दर्द से ऊपर निकलना चाहिये;
छिपा जो आनन्द लखना चाहिये !
झाँकना सृष्टि में सूक्ष्म चाहिये;
चितेरे बन चित्त से तक जाइये !
सोचना क्यों हमको इतना चाहिये;
हो रहा जो उसको उनका जानिये !
समर्पण कर बस उसे चख जाइये;
प्रकाशों की झलक फिर पा जाइये !
मिला मन को इष्ट के उर दीजिये;
सुर सुने उनके नयन लख लीजिये !
ऋजु हुए दीक्षा कभी ले लीजिये;
साधना कर वाल बन सब सौंपिए !
जन्म से जो साथ है कब दूर जाता;
पूर्व से ही वह रहा हमरा प्रणेता !
हमीं उससे दूर जाते और डरते;
लौट कर हम अन्त में उसको समझते !
शून्य से आए हुए हैं सगुण होकर;
रहे निर्गुण बृहत् के व्यापक सरोवर !
अनन्तित हो ‘मधु’ जब सब छोड़ देते;
गुरु बन परमात्म गोदी बिठा लेते !
गोपाल बघेल ‘मधु’