विविधा

संस्कृति है चक्रीय हिण्डोला और भाषा उसकी धुरी:

languageडॉ. मधुसूदन

प्रवेश:
(अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर विचार)
ॐ —संस्कृति, एक मण्डलाकार (मेरी गो राउण्ड) हिण्डोला, भाषा है उसकी धुरी।
ॐ—सांस्कृति हिण्डोले की प्रेरणा कौनसी है ?
ॐ—विविध परम्पराओंका योगदान:
ॐ—पुरातन, अद्यतन, नित्य नूतन वही सनातन:
ॐ—सत्य की उपलब्धि वैयक्तिक:
ॐ— पराकोटि की प्रेरणा होती है :

(एक)
संस्कृतिः एक मण्डलाकार हिण्डोला, और भाषा है उसकी धुरी।
कुछ मनोमन्थन उपरांत यही उपमा (प्रारूप) इस लेखक को सटीक लगती है। संस्कृति एक मण्डलाकार (अंग्रेज़ी में, मेरी गो राउण्ड) चक्रीय और गतिमान हिण्डोला है; और भाषा है, इस, गतिमान हिण्डोले की धुरी।

भारतीय संस्कृति गतिमान ही नहीं, प्रगतिमान भी है; असीम प्रेरणादायक है; और भाषा की केंद्रीय धुरी पर टिकी हुयी घूम रही है। इसमें भाषा की धुरी का दृढ योगदान है, हिण्डोले को स्थिर रखने में। साथ साथ इस सांस्कृतिक हिण्डोले की गतिमानता निरन्तर रखी जाती है।
समय समय पर देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप विवेक-जनित, कुछ परिवर्तन भी महापुरूषों द्वारा किए जाते हैं।
ऐसी निरन्तरता के साथ, कालोचित परिवर्तन भी इस चक्रीय हिण्डोले को सतत गतिमान रखते आया है।
ऐसे संस्कृति है एक मण्डलाकार हिण्डोला, और भाषा है उसकी धुरी।

(दो)
हिण्डोले की प्रेरणा कौनसी है ?
आकाश छूने की अटूट आकांक्षा जैसी, सत्य-शोधन की अनंत (अंतहीन) प्रेरणा इस सांस्कृतिक चक्रीय हिण्डोले को आज तक, गतिमान रखती आई है।ऐसे, इसकी सांस्कृतिक पहुँच अति उच्च है; अति भव्य है।
क्या हर कोई सत्य खोज लेता है?
हर-कोई इतनी ऊंचाई प्राप्त ना भी, कर पाए, पर यह सांस्कृतिक हिण्डोला सभी को बिना भेद भाव, अवसर प्रदान करता है; गन्तव्य की ओर, सही दिशा दिखाता ही रहता है।
कोई सन्देह नहीं; कि, आकाश छूने की अटूट आकांक्षा रखने वाली, इस सत्य-शोधन की अनंत (अंतहीन) प्रेरणा ने ही, इस सांस्कृतिक चक्रीय हिण्डोले को आज तक, सदैव गतिमान रखा है। यह प्रेरणा पारतंत्र्य के गत सहस्र वर्षों के क्रूर शासन तले, कुछ क्षीण हुयी पर उसका अंत नहीं हो पाया।

