पर्यावरण सन्तुलन के लिए गाय आवश्यक

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indian cowराकेश कुमार आर्य

गौवध निषेध पर संविधान सभा में बड़ी रोचक बहस हुई थी। पूर्वी पंजाब के जनरल पंडित ठाकुरदास भार्गव, सेठ गोविंददास, प्रो. छिब्बनलाल सक्सेना, डा. रघुवीर (सी.पी. बेरार : जनरल) मि. आर.बी. धुलिकर, मि. जैड, एच. लारी (यूनाईटेड प्रोविन्स मुस्लिम सदस्य) तथा असम से मुस्लिम सदस्य रहे सैय्यद मुहम्मद सैदुल्ला सहित कई विद्वान सदस्यों ने गौमाता के वध निषेध पर अपने विचार रखे थे, और यह अच्छी बात थी कि उस समय संविधान सभा में उपस्थित रहे सदस्यों ( मुस्लिम सदस्यों सहित) ने गौवध निषेध के पक्ष में ही अपने विचार व्यक्त किये थे।
इन लोगों के सदप्रयास और सदविचारों के चलते भारतीय संविधान की धारा 48 में प्राविधान किया गया कि राज्य विशेष कर गायों, बछड़ों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्ल के परिरक्षण तथा सुधार के लिए उनके वध पर प्रतिबंध लगाने के लिए कदम उठाएगा। दुर्भाग्य रहा कि इस देश का कि संविधान का यह अनुच्छेद केवल ‘शोपीस’ बनकर रह गया। क्योंकि देश का जो पहला प्रधानमंत्री बना था वह स्वयं मांसाहारी था। इसलिए वह नही चाहता था कि देश में गोहत्या निषेध जैसी स्थिति उत्पन्न हो। यद्यपि 1938 में अखिल भारतीय कांग्रेस ने पंडित नेहरू के नेतृत्व में ही एक नेशनल प्लानिंग कमेटी बनाई थी जिसकी 30-35 छोटी उपसमितियां थीं।
1946 में इन समितियों ने अपनी अलग-अलग रिपोर्टें दीं। जिनके अवलोकन से स्पष्ट हुआ कि संपूर्ण भारत में गोवध पूरी तरह से बंद होना चाहिए। संविधान सभा और इन समितियों के इस निष्कर्ष के उपरांत भी 1954 में भारत सरकार के पशुपालन विभाग ने फिर एक समिति बनायी जिसका नाम रखा गया कि वह गोवध बंद करने के लिए उपाय सुझाए। लेकिन इस समिति ने अपने ‘आका’ को प्रसन्न करने के लिए गोवध निषेध पर अपने उपाय न सुझाकर ‘गोवध कैसे जारी रखा जा सकता है’ इस पर अपने विचार और सुझाव प्रस्तुत किये। समिति ने कहा कि हमारे यहां सौ में से चालीस गायों बैलों को खिलाने के लिए पौष्टिक आहार है, बाकी 60 गाय-बैलों को तो हम आहार ही नही दे पाएंगे। इसलिए सौ में से 60 कमजोर गाय-बैलों को तो हमें मारना ही पड़ेगा।
इसके पश्चात 1938 की पंडित नेहरू की अध्यक्षता वाली कमेटी और उसकी 30-35 उपसमितियों की रिपोर्ट तथा संविधान सभा के विद्वान सदस्यों के राष्ट्रवादी विचारों की उपेक्षा करते हुए इसी 1954 की समिति की आख्या को भारत में गोवध जारी रखने का कारण घोषित किया गया। आज तक जितनी गऊएं या बैल काटे जाते हैं उन सबको वृद्घ और अनुपयोगी दिखाया जाता है, इसमें सरकारी डा.
और संबंधित अधिकारियों की सांठ गांठ होती है जो लाइसेंस धारी कातिलों को इन पशुओं को मारने की स्वीकृति प्रदान करते हैं। इस प्रकार बड़ी ही सावधानी से तथा चुपके से राष्ट्र की आत्मा की तथा संविधान के अनुच्छेद 48 की हत्या कर दी जाती है। जब भी कोई गाय इस देश में कहीं कटती है, या रोजाना कत्लगाहों में जब-जब मारी जाती है तब-तब वह रोती हुई संविधान सभा के लोगों को तथा 1938 की समिति के सदस्यों को तो शुभाशीष देती है, पर इस देश की आत्मा की हत्या करने वालों को तथा इस हत्या को देखने वालों को धिक्कारती हुई इस संसार से चली जाती है।
