमाम उन लोकतंत्र समर्थकों को मीसा और डीआइआर कानूनों के तहत जेल में ठूंस दिया जो सरकारी तानाशाही का विरोध कर रहे थे। प्रेस की आजादी पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। यही नहीं समाचार पत्रों में संपादकीय स्थान का रिक्त होना भी सरकार अपने खिलाफ विद्रोह मानती थी। सरकार ने लोकतांत्रिक मर्यादा को ताक पर रख लोकतांत्रिक संस्थाओं पर ताला झुला दिया। सरकार की पुलिसिया फौज क्रुरता से राजनीतिक विरोधियों को कुचलने लगी। मोरार जी देसाई के शासन में गठित शाह आयोग की रिपोर्ट में दिल दहलाने वाले निरंकुशता का भरपूर जिक्र है। कहा गया है कि आपातकाल के दौरान गांधी जी के विचारों के साथ-साथ गीता से भी उद्धरण देने पर पाबंदी थी। सत्ता के चाटुकारों द्वारा प्रचारित किया गया कि जयप्रकाश नारायण का आंदोलन फासिस्टवादी है। ठीक उसी तरह जैसे आज अन्ना के आंदोलन को मौजूदा सरकार के खेवनहारों द्वारा फासिस्ट बताया जाता है। श्रीमती गांधी न्यायपालिका को मुठ्ठी में कैद करने के लिए संवैधानिक नियमों को ताक पर रख दिया। उन्होंने उच्चतम न्यायालय के तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की वरिष्ठता की अनदेखी करते हुए चौथे नंबर के जज को मुख्य न्यायाधीश बनाया। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय पर स्थगनादेश जारी किए जाने के बाद वह और बौखला उठी। उन्होंने संविधानेत्तर सरकार चला रहे अपने पुत्र संजय गांधी की मदद से उन सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं को मटियामेट करना शुरु कर दिया जिसे उनके पिता और देश के प्रधानमंत्री पंडित नेहरु ने संवारने में दिलचस्पी दिखायी थी। बिना अभियोग चलाए ही लाखों लोग जेल में भेंज दिए गए। संवैधानिक संस्थाएं श्रीमती गांधी की सुर में सुर मिलाने लगी। लेकिन लोकतंत्र में तानाशाह हमेंशा हारता है। फिर श्रीमती गांधी की तानाशाही बरकरार कैसे रह सकती थी। 1977 के आम चुनाव में देश की जनता ने उन्हें मचा चखा दिया। कांग्रेस पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया। जयप्रकाश के आंदोलन ने तानशाही की कमर तोड़ दी। लेकिन असल सवाल अब भी जस का तस है। क्या देश आपातकाल से मुक्त है? क्या लोकतांत्रिक संस्थाएं खतरे में नहीं हैं? क्या नागरिकों के मौलिक अधिकार  कुचले नहीं जा रहे हैं? क्या पुलिसिया जमात हिंसा पर उतारु नहीं है? क्या सरकार के मंत्री निरंकुश और भ्रष्ट नहीं है? अगर हां तो फिर क्या फर्क है श्रीमती गांधी और डा0 मनमोहन सिंह की सरकार में? हालात तो पहले से भी बदतर हैं। गरीबी, बेरोजगारी और भूखमरी का विस्तार हुआ है। गरीबी के कारण मौत का सामना करने वाले विश्व के संपूर्ण लोगों में एक तिहाई संख्या भारतीयों की है। देश में तकरीबन 30 करोड़ से अधिक लोग खाली पेट सो रहे हैं। जबकि सरकारी गोदामों में हर साल साठ हजार करोड़ रुपए का अनाज सड़ रहा है। आंकड़े बताते हैं कि गरीब तबके के बच्चों और महिलाओं में कुपोषण अत्यंत निर्धन अफ्रीकी देशों से भी बदतर है। भारत के संदर्भ में इफको की रिपोर्ट कहती है कि कुपोषण और भूखमरी की वजह से देश के लोगों का शरीर कई तरह की बीमारियों का घर बन गया है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति शर्मिंदा पैदा करती है। 119 विकासशील देशों में 96 वां स्थान प्राप्त है। सूची में स्थान जितना नीचा होता है सम्बन्धित देश भूख से उतना ही अधिक पीडि़त माना जाता है। विश्व बैंक ने ‘गरीबों की स्थिति’ नाम से जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया में करीब 120 करोड़ लोग गरीबी से जुझ रहे हैं और इनमें एक तिहाई संख्या भारतीयों की है। रिपोर्ट के मुताबिक निर्धन लोग 1.25 डॉलर यानी 65 रुपए प्रतिदिन से भी कम पर गुजारा कर रहे हैं। यह सब सरकार की असफल आर्थिक नीतियों का नतीजा है। देश का लूटा गया धन विदेशी तिजोरियों में बंद है। जनता उसकी वापसी की मांग कर रही है और सरकार उन पर लाठी बरसा रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले आंदोलनकारियों को सांप्रदायिक घोषित कर रही है। सच्चाई पेश करने