(तीन)
असहिष्णु क्रूर शासन में भी टिकाव:
कछुए पर प्रहार हो, तो, वह जैसे, अपना मुख कवच के अंदर खींच कर, रख लेता है; वैसे ही, जब बाहर असहिष्णु और क्रूर शासन चल रहा था; तो, घर घर में, छोटे देवघर बना कर मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा कर, भक्ति की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक ज्योति जलती रही। ऐसे भक्ति परम्परा ने हमारी सांस्कृतिक रक्षा की।
इसी ऐतिहासिक अंतराल में भक्ति की परम्परा प्रकृष्ट हुयी। मीरा, नरसी मेहता, कबीर, सूरदास, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, एकनाथ, रामदास इत्यादि संत हुए। और भक्ति की परम्परा ने संस्कृति टिकाई।यह सनातन धर्म की विशेषता है, कि, जैसा समय या संकट; उसके अनुरूप, मार्ग वह चुन लेता है।
कभी भक्ति, कभी ज्ञान, कभी कर्म, कभी ध्यान।
उसी प्रकार इष्ट देवताओं की भी कमी नहीं। न मूर्तियों की कमी है। अलग अलग मार्गों की उपलब्धि हमें हर परिस्थिति में टिकाए रखने में सक्षम होती है।
काल काल में अंतर होता है। देश देश में अंतर होता है। परिस्थिति परिस्थिति में अंतर होता है। विवेक उसी को कहते हैं, जो, देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप साधन चुनता है। यही तो है, विवेक की व्याख्या।
(चार)
विविध परम्पराओंका योगदान:
साथ साथ, बाहर भी कुम्भ मेले लगते ही रहे; यात्राएँ चलती ही रही।
ऐसी प्रेरणा अंतहीन होते हुए भी इस हिण्डोले पर आरूढ घटक सदस्य (हर कोई) अपनी अपनी आध्यात्मिक योग्यता के अनुपात में सत्य के प्रत्यक्ष साक्षात्कार की उपलब्धि भी करते ही रहे हैं। और, हिण्डोले को निरन्तर ऐसी गति प्रदान करने में हमारी सारी और विविध आध्यात्मिक परम्पराएँ योगदान देती रही हैं।

(पाँच)
सत्य की उपलब्धि वैयक्तिक:
अतः यह, सांस्कृतिक हिण्डोला हमें, आध्यात्मिक उन्नति का अवसर प्राप्त कराता आया है। हिण्डोला सार्वजनिक होते हुए भी सत्य की प्रत्यक्ष उपलब्धि वैयक्तिक ही होती है। जिन्हें उपलब्धि प्राप्त होती है, उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से पहचाना जा सकता है, उनके व्यवहार से; वैसे ही उनके विशुद्ध, त्यागमय, सात्त्विक जीवन से भी। क्यों कि, जो भी परम-सत्य का, प्रत्यक्ष आभास मात्र ही, पा लेता है,दूसरों को शब्दों में समझा नहीं सकता। अनुभव शब्द से परे होता है; शब्दातीत होता है; जैसे गूँगे ने खाया हुआ गुड। गूँगा गुड चखता है, पर गुड की मिठास शब्दों में, बता नहीं सकता, स्वयं जो गूँगा है।

(छः)
पर प्रेरणा तीव्र होती है।
पर ऐसे आभास-मात्र की भी, प्रेरणा इतनी तीव्र होती है, कि, अनुभवी अपना अनुभव बाँटने का प्रयास अवश्य करता है। अन्यों को बताए बिना, उसे शांति नहीं मिलती।
आपने कभी कोई बालक को अपना हर्षातिरेकी अनुभव अपने अधूरे शब्दों में व्यक्त करते सुना होगा। उसका अनुभव संप्रेषण नहीं हो पाता। बडे समझ जाते हैं, कि, बालक हर्षित तो है, पर, हम कारण समझ नहीं पा रहे हैं।
शब्दों का अर्थ आप को अपने अनुभव से ही निकालना होता है। सुनानेवाला उसके अपने अनुभव से शब्द-प्रयोग करता है। और सुननेवाला स्वयं के अनुभव की सीमा में अर्थघटन करता है।

(सात)
पराकोटि की प्रेरणा:
पराकोटि की प्रेरणा होती है। प्रमाण होता है, उसका महाकाय प्रयास, जो इस पराकोटि की प्रेरणा की साक्षी देता है। बडे बडे ग्रंथ रचे जाते हैं; निडरता से अकेले, पागल की भाँति हिमालय के गिरि कुहरों को छानते फिरता है।
न नाम की चाहना होती है; न दाम की याचना करता है। अहंकार, दंभ और आडंबर रहित होता है वह। और धूप, वर्षा, हिमपात की चिन्ता किए बिना ही घूमता है।
ऐसा, आभास मात्र पाया हुआ व्यक्तित्व संसार भर संदेश देते घूमता है।