प्रत्येक भारतीय 420 गायों का हत्यारा
कोलम्बस ने जब 1492 में अमेरिका की खोज की थी तो वह वहां 40 गायें और दो सांड लेकर गया, जो कि 1940 तक बढ़कर लगभग साठे सात करोड़ हो गयीं, अर्थात 1492 की 40 गायों के मुकाबले 18 लाख 7 सौ 75 गुणा वृद्घि हुई। जबकि भारत में अकबर (1556 से 1605ई.) के काल में 28 करोड़ गायों के होने का आंकड़ा उपलब्ध है। 1492 से 1940 तक कुल 548 वर्ष हुए जिनमें अमेरिका में 40 से बढ़कर साढ़े सात करोड़ गायें हुईं। अब अकबर के काल को 2011 की जनगणना के समय भी लगभग 450 वर्ष ही हो गये थे, तो उसके काल की कुल गायों की संख्या अर्थात 28 करोड़ का 18 लाख 7 सौ 75 गुणा 5 खरब 25 अरब गायों का हो जाना संभावित था। अब सवा अरब का भाग 5 खरब 25 अरब में देने पर 420 आता है। इसका अभिप्राय हुआ कि भारत के प्रत्येक व्यक्ति के पास आज 420 गायें होतीं (यदि उनका वध निरंतर न होता रहता तो)। अमेरिका ने बढ़ाया और हमने 450 वर्षों में घटाया। यदि हम आज 420 गायों के मालिक नही हैं तो समझो कि हमने 420 गायों का वध (भ्रूण हत्या) करने का अपराध अपने ऊपर ले लिया है। इतने बड़े अपराध को लेकर ही भारत में प्रत्येक बच्चा जन्मता है।
विश्व के प्रत्येक व्यक्ति को 75 गायें भारत दे सकता था
अब भारत की कुल 5 खरब 25 अरब गायों की संख्या को भारत की कुल आबादी की भांति ही विश्व की कुल जनसंख्या से अर्थात 7 से भाग दिया जाए तो भजनफल 75 आता है, इसका अभिप्राय है कि आज भारत विश्व के प्रत्येक व्यक्ति को 75 गायें देने की स्थिति में होता।
विश्व की अर्थव्यवस्था तब गाय आधारित होती
यदि ऐसी स्थिति बन जाती तो सारे विश्व की अर्थव्यवस्था तब गाय आधारित होती। सारे विश्व में ही कोल्ड ड्रिंक्स की बड़ी बड़ी कंपनियां कहीं ना होतीं। दूध दही-लस्सी, मक्खन से पौष्टिक आहार तैयार होता और विश्व में कहीं पर भी कैंसर सहित सैकड़ों प्राणलेवा बीमारियों का कहीं अता पता ही नही होता। भारत में कृषि की स्थिति उन्नत होती, क्योंकि गायों के गोबर से उत्तम खाद खेतोंंं को मिल रही होती। जिससे स्वस्थ फसल और स्वस्थ अन्न हमारे घरों में आ रहा होता। आज की तरह रासानियक खादों से तैयार हो रही प्राणलेवा हरी सब्जियों की समस्या ही कहीं दिखाई नही देती और ना ही हम दूषित अन्नौषधियां का सेवन करने के लिए अभिशप्त होते। सारे भारत में हरियाली होती और हम अपने यज्ञ विज्ञान के आधार पर अपने राजस्थान जैसे प्रांतों में भी हरितक्रांति करने में सफल हो जाते। साथ ही भारत में अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रूपये के अवमूल्यन का वर्तमान शर्मनाक दौर भी हमें देखने को नही मिलता।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए कई वर्ष पूर्व वैज्ञानिकों ने एक चेतावनी दी थी कि यदि यहां रासायनिक खादों का प्रयोग इसी प्रकार जारी रहा तो सन 2050 तक इस क्षेत्र की ऊर्वराभूमि पूर्णतया अनुर्वर हो जाएगी। वैज्ञानिकों का कहना है कि रासायनिक खादों के अंधाधुंध प्रयोग से कृषि उपज निरंतर गिर रही है और कृषि योग्य भूमि निरंतर अनुपजाऊ (बंजर) होती जा रही है। यदि गोवध जारी रखने की 1954ई. की समिति की सिफारिशों को रद्दी की टोकरी में फेंककर उससे पूर्व की (1938ई.) समिति की रिपोर्ट पर ध्यान दिया जाता तो आज यह स्थिति नही आती।
