संस्कृति है चक्रीय हिण्डोला और भाषा उसकी धुरी:

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languageडॉ. मधुसूदन

प्रवेश:
(अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर विचार)
ॐ —संस्कृति, एक मण्डलाकार (मेरी गो राउण्ड) हिण्डोला, भाषा है उसकी धुरी।
ॐ—सांस्कृति हिण्डोले की प्रेरणा कौनसी है ?
ॐ—विविध परम्पराओंका योगदान:
ॐ—पुरातन, अद्यतन, नित्य नूतन वही सनातन:
ॐ—सत्य की उपलब्धि वैयक्तिक:
ॐ— पराकोटि की प्रेरणा होती है :

(एक)
संस्कृतिः एक मण्डलाकार हिण्डोला, और भाषा है उसकी धुरी।
कुछ मनोमन्थन उपरांत यही उपमा (प्रारूप) इस लेखक को सटीक लगती है। संस्कृति एक मण्डलाकार (अंग्रेज़ी में, मेरी गो राउण्ड) चक्रीय और गतिमान हिण्डोला है; और भाषा है, इस, गतिमान हिण्डोले की धुरी।

भारतीय संस्कृति गतिमान ही नहीं, प्रगतिमान भी है; असीम प्रेरणादायक है; और भाषा की केंद्रीय धुरी पर टिकी हुयी घूम रही है। इसमें भाषा की धुरी का दृढ योगदान है, हिण्डोले को स्थिर रखने में। साथ साथ इस सांस्कृतिक हिण्डोले की गतिमानता निरन्तर रखी जाती है।
समय समय पर देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप विवेक-जनित, कुछ परिवर्तन भी महापुरूषों द्वारा किए जाते हैं।
ऐसी निरन्तरता के साथ, कालोचित परिवर्तन भी इस चक्रीय हिण्डोले को सतत गतिमान रखते आया है।
ऐसे संस्कृति है एक मण्डलाकार हिण्डोला, और भाषा है उसकी धुरी।

(दो)
हिण्डोले की प्रेरणा कौनसी है ?
आकाश छूने की अटूट आकांक्षा जैसी, सत्य-शोधन की अनंत (अंतहीन) प्रेरणा इस सांस्कृतिक चक्रीय हिण्डोले को आज तक, गतिमान रखती आई है।ऐसे, इसकी सांस्कृतिक पहुँच अति उच्च है; अति भव्य है।
क्या हर कोई सत्य खोज लेता है?
हर-कोई इतनी ऊंचाई प्राप्त ना भी, कर पाए, पर यह सांस्कृतिक हिण्डोला सभी को बिना भेद भाव, अवसर प्रदान करता है; गन्तव्य की ओर, सही दिशा दिखाता ही रहता है।
कोई सन्देह नहीं; कि, आकाश छूने की अटूट आकांक्षा रखने वाली, इस सत्य-शोधन की अनंत (अंतहीन) प्रेरणा ने ही, इस सांस्कृतिक चक्रीय हिण्डोले को आज तक, सदैव गतिमान रखा है। यह प्रेरणा पारतंत्र्य के गत सहस्र वर्षों के क्रूर शासन तले, कुछ क्षीण हुयी पर उसका अंत नहीं हो पाया।

