उत्सवों को यादगार बनाएँ नए वर्ष में नए संकल्प लें
डॉ. दीपक आचार्य
हर अमावस के बाद पूनम और इसके बाद अमावास्या। शुक्ल पक्ष के बाद कृष्ण पक्ष और फिर वही क्रम। दिन, महीने साल गुजरते जाते हैं। जो समय बीत गया वह कभी लौटकर वापस नहीं आता। कालचक्र की गति कभी थमती नहीं, युगों से यही सब चला आ रहा है।
जो काल की गति और मनुष्य होने के लक्ष्य को समझ जाते हैं वे समय के साथ आगे बढ़ते हुए वह सब कुछ पा जाते हैं जिसके लिए उन्हें मनुष्य का शरीर मिला होता है।
अज्ञानता और अविवेक से घिरे जो लोग समय की धाराओं और उपधाराओं को पहचान नहीं पाते, वे ठहर जाते हैं। इस ठहराव के साथ ही शुरू हो जाती है यात्रा उनकी कुण्ठाओं, अभिमान और असहजता की। जो अन्ततः देती है विफलताओं और पीड़ाओं का अमिट दंश।
दूसरी ओर जो लोग समय के साथ अपनी रफ्तार बनाए रखकर निरन्तर प्रगतिशीलता का दामन थाम लेते हैं वे कालजयी व्यक्तित्व की ऊँचाइयों को पा लेते हैं और उनके लिए कालचक्र की धुरी विकास का पर्याय बनकर सहयोगी हो जाती है।
भारतीय संस्कृति और परम्पराओं में नव वर्ष का भौगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और बहुआयामी परिवेशीय महत्त्व है जिसमें प्रकृति के जयगान से लेकर ब्रह्माण्ड के अणु-परमाणुओं तक का नूतन उल्लास समाहित होता है। इस दिन का महत्त्व अपने जन्म दिन से भी कहीं अधिक होता है।
दुर्भाग्य से पाश्चात्य चकाचौंध और बन्दरिया नकलचियों की वजह से भारतीय संस्कृति की पुरातन परम्पराओं और बहुविध मूल्यों से हम किनारा करते जा रहे हैं, यह स्थिति हमारी दुर्बुद्धि के साथ ही उत्तरोत्तर पतन का संकेत करती है। अंग्रेज चले गए पर उनके बोये हुए बीजों से हम इतने वर्षों बाद भी मुक्ति नहीं पा सके। स्वाधीनता पाने के बाद भी हम दासत्व की कठोरतम जंजीरों से इतने जकड़े हुए हैं कि हमें वो सब रास आता है जो विदेशी बता गए हैं।
आत्महीनता के दौर दर दौर से गुजरने के बाद हमें वो सब श्रेष्ठ लगता है जो विदेशी करते हैं और दिखाते हैं, भले ही इनका अपने देश के लिए कोई औचित्य न हो। विडम्बना यह है कि नकल करने में हमने बन्दरों को भी पीछे छोड़ दिया है और वे सारी चीजें अपना ली हैं जो न केवल हमारे बल्कि समाज और राष्ट्र के लिए घातक और दूरगामी दुष्परिणामदायी हैं। गौरों का दिया है वो गुड़ है और जो अपना है वह कचरा है, इस मानसिकता के साथ जो लोग जी रहे हैं वे ही भारतवर्ष के लिए भीषण त्रासदी है।
कोई वस्तु हो या विचार, शिक्षा हो या प्रशिक्षण या और कुछ, स्वदेशी की बजाय विदेशी को अपनाने की हमारी गुलामी भरी मानसिकता हमें भारत की आजादी के साथ ही छोड़ देनी चाहिए थी लेकिन हम छोड़ नहीं पाए क्योंकि काले अंग्रेजों की दासता का सुख भोगना हमने शुरू कर दिया है। सदियों की गुलामी का स्वभाव हम आज भी कहाँ छोड़ पाए हैं?