पाप बोध से उबर नही पाए
11 अगस्त सन 2003 को अटल सरकार ने देश की आत्मा की पुकार को समझते हुए संसद में पूर्ण गोहत्या निषेध हेतु एक बिल पेश किया। तत्कालीन कृषि मंत्री राजनाथ सिंह ने उक्त विधेयक को पेश ही किया था कि गोहत्या जारी रखने के समर्थक दलों ने (कम्युनिस्ट सबसे आगे थे) इस बिल का जोरदार विरोध आरंभ कर दिया। शोरगुल इतना अधिक रहा था कि भाजपा के कई समर्थक दल भी उसी में शामिल हो गये थे और एक अच्छी पहल की भ्रूण हत्या करने के लिए सरकार को विवश होना पड़ा। इस प्रकार आशा की एक किरण जगते-2 रह गयी। पापी अपने पापबोध से उबर नही पाए और उसी में डूबकर मर गये।
पर्यावरण सन्तुलन गाय से ही संभव है
वेद ने एक अद्भुत शब्द ‘सहचर्य’ की खोज की। वास्तव में इस शब्द में ही प्राकृतिक और पर्यावरणीय संतुलन का रहस्य छिपा है। भारत ने आदिकाल से पर्यावरण संतुलन के लिए सहचर्य का प्रयोग किया है। इसलिए भारत ने जीवन को एक प्रतियोगिता या प्रतिस्पर्द्घा न मानकर साथ साथ चलने और साथ-साथ रहने का आनन्दोत्सव माना और इसी प्रकार जीने का प्रयास किया। पश्चिमी जगत ने अपनी मिथ्या धारणाएं संसार को दीं तथा संसार को नरकगाह या कत्लगाह में परिवर्तित कर दिया। फलस्वरूप सारे संसार में आज उपद्रव, उन्माद, और उग्रवाद का ताण्डव नृत्य हो रहा है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के खगोल भौतिकी के रीडर डा. मदनमोहन बजाज और उनके साथी डा. इब्राहीम एवं डा. विजयराज सिंह ने रूस के पुशीना नगर में सितंबर 1994 में संपन्न हुए अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान सम्मेलन में ‘आइंसटीन पेन वेव्स’ के सिद्घांत के आधार पर अपने बहुचर्चित शोधपत्र में सिद्घ किया कि धरती माता अपनी संतानों का निर्ममता पूर्वक संहार होते देखकर रोती है, क्रंदन करती है, चीखती है, दहाड़ती है, वही भूकंप बन जाती है।
हमने सहचर्य को तिलांजलि दी तो धरती माता ने हमें दंड देना प्रारंभ कर दिया है। दण्ड की यह प्रक्र्रिया गति पकड़ती जा रही है। प्रत्येक वर्ष बाढ़ों, भूकंपों व ऐसी ही प्राकृतिक आपदाओं का क्रम निरंतर बढ़ रहा है। प्रकृति ने ‘दण्ड’ हाथ में ले लिया है और मानव अपने अस्तित्व के लिए स्थान खोजता फिर रहा है।
अच्छा हो कि अब भी गौमाता की शरण में आ जाएं, क्योंकि आपत्ति में मां ही सहायक होती है, और मां ही काम आती है। मां अवश्य शरण देगी क्योंकि वह करूणामयी होती है। संविधान के रक्षको! निहित स्वार्थों में संविधान के भक्षक मत बनो, संविधान की मूल भावनाओं को समझो और गौमाता को यथाशीघ्र राष्ट्रीय पशु घोषित करो। समय की यही पुकार है।