(तीन)
असहिष्णु क्रूर शासन में भी टिकाव:
कछुए पर प्रहार हो, तो, वह जैसे, अपना मुख कवच के अंदर खींच कर, रख लेता है; वैसे ही, जब बाहर असहिष्णु और क्रूर शासन चल रहा था; तो, घर घर में, छोटे देवघर बना कर मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा कर, भक्ति की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक ज्योति जलती रही। ऐसे भक्ति परम्परा ने हमारी सांस्कृतिक रक्षा की।
इसी ऐतिहासिक अंतराल में भक्ति की परम्परा प्रकृष्ट हुयी। मीरा, नरसी मेहता, कबीर, सूरदास, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, एकनाथ, रामदास इत्यादि संत हुए। और भक्ति की परम्परा ने संस्कृति टिकाई।यह सनातन धर्म की विशेषता है, कि, जैसा समय या संकट; उसके अनुरूप, मार्ग वह चुन लेता है।
कभी भक्ति, कभी ज्ञान, कभी कर्म, कभी ध्यान।
उसी प्रकार इष्ट देवताओं की भी कमी नहीं। न मूर्तियों की कमी है। अलग अलग मार्गों की उपलब्धि हमें हर परिस्थिति में टिकाए रखने में सक्षम होती है।
काल काल में अंतर होता है। देश देश में अंतर होता है। परिस्थिति परिस्थिति में अंतर होता है। विवेक उसी को कहते हैं, जो, देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप साधन चुनता है। यही तो है, विवेक की व्याख्या।
(चार)
विविध परम्पराओंका योगदान:
साथ साथ, बाहर भी कुम्भ मेले लगते ही रहे; यात्राएँ चलती ही रही।
ऐसी प्रेरणा अंतहीन होते हुए भी इस हिण्डोले पर आरूढ घटक सदस्य (हर कोई) अपनी अपनी आध्यात्मिक योग्यता के अनुपात में सत्य के प्रत्यक्ष साक्षात्कार की उपलब्धि भी करते ही रहे हैं। और, हिण्डोले को निरन्तर ऐसी गति प्रदान करने में हमारी सारी और विविध आध्यात्मिक परम्पराएँ योगदान देती रही हैं।

(पाँच)
सत्य की उपलब्धि वैयक्तिक:
अतः यह, सांस्कृतिक हिण्डोला हमें, आध्यात्मिक उन्नति का अवसर प्राप्त कराता आया है। हिण्डोला सार्वजनिक होते हुए भी सत्य की प्रत्यक्ष उपलब्धि वैयक्तिक ही होती है। जिन्हें उपलब्धि प्राप्त होती है, उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से पहचाना जा सकता है, उनके व्यवहार से; वैसे ही उनके विशुद्ध, त्यागमय, सात्त्विक जीवन से भी। क्यों कि, जो भी परम-सत्य का, प्रत्यक्ष आभास मात्र ही, पा लेता है,दूसरों को शब्दों में समझा नहीं सकता। अनुभव शब्द से परे होता है; शब्दातीत होता है; जैसे गूँगे ने खाया हुआ गुड। गूँगा गुड चखता है, पर गुड की मिठास शब्दों में, बता नहीं सकता, स्वयं जो गूँगा है।

(छः)
पर प्रेरणा तीव्र होती है।
पर ऐसे आभास-मात्र की भी, प्रेरणा इतनी तीव्र होती है, कि, अनुभवी अपना अनुभव बाँटने का प्रयास अवश्य करता है। अन्यों को बताए बिना, उसे शांति नहीं मिलती।
आपने कभी कोई बालक को अपना हर्षातिरेकी अनुभव अपने अधूरे शब्दों में व्यक्त करते सुना होगा। उसका अनुभव संप्रेषण नहीं हो पाता। बडे समझ जाते हैं, कि, बालक हर्षित तो है, पर, हम कारण समझ नहीं पा रहे हैं।
शब्दों का अर्थ आप को अपने अनुभव से ही निकालना होता है। सुनानेवाला उसके अपने अनुभव से शब्द-प्रयोग करता है। और सुननेवाला स्वयं के अनुभव की सीमा में अर्थघटन करता है।

(सात)
पराकोटि की प्रेरणा:
पराकोटि की प्रेरणा होती है। प्रमाण होता है, उसका महाकाय प्रयास, जो इस पराकोटि की प्रेरणा की साक्षी देता है। बडे बडे ग्रंथ रचे जाते हैं; निडरता से अकेले, पागल की भाँति हिमालय के गिरि कुहरों को छानते फिरता है।
न नाम की चाहना होती है; न दाम की याचना करता है। अहंकार, दंभ और आडंबर रहित होता है वह। और धूप, वर्षा, हिमपात की चिन्ता किए बिना ही घूमता है।
ऐसा, आभास मात्र पाया हुआ व्यक्तित्व संसार भर संदेश देते घूमता है।