विवेक चुडामणी, ज्ञानेश्वरी, दासबोध, एकनाथी भागवत, तुलसी रामायण, सत्यार्थ प्रकाश, गुरुग्रंथ, जैसे अनगिनत ग्रन्थ ऐसे ही, अनथक परिश्रम और प्रेरणा का फल है। अभंग, ओवियाँ, भजन, दोहे रचे जाते हैं, पुस्तकें लिखी जाती है। कुंभ मेले में जाता है; तीर्थ यात्राएँ करता है।
पर यह हर कोई अहरे गहरे नत्थू खैरे की समझ में भी नहीं आता। मूरख इसे भी ढोंग मान बैठते हैं। क्या कहें, –*जाकी रही भावना जैसी।*

(आठ)
सांस्कृतिक हिण्डोला सार्वजनिक है।
इस सांस्कृतिक हिण्डोले की गति सार्वजनिक है। सभी को सम्मिलित होनेका अवसर है, पर विवशता किसी को नहीं।आए उसका भला, ना आए उसका भी यह परम्परा बुरा नहीं सोचती।
सभी यात्री अपनी अपनी आध्यात्मिक सीमा में हिण्डोले की गति का लाभ लेने या ना लेने के लिए मुक्त हैं। पर, यहाँ किसी को नर्क भेजने का प्रावधान नहीं है।
इस संस्कृति में भी अनेकविध रूचियों को संतुष्ट करने की क्षमता है; जो इसकी सनातनता का भी कारण प्रतीत होता है। वास्तव में किसी को भी, अपनी रुचि के लिए बाहर जाने की आवश्यकता नहीं पडती। क्यों कि यह संस्कृति हर कोई को आध्यात्मिक (ऊर्ध्वारोहण) उन्नति की हर प्रकार की सुविधा और अवसर प्रदान करती है। साकार, निराकार, सगुण, निर्गुण, मूर्तिपूजक, अद्वैत, द्वैत, और नास्तिक इत्यादि इत्यादि भी, पराए भी और अपने भी। आकाश तले जितनी भी विचारधाराएँ हैं, सभी स्वीकार्य है। शर्त मात्र इतनी सी है, कि, अपने आप को ही सत्य और अन्यों को असत्य घोषित ना करें। अन्यों को जहन्नुम या हेल में ना भेजे। ना ऐसा भेजनेका प्रावधान इस संस्कृति में है।
हम कहते हैं, कि, हर आत्मा में दिव्यता की चिनगारी है।

(नौ)
पुरातन, अद्यतन, नित्य नूतन वही सनातन:
जब यह हिण्डोला मंद होने लगता है; कोई अवतार, कोई प्रतिभावान महापुरुष जन्म लेता है, और स्मृति परम्परा और कर्म काण्ड में, आवश्यक सुधार कर, कुछ देश-परिस्थिति-काल के अनुरूप उचित बदलाव करता है; कुछ परम्पराओं का अनुकूलन कर उन्हें स्वीकार भी करता है; और प्रचण्ड धक्का मारकर इस चक्रीय हिण्डोले को फिर से गतिमान कर देता है।
और यह पुरातन(पुराना) फिरसे अद्यतन (आजका) होता है; नित्य नूतन (नित्य नया) होता है; इसीलिए सनातन भी कहलाता है।
ऐसा बदलाव लानेवाला व्यक्तित्व *अमानी (निरहंकारी), मानदो (मान देनेवाला), और मान्यो (सर्वमान्य)* भी होता है, तो लोक स्वामी आप ही माना जाता है। साथ साथ प्रभावी सामर्थ्य-सम्पन्न होता है।