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

9 COMMENTS

  1. एक क्वेकर सोसायटी के सदस्य मिले, (कुछ वर्ष पूर्व की बात है) जब उन्हें बताया गया, कि भारत में गौ-वध बंदी नहीं है।
    तो गहरे आश्चर्य से बोले, विश्वास नहीं होता, कि, गांधी का भारत ऐसा कैसा कर सकता है?

    वैष्णव जन तो तेने रे कहिए, जे पीड पराई जाणे रे।
    {वैष्णव जन उसे ही कहिये, जो पराई पीर जानता है।}
    राकेश जी ने अच्छा विषय प्रस्तुत किया है।
    बहुत बहुत धन्यवाद।
    और राजेश कपूर जी से सहमति।

  2. सदा के सामान आर्य जी ने उत्तम विषय पर उत्तम लेख लिखा है. मैं कुछ महत्वपूर्ण जानकारी देने की अनुमति चाहूँगा………
    *विश्व में दो प्रकार का गोवंश है, एक विषाक्त और एक विश रहित व स्वास्थ्यकारक गुणों से भरपूर.
    * न्यूज़ीलैंड आदि अनेक देशों के बाद भारत में भी इस विषय पर शोध हुए हैं. डा. कीथ वुड की एक विश्व प्रसिद्ध पुस्तक ‘डैविल इन द मिल्क” भी इस पर छपी है.
    भारत सरकार के करनाल (हरियाणा) में स्थित शोध संस्थान ‘एनबीएजीआर'( नेशनल ब्यूरो ऑफ़ जेनेटिक रिसोर्सिज) के ७ वैज्ञानिकों द्वारा किये और छापेगये शोध के अनुसार ……………..
    * अधिकाँश विदेशी गोवंश ( जर्सी, हौल्स्टीन, एचएफ आदि) विषाक्त हैं.
    * इनके घी-दूध से अनेक असाध्य रोग पैदा हो रहे हैं. जैसे कि ऐस्चीमिया हार्ट डिसीज़, डायबिटीज़ टाईप-१,नवाजात बच्चों में ऑटिज्म, सीजोफ्रेनिया, सडन इन्फैंट डैथ सिंड्रोम आदि. कुछ विदेशी वैज्ञानिकों के अनुसार इससे कैंसर भी होता है.
    * वैज्ञानिकों के अनुसार विदेशी गोवंश के दूध में ‘बीटा कैसीन ए१’ नामक प्रोटीन पाया जाता है. इसके प्रोटीन की ६७ वीं कड़ी कमजोर है . पाचन के समय ६७ वीं कड़ी विषाक्त हिस्टाडीन का निर्माण करती है जिससे ‘बीसीएम् ७’ (बीटा कैसो मोर्फिन ७ ) नामक घातक प्रोटीन का निर्माण होने लगता है. इसी प्रोटीन के कारण उपरोक्त अनेक असाध्य रोग पैदा होते हैं.
    * करनाल के वैज्ञानिकों के अनुसार भारत का ९८% गोवंश विश रहित “बीटा कैसीन ए२” वाला है. इससे भी बढ़ कर हमारे गोवंश के घी-दूध में ‘सेरिब्रोसाईट’ नामक तत्व भारी मात्रा में पाया गया है. इस दूध को पीने से माताओं की संताने अत्यंत बुद्धिमान और खूब स्वस्थ होती हैं. युएसए से प्राप्त ४ पेटेंट के अनुसार इन गौओं केमूत्र में सीएलए व कैसर नाशक तत्व पाए गए हैं. कैंसर के कोशों को मारने और उसकी चिकित्सा में ये अत्यंत उपयोगी हैं. पेटेंट के अनुसार इस गोमूत्र से एलोपैथिक दवाओं का प्रभाव कई गुणा बढ जाता है और दुप्रभाव नष्ट होते हैं. एक नवीनतम जानकारी के अनुसार स्वदेशी गोवंश के उत्पादों में स्वर्ण होने की बात भी प्रमाणित हुई है जिसे पेटेंट मिल चुका है.
    * भारतीय गोवंश के दूध में ६७ वीं कड़ी में पाचन के समय हिस्तादीन के स्थान पर ;प्रोलीन बनाता है.