विवेक चुडामणी, ज्ञानेश्वरी, दासबोध, एकनाथी भागवत, तुलसी रामायण, सत्यार्थ प्रकाश, गुरुग्रंथ, जैसे अनगिनत ग्रन्थ ऐसे ही, अनथक परिश्रम और प्रेरणा का फल है। अभंग, ओवियाँ, भजन, दोहे रचे जाते हैं, पुस्तकें लिखी जाती है। कुंभ मेले में जाता है; तीर्थ यात्राएँ करता है।
पर यह हर कोई अहरे गहरे नत्थू खैरे की समझ में भी नहीं आता। मूरख इसे भी ढोंग मान बैठते हैं। क्या कहें, –*जाकी रही भावना जैसी।*

(आठ)
सांस्कृतिक हिण्डोला सार्वजनिक है।
इस सांस्कृतिक हिण्डोले की गति सार्वजनिक है। सभी को सम्मिलित होनेका अवसर है, पर विवशता किसी को नहीं।आए उसका भला, ना आए उसका भी यह परम्परा बुरा नहीं सोचती।
सभी यात्री अपनी अपनी आध्यात्मिक सीमा में हिण्डोले की गति का लाभ लेने या ना लेने के लिए मुक्त हैं। पर, यहाँ किसी को नर्क भेजने का प्रावधान नहीं है।
इस संस्कृति में भी अनेकविध रूचियों को संतुष्ट करने की क्षमता है; जो इसकी सनातनता का भी कारण प्रतीत होता है। वास्तव में किसी को भी, अपनी रुचि के लिए बाहर जाने की आवश्यकता नहीं पडती। क्यों कि यह संस्कृति हर कोई को आध्यात्मिक (ऊर्ध्वारोहण) उन्नति की हर प्रकार की सुविधा और अवसर प्रदान करती है। साकार, निराकार, सगुण, निर्गुण, मूर्तिपूजक, अद्वैत, द्वैत, और नास्तिक इत्यादि इत्यादि भी, पराए भी और अपने भी। आकाश तले जितनी भी विचारधाराएँ हैं, सभी स्वीकार्य है। शर्त मात्र इतनी सी है, कि, अपने आप को ही सत्य और अन्यों को असत्य घोषित ना करें। अन्यों को जहन्नुम या हेल में ना भेजे। ना ऐसा भेजनेका प्रावधान इस संस्कृति में है।
हम कहते हैं, कि, हर आत्मा में दिव्यता की चिनगारी है।

(नौ)
पुरातन, अद्यतन, नित्य नूतन वही सनातन:
जब यह हिण्डोला मंद होने लगता है; कोई अवतार, कोई प्रतिभावान महापुरुष जन्म लेता है, और स्मृति परम्परा और कर्म काण्ड में, आवश्यक सुधार कर, कुछ देश-परिस्थिति-काल के अनुरूप उचित बदलाव करता है; कुछ परम्पराओं का अनुकूलन कर उन्हें स्वीकार भी करता है; और प्रचण्ड धक्का मारकर इस चक्रीय हिण्डोले को फिर से गतिमान कर देता है।
और यह पुरातन(पुराना) फिरसे अद्यतन (आजका) होता है; नित्य नूतन (नित्य नया) होता है; इसीलिए सनातन भी कहलाता है।
ऐसा बदलाव लानेवाला व्यक्तित्व *अमानी (निरहंकारी), मानदो (मान देनेवाला), और मान्यो (सर्वमान्य)* भी होता है, तो लोक स्वामी आप ही माना जाता है। साथ साथ प्रभावी सामर्थ्य-सम्पन्न होता है।