वाले पत्रकारों और आरटीआई कार्यकर्ताओं को टारगेट कर रही है। क्या यह इस बात का सबूत नहीं है कि देश अघोषित आपातकाल से जूझ रहा है? कालेधन के खिलाफ आंदोलन चला रहे योगगुरु रामदेव और उनके सत्याग्रहियों पर जिस तरह दिल्ली के रामलीला मैदान में जुल्म ढाया गया क्या वह आपातकाल की याद नहीं दिलाता है? जिस तरह लोकपाल पर सरकार की हठधर्मिता उजागर हो रही है और नागरिक समाज विवश है वह एक  जिंदा लोकतंत्र का प्रमाण नहीं है। जिस सत्याग्रह और अनशन को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई का सबसे ताकतवर हथियार बताया था आज उन्हीं के नाम की माला जपने वाली यूपीए सरकार उसे लोकतंत्र के लिए खतरनाक बता रही है। आखिर क्यों? क्यों न सरकार की इस अभिव्यक्ति को गांधी की अहिंसावादी विचारधारा के खिलाफ एक जंग माना जाए? गांधी ने लोकतंत्र की मजबूती के लिए अंतःकरण की शुद्धता पर बल दिया था। क्या उनके नाम की माला चलने वाली सरकार उस रास्ते पर चल रही है? क्या उसका अंतःकरण शुद्ध है? सरकार को स्पष्ट करना चाहिए कि वह सत्याग्रहियों के साथ अपराधियों जैसा व्यवहार क्यों कर रही है? वह लोकभावना का मजाक क्यों उड़ा रही है? क्या गांधी ने कभी लोकभावना का मजाक उड़ाया था? याद रखना होगा कि लोकतंत्र की बहाली और नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए गांधी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ अनगिनत बार अनशन किया। लेकिन तमाशा कहा जाएगा कि मौजूदा सरकार अनशन और आंदोलनकारियों पर राजद्रोह का मुकदमा ठोक रही है। उन्हें राष्ट्रद्रोही करार दे रही है। विचार करना जरुरी है कि लूटमार व शोषण की पोषक ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जब गांधी का अनशन और आंदोलन लोकतंत्र और मानवता के खिलाफ नहीं हो सकता तो फिर भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ अन्ना और रामदेव का अनशन-आंदोलन लोकतंत्र के विरुद्ध कैसे कहा जा सकता है? पर सरकार की दृष्टि में वह हर समाजसेवी और आंदोलनकारी राजद्रोही है जो सरकार की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक धोखाधड़ी के खिलाफ मुखर है। कांग्रेसी सत्ता प्रतिष्ठानों के व्यूहकारों का जब नंगापन उजागर हो गया है तो वे अब उसे छिपाने के लिए समाजसेवियों और आंदोलनकारियों को आरएसएस का व्यक्ति बता उनके आंदोलन को लांक्षित कर रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे आपातकाल के दिनों में इंदिरा सरकार के खेवनहारों ने जयप्रकाश नारायण को आरएसएस का एजेंट करार दिया था। लेकिन देश की जनता सब कुछ देख-समझ रही है। वह देख चुकी है कि किस तरह केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर एक भ्रष्ट अधिकारी को नियुक्त करने का प्रयास किया गया और अदालत से लताड़ खाने के बाद कदम पीछे हटाया गया। जनता देख चुकी है कि किस तरह टू-जी स्पेक्ट्रम आवंटन, कटमनवेल्थ गेम्स और कोयला आवंटन घोटाले में अरबों-खबरों का लूट मचा। प्रधानमंत्री ने अपने सचिवों और मंत्रियों के मार्फत सीबीआई की स्टेटस रिपोर्ट से छेड़छाड़ करायी। बदले में सीबीआई को सर्वोच्च अदालत से लताड़ खानी पड़ी। देश यह भी देख रहा है कि सत्ता के नराधम पुलिसिया क्रुरता से आमजन को रौंद रहे हैं और सर्वोच्च न्यायालय उसकी तुलना जलियावाला बाग कांड से कर रहा है? सवाल लाजिमी है कि क्या इस बनावटी लोकतंत्र में नागरिक अधिकार सुरक्षित रह गए हैं? अगर नहीं तो कहना गलत होगा कि देश आपातकाल से मुक्त है

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  1. पुरे देश की हालत ही ख़राब हो गयी है,सरकार ऐसी कोई बात नहीं सुनना चाहती जो उसके खिलह हो. न कोई ऐसा कानून बनाना चाहती है,जिससे उसकी मनमानी पर कोई रॊक लगे.इस मामले में केंद्र व राज्य सरकारे सामान ही है,चाहे लोकपाल बिल हो या अन्य कोई अधिकार बिल जो जनता से सम्बंदित हो.सभी दल भी इस विषय में सामान विचार रखते है,तीसरा मोर्चा भी एक भ्रम से ज्यादा कुछ नहीं.यह गठबंधन सरकारों से भी ज्यादा कमजोर होगा.

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