    * गर्सीन नामक विदेशी गोवंश को विषाक्त प्रोटीन से मुक्त पाया गया है पर उसमें भारतीय गोवंश जैसे स्वास्थयकारक विशेषताएं नहीं हैं. वैसे तो भैंस,बकरी आदि सभी का दूध ए २ यानी विष रहित है(इन अमेरिकन, युरोपियन गोवंश को छोड़ कर).
    * भारत की विडंबना यह है कि हम विदेशियों के कहने पर विदेशी विषाक्त बैलों के वीर्य के टीके (आर्टिफिशियल इन्सेमिनेशन) लगाकर अपने स्वदेशी विषरहित गोवंश को पीढ़ी दर पीढी विषाक्त बनाते जा रहे हैं.
    * एक और विडंबना यह है कि विदेशी नस्लों के संयोग से संकर नल बनाने के लिए तर्क यह दिया जाता है कि स्वदेशी गौओं में दूध कम है. अतः विदेशी बैलों के वीर्य के टीके लगा कर दूध बढ़ाना ज़रूरी है. अन्यथा देश में दूध की कमी हो जायेगी. पर यह सहोद भी हो चुका है कि विदेशी व स्वदेशी के मिल से बनी संकर नस्लों में तीसरी पीढी में दूध या तो समसप्त प्रायः हो जाता है या बहुत कम हो जाता है. इसी लिए हमारी करोड़ों गौएँ बाँझ बन कर सडकों पर घूम रही हैं. यही होना था, हर वैटनरी वैज्ञानिक इस बात को भली-भांती जानता है. परिणाम हमारे सामने हैं, जो कभी नहीं हुआ वह अब हो रहा है. फिर भी वही विनाशक नीतियाँ जारी हैं.
    * महाराष्ट्र की एक आई ए एस महिला अधिकारी के सर्वेक्षण के अनुसार स्वदे३शि से स्वदेशी गोवंश की संकर नस्लें बनाने पर ५ वीं पीढी में भी दूध घटने के प्रमाण नहीं मिलते. तो यदि दूध बढाने के लिए ही संकर नस्ल बनानें होतो केवल स्वदेशी क्यों नहीं ?
    * ज्ञातव्य है कि विदेशी गौण में रोग निरोधक शक्ती कम होने के कारण इनमें रोग बहुत हैं, चिकित्सा खर्च अधिक है, मृत्यु दर बहुत अधिक है, ये चारा भी बहुत अधिक खाती हैं. अतः आर्थिक रूप से भी लाभकारी नहीं हैं.
    * इनके दूध में मवाद ( पास) भी काफी मात्रा में पाई जा रही है. टी.बी के फ़ैलाने में इनका बडा हाथ है. इस भयावह तथ्य को छुपा कर रखा जाता है.
    * सारा संसार गुप-चुप अपने विषाक्त ए १ विषाक्त गोवंश को बदल कर ए २ बनाने३ में लगा हुआ है. और हम अपने अमृत तुल्य गोवंश को नष्ट करने में लगे हुए हैं.
    * आखिरकार ब्राजील ने भी तो ४० लाख से अधिक भारतीय गोवंश तैयार किया है. ( युट्यूब पर देखें) अमेरिका भी यही कर रहा है. ( यु ट्यूब पर देखें ‘ब्राह्मिन काऊज़ इन अमेरिका) और अपना विषाक्त गोवंश हमारे सर महंगे दामों पर मढ रहा है.
    * यदि हम अपनी विषाक्त बन चुकी गौओं को उत्तम नस्ल के स्वदेशी बैलों से मिलाये (यह सम्भव न हो तो स्वदेशी बैलों के वीर्य के टीके लागा कर गर्भाधान करें ) तो अगली पीढ़ी में ही परिदृश्य बदल जाएगा.
    # इसके लिए व्यक्तिगत और सामूहिक स्टार पर सतत प्रयास शीघ्र प्रारम्भ करना उचित होगा. जिसके लिए जितना सम्भव हो वह उतना तो करे. और कुछ नहीं तो इसके बारे में चर्च हां तो कर ही सकते हैं . अनुकूल समय शुरू है, अपे३क्शा से अधिक सफलता सुनिश्चित है.