**अमानी, मानदो, मान्यो, लोकस्वामी त्रिलोकधृक ॥ ९३॥ (विष्णु सहस्र नाम)**

इस हिण्डोले के गतिमान रखने में निरन्तरता और परिवर्तन दोनों अपना योगदान देते आए हैं। निरन्तरता परम्परा से जोडती है, वहां सुधार और परिवर्तन इसे देश काल परिस्थिति के अनुरूप विवेकयुक्त सुधार से सज्ज कर कालोचित (Contemporary) और कालातीत (Beyond time) बनाती है। ऐसे, संस्कृति का हिण्डोला सदैव गतिमान रखा जाता है। कभी रुकने नहीं दिया जाता। आज तक तो ऐसा ही हुआ है।
(दस)
कभी कभी

आवश्यकता पडने पर, कुछ संतों के व्यक्तित्व इस हिण्डोले से उतरकर इसे धक्का मारते हैं। गति बढा कर, ऊपर चढकर बैठ जाते हैं।
ऐसे इस संस्कृति में सातत्य (निरन्तरता) और परिवर्तन दोनो होता है। सातत्य उसे परम्परा से जोडकर रखता है। परिवर्तन इसे, देश काल और सम्मुख उपस्थित, परिस्थिति में टिका कर रखता है। परिवर्तन तात्कालिक परिस्थिति सापेक्ष ही होता है। परिस्थिति सापेक्ष सुधार भी, परिस्थिति बदलने पर संभवतः कालबाह्य (Outdated) हो जाते है। यहाँ Adopt and Adapt डार्विन के दोनों सिद्धान्त भी क्रियान्वित होते देखे जा सकते हैं। *Survival of the सांस्कृतिक fittest* भी सफल हो जाता है। सनातन संस्कृति टिक जाती है।
(ग्यारह)
उदाहरणार्थ:
जैसे कि, आदि शंकराचार्यजी ने नवीन परम्पराओं को अपनाया, सुधार किए, चार आश्रम और दशनामी संन्यासी परम्परा चलाई, सनातन-हिन्दु धर्म को नाश से बचाया हिण्डोले को गतिमान रखा।
पर, हमारी परम्परा के त्रिकालाबाधित सत्य (अलग आलेख का विषय है।) सिद्धान्त बदले नहीं।यही सिद्धान्त उसे सातत्य देते हैं; निरन्तरता देते हैं; सनातनता देते हैं।
मेरी दृष्टि में *एकं सत विप्राः बहुधा वदन्ति।* यह सत्य सनातन सत्य है; कभी बदलेगा नहीं। उसी प्रकार धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ये चारो पुरूषार्थ भी सनातन, सार्वभौम, सार्वदेशिक, और सार्वजनीन प्रेरणाएँ हैं। सभी को सुखी करने की क्षमता उनमें है।
**सत्य के शोध की लगन** और उसकी **अनेकविध प्रक्रियाएं** भी इसी सनातन प्रेरणा की अभिव्यक्तियाँ हैं। ऐसी और भी उत्कट प्रेरणाएँ हो सकती हैं, जो भारतीय संस्कृति को आज तक परिचालित करती आयी है।
(बारह)
भाषा हिण्डोले की धुरी है।
पहले ही, कहा गया है ही, कि, संस्कृति एक मण्डलाकार, चक्रीय और गतिमान हिण्डोला है, और भाषा इस हिण्डोले की धुरी है। भाषा की धुरी ही यदि दुर्बल हुयी, तो संस्कृति भी दुर्बल हो जाएगी।
**बिन भाषा मैं यहाँ बोल (लिख)भी नहीं सकता; न आप मुझे सुन (पढ) सकते हैं।
हम आपस में जुडते भी हैं, भाषा से; और संस्कृति से भी जुडते हैं भाषा से ही।
जहाँ हमारी अपनी भाषाएँ नहीं हैं, वहाँ हमारी विशेष संस्कृति भी नहीं है। जहाँ भाषा की धुरी दुर्बल हो चुकी है,वहाँ हमारी संस्कृति का प्रभाव भी दुर्बल ही दिखेगा। इतना सघन लगता है , मुझे भाषा और संस्कृति का संबंध; इसमें शायद ही, कोई अतिशयोक्ति हो।
(अगले आलेख में इस का विस्तार)
प्रबुद्ध पाठक टिप्पणी अवश्य दें।