**अमानी, मानदो, मान्यो, लोकस्वामी त्रिलोकधृक ॥ ९३॥ (विष्णु सहस्र नाम)**

इस हिण्डोले के गतिमान रखने में निरन्तरता और परिवर्तन दोनों अपना योगदान देते आए हैं। निरन्तरता परम्परा से जोडती है, वहां सुधार और परिवर्तन इसे देश काल परिस्थिति के अनुरूप विवेकयुक्त सुधार से सज्ज कर कालोचित (Contemporary) और कालातीत (Beyond time) बनाती है। ऐसे, संस्कृति का हिण्डोला सदैव गतिमान रखा जाता है। कभी रुकने नहीं दिया जाता। आज तक तो ऐसा ही हुआ है।
(दस)
कभी कभी

आवश्यकता पडने पर, कुछ संतों के व्यक्तित्व इस हिण्डोले से उतरकर इसे धक्का मारते हैं। गति बढा कर, ऊपर चढकर बैठ जाते हैं।
ऐसे इस संस्कृति में सातत्य (निरन्तरता) और परिवर्तन दोनो होता है। सातत्य उसे परम्परा से जोडकर रखता है। परिवर्तन इसे, देश काल और सम्मुख उपस्थित, परिस्थिति में टिका कर रखता है। परिवर्तन तात्कालिक परिस्थिति सापेक्ष ही होता है। परिस्थिति सापेक्ष सुधार भी, परिस्थिति बदलने पर संभवतः कालबाह्य (Outdated) हो जाते है। यहाँ Adopt and Adapt डार्विन के दोनों सिद्धान्त भी क्रियान्वित होते देखे जा सकते हैं। *Survival of the सांस्कृतिक fittest* भी सफल हो जाता है। सनातन संस्कृति टिक जाती है।
(ग्यारह)
उदाहरणार्थ:
जैसे कि, आदि शंकराचार्यजी ने नवीन परम्पराओं को अपनाया, सुधार किए, चार आश्रम और दशनामी संन्यासी परम्परा चलाई, सनातन-हिन्दु धर्म को नाश से बचाया हिण्डोले को गतिमान रखा।
पर, हमारी परम्परा के त्रिकालाबाधित सत्य (अलग आलेख का विषय है।) सिद्धान्त बदले नहीं।यही सिद्धान्त उसे सातत्य देते हैं; निरन्तरता देते हैं; सनातनता देते हैं।
मेरी दृष्टि में *एकं सत विप्राः बहुधा वदन्ति।* यह सत्य सनातन सत्य है; कभी बदलेगा नहीं। उसी प्रकार धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ये चारो पुरूषार्थ भी सनातन, सार्वभौम, सार्वदेशिक, और सार्वजनीन प्रेरणाएँ हैं। सभी को सुखी करने की क्षमता उनमें है।
**सत्य के शोध की लगन** और उसकी **अनेकविध प्रक्रियाएं** भी इसी सनातन प्रेरणा की अभिव्यक्तियाँ हैं। ऐसी और भी उत्कट प्रेरणाएँ हो सकती हैं, जो भारतीय संस्कृति को आज तक परिचालित करती आयी है।
(बारह)
भाषा हिण्डोले की धुरी है।
पहले ही, कहा गया है ही, कि, संस्कृति एक मण्डलाकार, चक्रीय और गतिमान हिण्डोला है, और भाषा इस हिण्डोले की धुरी है। भाषा की धुरी ही यदि दुर्बल हुयी, तो संस्कृति भी दुर्बल हो जाएगी।
**बिन भाषा मैं यहाँ बोल (लिख)भी नहीं सकता; न आप मुझे सुन (पढ) सकते हैं।
हम आपस में जुडते भी हैं, भाषा से; और संस्कृति से भी जुडते हैं भाषा से ही।
जहाँ हमारी अपनी भाषाएँ नहीं हैं, वहाँ हमारी विशेष संस्कृति भी नहीं है। जहाँ भाषा की धुरी दुर्बल हो चुकी है,वहाँ हमारी संस्कृति का प्रभाव भी दुर्बल ही दिखेगा। इतना सघन लगता है , मुझे भाषा और संस्कृति का संबंध; इसमें शायद ही, कोई अतिशयोक्ति हो।
(अगले आलेख में इस का विस्तार)
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