    • मा॰ कपूर साहब
      सादर नमस्कार,
      आप जैसे विद्वान की दृष्टि से मेरा लेख निकला और उसमें व्याप्त न्यूनताओं को आपने समग्रता देने का प्रयास किया, सचमुच यह मेरा सौभाग्य है। ‘‘प्रवक्ता’’ ने निश्चित रूप से कई चिन्तकों को निकट लाने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। आपकी चिन्तन ‘शैली और संस्कृति प्रेम अति उत्तम है। आपका प्रेमपूर्ण आशीर्वाद मिल रहा है, इसके लिए हार्दिक धन्यवाद।
      सादर।

      • आर्य जी आपके सदप्रयासों के लिए हार्दिक शुभकामनाएं. देश को आप सरीखे प्रखर देशभक्त और दूरदृष्टी रखने वाले विद्वान लेखकों की भारी आवश्यकता है. अन्यथा राष्ट्रीय मीडिया लागभग पूरा गुलाम बन चुका है. ”प्रवक्ता” जैसे चन्द अपवाद हैं. ये भी न जाने कितने दबाव झेल रहे होंगे.
        # अपनी पिछली टिपण्णी में कुछ जोडने और कुछ त्रुटियों को दूर करने की आवश्यकता है……………
        * भारतीय गोवंश के दूध में ६७ वीं कड़ी में पाचन के समय हिस्तादीन के स्थान पर प्रोलीन बनाता है.

        ”टिप्पणी की इस पंक्ती में होना चाहियॆ – भारतीय गोवंश में पाई जाने वाली प्रोटीन की एमीनो एसिड चैन में ६७ वी कड़ी पाचन के समय ‘प्रोलीन’ बनाती है जबकि विदेशी गोवंश की एमीनो ऐसिड चैन में पाचन के समय एक ओपिएट (विषाक्त पदार्थ) ‘हिस्टाडिन’ बनाता है. यह दुर्बल कड़ी टूट कर एक और विषाक्त प्रोटीन ‘बी सी एम् ७’ (बीटा कैसो मोर्फिन ७) का निर्माण करता है. यह विषाक्त प्रोटीन हमारे रक्त प्रवाह में प्रवेश करके (पूर्व टिपणी में) वर्णित भयावह व असाध्य रोगों को पैदा करता है.
        – एक उच्च अधिकारी से बात हुई तो उसने कहा कि इस सत्य को बतला कर हम आतंक नहीं फैलाना चाहते. अजीब बात है ? लोग चाहे मरते रहें पर सच सामने नहीं लाना है. शायद सच तो यह है कि अपने दुष्कर्मों को सामने लाने से ये सरकार और वैज्ञानिक घबरा रहे हैं.”