15 COMMENTS

  1. Makar Sankranti Shubhechha”

    Your write-up sent to Poojya Swami Jorimayand ji, is outstanding. No wonder you got awards….Yes! to keep our great sanskriti,in tact, Bhasha is one of the most important aspect. YOU HAVE described that aspect affluently well…….
    And comments of Poojya Swami ji Jotismayanandji are marvelously, very appropriate. you deserve it all of that…..

    In our Hindu World conference, in one of the sessions, each person from different State of India, emphasized this point for their State– due to the State language, ……how it helps to keep our sanskriti in tact…Sanskrit was on the top of the list..

    We Congratulate you …..

    We very much appreciate, your sharing all of that, with us..

    Yours affly,
    Savitaben & Prabhakar Bhai

  2. आदरणीय मधुसूदन भाई,
    सादर नमन ।
    आभारी हूँ कि आपने पुन: ये आलेख मुझे भेज कर इसे पढ़ने का अवसर दिया , जिसकी विशद ज्ञान-चर्चा से मैं वंचित रह गई थी ।
    सर्वप्रथम तो merry go round के लिये ये नूतन शब्द-रचना तो
    आपके उर्वर मस्तिष्क की प्रशंसनीय उद्भावना है । एक अत्यन्त नवीन
    उपमा , जो पूर्णरूपेण सटीक है और संस्कृति के स्वरूप को , उसकी सातत्यता , गतिशीलता एवं प्रगतिशीलता को स्पष्टता से चित्र रूप में प्रस्तुत कर देती है ।
    आलेख में सभी बिन्दुओं की तर्कसंगत रीति से , वैज्ञानिक धरातल पर
    व्यापकता से व्याख्या की गई है , जोआपकी व्यापक मनीषा एवं ज्ञान
    की द्योतक है । उदाहरणों के द्वारा सभी तथ्य सहजग्राह्य हो गए हैं , फिर
    भी मैंने आलेख को बड़े ध्यान से कई बार पढ़ा , जिससे मैं उसकी गहराई में पैठकर पूरी थाह ले सकूँ । वस्तुत: मैं उपकृत हुई हूँ ।
    संस्कृति से संस्कृत भाषा को और कालान्तर में उसी से जन्मी अन्य भाषाओं को भी धुरी बनाकर जो प्रस्तुति दी गई है , वह सत्य की कसौटी पर खरी उतरती है , श्लाघनीय है साथ ही सशक्त और प्रभावी भी है । आपके अन्य आलेखों की भाँति ये आलेख भी संग्रहणीय है ।
    शकुन्तला बहादुर
    —————————————————————–
    ब. शकुन्तला जी आपने बार बार पढकर गहराई से आलोचना की। समय देकर टिप्पणी भेजी।
    मैं धन्यता अनुभव कर रहा हूँ। लिखने का उद्देश्य केवल छपने के लिए नहीं होता; न प्रसिद्धि के लिए। अनेक टिप्पणियाँ मुझे संतुष्ट करती है।
    गोयल साहब की, स्वामी योगात्मानन्दजी की, डॉ अनिल भाटे जी की, सुरेन्द्रनाथ तिवारी जी की, डॉ, त्रिदिब रॉय साह्ब की, डॉ.बलराम सिंह, एवं श्रीमती रेखा सिंह की——-और मित्रों के काफी दूरभाष भी आए। हमारी संस्कृति ही अतुल्य है। क्या कहा जाए?
    कृतज्ञ –डॉ. मधुसूदन