ऐसे ही नूतन वर्ष अभिनंदन को देखें। भारतीय परंपरा में चैत्र नवरात्रि को विक्रम संवत्सर के नवीन वर्ष का आरंभ होता है। सदियों से यह परम्परा चली आ रही है। इस दिन को मनाने के पीछे कई परिवेशीय और वैज्ञानिक कारण हैं जो प्राणी मात्र से लेकर परिवेश तक के लिए सुकूनदायी हैं।
प्रकृति में परिवर्तन, ऋतु परिवर्तन आदि के साथ ही सृष्टि के मूल तत्वों में परिमार्जन और परिपुष्टीकरण का यह समय है। इस दिन के साथ ही जुड़े हैं कई पौराणिक मिथक और औषधीय कारक।
नव वर्ष को पूरे उल्लास के साथ मनाते हुए इसकी आदि परम्पराओं के निर्वाह का जो सुकून हमारे पुरखों ने पाया है उसे हम भुला बैठे हैं। चैत्र नव वर्ष का आगमन ही इस बात का संकेत है कि मनुष्य के जीवन में वह दिन आ गया है जब वह दैवीय और दिव्य तत्वों के संचरण भरे दिनों में जीवन को ऊर्ध्वगामी बनाने का कोई संकल्प ले सकता है।
इस संकल्प में सहभागी होते हैं पंच तत्व, प्रकृति और उन्मुक्त उल्लास। सूर्य और चन्द्र सहित तमाम देवी-देवता, उत्साह भरा चराचर जगत और नवोन्मेषी ऊर्जाओं भरा जातक। इस दिन लिया गया संकल्प बली होता है और व्यक्ति को इसके निर्वाह में कोई बाधा नहीं आती क्योंकि दिव्य लोक से जुड़े सिद्ध और देवी-देवताओं आदि का समूह इसका साक्षी और सहभागी होता है।
जबकि दूसरी ओर पाश्चात्य नव वर्ष इकतीस दिसम्बर की आधी रात को मनाया जाता है जहाँ हर तरफ पसरा होता है आधी रात का अंधियारा, बिजली की बुझन। और साक्षी होते हैं वे सारे काम जो रात के अंधेरे में किये जाते रहे हैं, ऐसे में किसी भी व्यक्ति का शुभ संकल्प पूरा होना संदिग्ध है। अंधेरा पसन्द लोगों के संकल्प और व्यवहार से लेकर जीवनचर्या तक में भोग-विलास और पैशाचिक व्यवहार की झलक देखी जा सकती है।
नव वर्ष का दिन सूरज की साक्षी में नए संकल्पों को लेने का दिन है। ज्यादा नहीं तो एक बुराई छोड़ें और एक अच्छाई पकड़ें। आप जितने वर्ष बड़े होते जाएंगे उतना व्यक्तित्व निखरता जाएगा और एक समय ऐसा आएगा जब आपके व्यक्तित्व की गंध दूर-दूर तक आपको कीर्ति देगी और औरों में जगाएगी प्रेरणा।
नव वर्ष के धूमधड़ाके और इसे मनाने के लिए होने वाले आयोजनों का महत्त्व तभी है जब हम इसे नवीन संकल्पों का त्योहार बनाएं। अन्यथा साल भर ऐसे कई तीज-त्योहार और पर्व आते हैं जिन्हें हम मना लेते हैं मगर उनके मर्म से कभी हमारा रिश्ता नहीं होता।
चैत्री नव वर्ष के आयोजनों में भागीदारी ही काफी नही है। इन आयोजनों का मतलब तभी है जब इससे जुड़े लोग भी समाज की नवरचना और अपने व्यक्तित्व में निखार लाने के लिए कोई ठोस संकल्प लें और साल भर इसका परिपालन करते हुए समाज के लिए उपयोगी साबित हों। भारतीय संस्कृति की परम्पराओं, आदर्शों और नैतिक-सामाजिक मूल्यों को आत्मसात करें।
हममे से कई लोग बातें तो राष्ट्रवाद, समाजवाद, राष्ट्रीय चरित्र, शुचिता और ईमानदारी की करते हैं लेकिन इनके जीवन में झांका जाए तो इनमें से एक भी गुण कहीं नज़र नहीं आता। इसी दोहरे चरित्र की वजह से ही भारतीय संस्कृति पर होने वाले प्रहारों को हवा मिली है। जब हमारी कथनी और करनी में तनिक सा भी अंतर आ जाता है तब हम हम नहीं रहते, अपने आपसे भी पराये हो जाते हैं।
आइये नव वर्ष पर संकल्प लें नए जीवन को अपनाने का जिसमें न स्वार्थ होगा, न किसम-किसम के मुखौटे और न कोई दोहरा चरित्र