  3. एक बात पर ध्यान दीजिये यदि हिन्दू गौमाता के इतने भक्त हैं तो बूढी गायें सड़को पर क्यो विचरती हैं कूड़ा कचरा खाकर जीने पर क्यों विवश हैं। उनकी हत्या नहो उनका मांस न खाया जाये इस पर तो हाहाकार मच जाता है पर जो गायें दुधारू नहीं है उनको सड़कों पर छोड़ दिया जाता है।

    • अपने आलेख, पर्यावरण सन्तुलन के लिए गाय आवश्यक, में राकेश कुमार आर्य जी ने एक जटल समस्या प्रस्तुत की है| आलेख द्वारा अकस्मात् जगा दी गई सोई जनता एक एक कर सड़क पर छोड़ी गाय की ओर संकेत करते कोई समाधान न ढूँढ़ समस्या की गंभीरता को ही मिटा देती है| प्रश्न से प्रावधान की ओर एकजुट बढ़ना होगा| वर्षों पहले पीपल के नीचे मंच पर बैठे जटाधारी संत को अपने शिष्यों को “युगों पहले भारत में एक तरल पदार्थ होता था जिसे हम घी कहते थे!” बताते व्यंगचित्र को मैं आज यथार्थ देखता हूँ| घोर भ्रष्टाचार व अनैतिकता के चलते भारतीय चरित्र में संगठन केवल विनाशकारी तत्वों, क्रत्रिम दूध के उत्पादन और वितरण में लगे लोगों, में देखने को मिलता है| कॉकरोच की भांति खाते, पीते, और हगते हम केवल उपभोगता हैं| यदि संगठित “चींटी की कतार” स्वरूप हम सृजनशील कार्यरत हों तो उचित व्यावसायिक ढंग से बड़ी बड़ी दुग्धशालाओं की स्थापना कर गौबध व दूध, दोनों समस्याओं को नैतिक तरीके से हल कर सकते हैं|

    • आ. बीनू भरनागर जी,
      आपका उठाया गया बिन्दू विचारणीय अवश्य है, लेकिन वह इस आलेख का प्रतिपाद्य विषय नहीं था। वह हमारे संस्कारों में आयी गिरावट का परिणाम है। और हमें उस और ध्यान केन्द्रित करने के लिए आज की ‘‘शिक्षा नीति’’ में व्यापक परिवर्तन करने होंगे। आपका धन्यवाद।

  4. राकेश कुमार आर्य जी, आपका शोधपूर्ण आलेख एक धर्मपरायण एवं राष्ट्रवादी भारतीय की उत्कृष्ट भावना है| आपको हार्दिक धन्यवाद देते हुए मैं यह भी कहना चाहूँगा कि भारतीय सनातन परंपरा के अनुसार आप अकेले ही गौबध विरोधी अभियान में लगे हुए हैं| मैं यह भी जानता हूँ कि आप बीसियों गौरक्षकों के नाम से मुझे अवगत करवा सकतें हैं लेकिन संगठित न होने पर सभी अकेले हैं| मैं सदैव कहता आया हूँ कि हमारी संस्कृति में व्यक्तिवाद के कारण हम १.३ अरब सशक्त भारतीय अकेले हैं और पाश्चात्य सभ्यता में संगठन के कारण मुट्ठीभर बहुतेरे हैं| आज के भारतीय सामाजिक वातावरण मैं आपका आलेख फिर कल की प्रतिध्वनि बन तुरंत अतीत में खो जाता है| भारतीय समाज तो तथाकथित स्वतंत्रता व देश विभाजन के समय से ही हिन्दूराष्ट्र विरोधी तत्वों का अखाडा बना हुआ है| आपके लिए मेरी सीख है| मुगलों और फिरंगी इतिहास में गौ को न ढूँढिये; वहां गाय के साथ साथ हिन्दूराष्ट्र को निघलने की युक्तियों की रचना होती रही है और आज भी होती रहेगी क्योंकि असहाय भारतीय अकेला है|

    • आ॰ इन्सान जी सादर नमस्कार
      आपकी उत्साह जनक टिप्पणी के लिए आपका धन्यवाद। मुगलों और फिरंगियों के विषय में आपके विचार ग्रहणीय हैं। निश्चित रूप से चिन्तन का चिन्तन से घर्षण होता है तो चिन्तन में पैनापन आता ही है। आपके विचारों को विनम्र भाव से स्वीकार करता हूँ।

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