  3. भाई श्री मधु जी आप कि व्याख्या पर कोई टिप्पणी देने की योग्यता मुझ में नहीं है | आप जब ऐसा कहते हैं तो मुझे संकोच होता है| संस्कृतिः की इस नयी उपमा के लिए आप का साधुवाद| संस्कृति को समझने के लिए आपने यह सटीक उपमा दी है कि यह् मण्डलाकार (अंग्रेज़ी में Merry Go Round) चक्रीय और गतिमान हिण्डोला है; और भाषा है, इस गतिमान हिण्डोले की धुरी। जब आप कहते हैं कि भारतीय संस्कृति गतिमान ही नहीं, प्रगतिमान भी है; असीम प्रेरणादायक है; और भाषा की केंद्रीय धुरी पर टिकी हुयी घूम रही है।‘ इसी को आगे विस्तार से (By Extension) देखें तो इस व्याख्या से ही जुडा है सहिष्णुता का प्रश्न | एक गतिमान संस्कृति में असहिष्णुता का प्रश्न ही नहीं उठता | हमारी संस्कृति में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की बात कही जाती है | इस में न तो कहीं कोई मतभेद है और न ही कोई दुराग्रह |

    • इस हिण्डोले के गतिमान रखने में निरन्तरता और परिवर्तन दोनों अपना योगदान देते आए हैं। निरन्तरता परम्परा से जोडती है, वहां सुधार और परिवर्तन इसे देश काल परिस्थिति के अनुरूप विवेकयुक्त सुधार से सज्ज कर कालोचित (Contemporary) और कालातीत (Beyond time) बनाती है। ऐसे, संस्कृति का हिण्डोला सदैव गतिमान रखा जाता है। कभी रुकने नहीं दिया जाता। —

  4. मुझे सचमुच बहुत प्रसन्नता हुयी थी जब मुझे ज्ञात हुआ था कि आप मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित हैं| आपकी सांस्कृतिक विद्वता और हिंदी-हिंदुत्व के प्रति अटूट आस्था का लाभ अधिवेशन में सम्मिलित लोगों को मिला, मैं इसे अपनी समिति का सौभाग्य समझता हूँ|
    आपका चक्रीय हिंडोला वाला लेख बड़े ध्यान से पढा है| आपकी ये पंक्तियाँ:
    “आवश्यकता पडने पर, कुछ संतों के व्यक्तित्व इस हिण्डोले से उतरकर इसे धक्का मारते हैं। गति बढा कर, ऊपर चढकर बैठ जाते हैं। ऐसे इस संस्कृति में सातत्य (निरन्तरता) और परिवर्तन दोनो होता है। सातत्य उसे परम्परा से जोडकर रखता है। परिवर्तन इसे, देश काल और सम्मुख उपस्थित, परिस्थिति में टिका कर रखता है। परिवर्तन तात्कालिक परिस्थिति सापेक्ष ही होता है। परिस्थिति सापेक्ष सुधार भी, परिस्थिति बदलने पर संभवतः कालबाह्य (Outdated) हो जाते है। यहाँ Adopt and Adapt डार्विन के दोनों सिद्धान्त भी क्रियान्वित होते देखे जा सकते हैं। *Survival of the सांस्कृतिक fittest* भी सफल हो जाता है। सनातन संस्कृति टिक जाती है।”
    आपने जिस वैज्ञानिक – तार्किक तरीके से इस गूढ़ परतु आवश्यक विषय पर लिखा है, वह आप जैसे वैज्ञानिक और सांस्क़ृत व्यक्ति के लिए ही संभव है| मेरी ईश्वर से प्रार्थना है: वे सदा ही आपकी इस मेधा का लाभ हम जैसों को दिलाते रहें|
    आपसे जब एक बार बात हुयी थी तो हम दोनों का विचार था कि आपके लेखों को पुस्तकाकार में छापा जाय ताकि उसका लाभ बहुतों को मिल सके|……..
    सादर
    सुरेन्द्र नाथ

  5. Loving best wishes of this Deepavali and New Year, dear Madhu & Pallawi. Yes, I know you and Arun Ji were close friends, both committed to Indian values and culture. I had read with immense interest your post on language being the central fulcrum of the merry-go-round of Indian Culture. All the 12 points you have mentioned deeply describe the importance of language in the development and preservation of culture. You presented in a succinct, comprehensive way, befitting the engineer in you, an array of perspectives on this nice idea, befitting the artist in you. Congratulations.

  6. Madhuji,
    Thanks for the nice article. Your example of Merry -Go-Round as the culture and language as the axis makes sense. Particularly for India’s culture of mainly emanating from Sanatan Dharm is very much linked with Sanskrit language as it contains the fountain head of all thoughts that governs the culture.
    Tridib Roy

    • धन्यवाद रॉय साहेब—हिन्दी समिति ने यह विषय उनके सम्मेलन के लिए चुना, तो, मुझे विशेष परिश्रम करना पडा। भाषा की धुरी पर विशेष भार था, सम्मेलन में। उसका आलेख भी बनाउंगा। समिति के सम्मेलन में विशेष प्रश्न पूछे गए। बातचीत में और पहलुओं पर भी चर्चा होती रही।
      आप की प्रतिक्रिया के लिए —
      धन्यवाद

  7. मधु जी, मैने आपको आपके आलेखपर कलही एक संदेशा भेजा था | और आज और एक संदेशा भेज रहा हूँ | लगभग २० बरस पहले मैने “संस्कृती” के लिये Theoretical, Objective Model बनाया था | उसमे २० चरण थे |
    बादमे मैने Objective Modeling (OM) इस विषयपर किताब लिखी थी | वह १२ वर्षपूर्व प्रकाशित हुई थी | उसकी एक प्रत मैने बलराम सिंह साहब को दे दी है, और एक प्रत महेशजी मेहता साहब को भी दे रखी है | कभी समय मिले तो देख लीजीयेगा |
    At that time, Objective Modeling के लिये OM ऐसे “सांकेतिक शब्द” का उपयोग मैने बहुत सोच-विचार करके बनाया था | और मेरे Professional Writing मे भी मै उसी शब्द का उपयोग करता आया हूँ |
    — अनिल

  8. मधु जी, आपका लेख बहुतही बढिया है | पढकर बडी ख़ुशी हुई | आपने सभी १ से ९ तक विवरण दिये, वे सभी उचित है | मगर बलराम सिंह जी ने जो संकेत दिया, वह भी थोडा थोडा मेरी समझमे आ गया, ऐसे मुझको लगता है | बलराम जी ने कहा की “भाषा तो एक बाहरी अभिव्यक्ती है |” यह भी सच है |
    इसलिये, क्या मै आपसे अनुरोध कर सकता हू? (My Humble Request) की आप “वाणी” इस विषयपर भी ऐसाही और एक लेख लिख दीजिये |
    वाणी के चार प्रकार होते है — १ परा, २ पश्यन्ति, ३ मध्यमा, और ४ वैखरी | भाषा तो चौथे प्रकार से, यानेकी वैखरी से जोडा जाता है | और वह सचमुच बाहरी अभिव्यक्ती है | मगर पहले तीन प्रकार “आंतरिक” होते है |
    इसलिये आप से बिनती है की इन (उपरीय) १, २, ३ प्रकारोपर भी आप ऐसाही “उकृष्ट” आलेख लिख दीजिये |

    • REPLY:

      प्रबुद्ध मित्र अनिलकुमार भाटे जी।हृदयतल से धन्यवाद।
      (१) कुछ लिखा जा सकता है-पर प्रवक्ता के बहुसंख्य पाठकों के रूचि और आकलन क्षेत्र की सीमामें लिखने का प्रयास कैसे किया जाए?
      (२) वास्तव में यह संस्कृति वाला आलेख भी पाठकों की समझ में (शायद) नहीं आ रहा है- ऐसा अनुमान ही करता हूँ। मुझे इ मैल से और टिप्पणियों से ऐसा लगता है।
      (३) पर इतना तो निश्चित मान सकते हैं, कि, भाषा बिन अधिकांश (वैखरी)विचार (communicate) संप्रेषित नहीं हो पाते।
      (४)आज हमारे पास वेदों से लेकर, तुलसी रामायण और आज के आध्यात्मिक गुरुओं तक परम्परा टिकी हुयी है; तो वह भाषा के कारण ही है। और उसका निम्न स्तर का ही संकेत है।
      (५) विशेष समस्या : आंतरिक अभिव्यक्ति का अनुभव ही तो हमारे परमहंसो को होता था।
      पर वे जब उस अनुभव को संप्रेषित (Communicate) नहीं कर पाते थे,तो प्रतीकों द्वारा उसका वर्णन करते थे। यहाँ तो पाठक आध्यात्मिक हिन्दी भी समझ नहीं पा रहा है।
      (६) और, पहले मुझे कोई परावाणी, पश्यन्ती, मध्यमा इत्यादि का नाम और शाब्दिक अर्थ से अधिक ज्ञान नहीं —-तो उसको शब्दों में वैसे ही व्यक्त करना, जैसा पढा या सुना है। कितना अर्थ रखेगा?
      (७)शब्दों में कहा जा सकता है। पर यह तो वैसा ही होगा, जैसे किसी विद्यार्थी ने अर्थ जाने बिना ही, निकट के छात्र के उत्तर को उद्धरित कर दिया।
      जब महान ज्ञानी भी उसे “गूँगेका गुड” कह चुके तो मैं ऐसे क्षेत्रमें कैसे न्याय कर पाऊंगा?

      (८) कुछ गहराई से भी विषय पर सोचना चाहता हूँ, लिखने के पहले।

      इतना अवश्य मानता हूँ, कि, लिखते लिखते मुझे ही कुछ लाभ हो सकता है।

      बहुत बहुत धन्यवाद। आप जैसे ज्ञानियों की टिप्पणी से मुझे भी सत्त्यापन की उपलब्धि हुयी।

      कृपांकित।
      मधु झवेरी

  9. मधु जी, बहुत ही उपयोगी लेख है। संस्कृति को अभिव्यक्ति के धुरी की संज्ञा देकर आपने समाज को उचित मार्ग दर्शन दिया है। भाषा तो एक बाहरी अभिव्यक्ति है। इसके आन्तरिक एवम् आचरणीय पहलुओं पर भी ध्यान आवश्यक है। वरना बौधिक विलासिता पनपने लगती है।

    • सिंह साहेब–नमस्कार
      बडे बडे दिग्गजों को पढकर ही दिशा मिलती जाती है।
      आप का संकेत कुछ समझ पा रहा हूँ-कुछ नहीं।
      कभी बातचीत से जान पाऊंगा।
      धन्यवाद

  10. अति शोध पूर्ण , विस्तृत , जानकारी , से परिपूर्ण यह लेख अति उत्तम है । लेख कितनी सरलता की सक्षमता से भाषा को संस्कृति की धुरी बताकर जीवन के बहुमुखी पहलुओ पर हमारा ध्यान आकर्षित करता है । लेखक का विराट ज्ञान लेखनी की दिव्यता से परिपूर्ण है । अति उत्तम और ज्ञानवर्धक शोधपूर्ण लेख के लिए लेखक को ह्रदय से धन्यबाद ।

    • सु. श्री. बहन रेखा जी-नमस्कार।
      बडे बडे दिग्गजों को पढकर दिशा मिलती है। धन्य हैं हम, पुरखों ने मण्डलाकार हिण्डोला जब से इतिहास शुरू होता है, उसके पहले से ही, गतिमान रखा है। आपके शब्दों के योग्य बनने का प्रयास करता ही रहूँगा।
      नियति की कृपा का ही ऋणी हूँ। मनुष्य ने अभिमान (अहंकार) नहीं करना चाहिए।
      आप की उदारता को नमन।
      मधु भाई

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