यम नचिकेता संवाद से सुलझी मृत्यु गुत्थी आत्मा की स्थिति

—विनय कुमार विनायक
यम और नचिकेता वाजश्रवष् संवाद है तबकी,
जब तैत्तिरीय आरण्यक कथा कृष्ण यजुर्वेद के
कठोपनिषद में आकर हुई थी संपूर्ण विकसित!

यह कथा है तबकी जब ब्राह्मण यजमान होते
स्वयं हेतु यज्ञ करते थे, क्षत्रिय सा दान देते थे,
ब्राह्मण वैश्य सा धनिक वणिक हुआ करते थे!

तब ‘एक गरीब ब्राह्मण’ लोकोक्ति नहीं बनी थी,
सभी ब्रह्मा के पुत्र ब्राह्मण होते थे, क्षत्रिय भी,
ब्राह्मण ही वैश्य थे, ब्राह्मण ही सेवक होते थे,
ब्राह्मण ही सर्ववर्ण यज्ञकर्ता व दानकर्ता भी थे!

एक याज्ञिक ब्राह्मण वाजश्रवा बड़े धनी मानी,
विश्वजीत सर्वमेध यज्ञकर्ता यशस्वी अभिमानी,
वाज यानि अन्न दान से श्रवा यानि यशभागी!

सर्वस्व अन्न-धन गोधन दान दे चुके वाजश्रवा
अरुण से पुत्र आरुणि नचिकेता ने सवाल किया,
आपने जो गौएं दान की वे जल भी नहीं पीती,
तृण भी नहीं खाती, दुग्ध देने से हो गई रीती,
प्रजनन शक्तिविहीन हो चुकी,ये दान है कैसी?

आपने सर्वप्रिय चीजों की दान अबतक नहीं दी?
मैं आपका सर्वप्रिय पुत्र मुझे किसे देंगे पिताश्री?
पिताश्री! मुझे किसे देंगे ‘कस्मै मां दास्यसीति?’
वाजश्रवा ने गुस्से में कहा ‘मृत्यवे त्वा ददामीति’
जा तुझे मृत्यु को दे दिया, न भूतो न भविष्यति!

किसी पिता ने ऐसा दान ना दिया ना देगा कभी,
इस दान से सुलझ गई थी जन्म-मृत्यु की गुत्थी!

नचिकेता गया यमद्वार, रहा प्रतीक्षित तीन रात्रि,
नचिकेता गौतमगोत्री की अभी उम्र नहीं थी बीती,
वह तो बालक था, मात्र यम का ब्राह्मण अतिथि,
यम ने अग्नि सम अतिथि को जल से दी तृप्ति
और प्रतीक्षा हेतु तीन वर मांगने की दी अनुमति!

नचिकेता उद्दालक ने सूर्यपुत्र से कहा दें प्रथम वर,
मेरे पिता हों प्रसन्नचित्त मुझ पर मुझे पुनः पाकर,
दूसरा वरदान स्वर्गदात्री अग्नि विद्या ज्ञान प्रतीति,
तीसरा मृत्यु पश्चात आत्मा की स्थिति क्या होती?

यमदेव ने प्रथम वर हेतु नचिकेता से कहा तथास्तु,
सुनो दूसरे वर स्वर्ग साधन भूत अग्नि विद्या हेतु,
अग्नि बुद्धि में स्थित अग्नि से जीव जगत सृष्टि,
तुम्हारे नाम से अब त्रिनाचिकेत अग्नि कहलाएगी,
जो मनुज त्रिनाचिकेताग्नि को तीनबार चयन करेगा,
वो माता पिता आचार्य से सम्बद्ध हो तर जाएगा!

सुनो नचिकेता स्वर्ग लोक में भूख, प्यास, वार्धक्य,
भय, मृत्यु का अभाव होता, लो सृंका माला ले लो,
हे नचिकेता! आत्मा रहस्य को रहस्य बने रहने दो,
चाहे तो शतजीवी पुत्र,पौत्र,धन,वैभव स्वर्ग मांग लो!

किन्तु नचिकेता अडिग था अपने तीसरे वरदान पर,
नही चाहिए वित्त-प्रेय-स्वर्ग, मुझे चाहिए आखिरी वर,
मृत्यु पश्चात कोई कहता ‘ये है’ कोई कहता ‘नहीं है’
जीवन-मृत्यु बीच आत्मा की स्थिति बताएं वैश्वानर!

तो सुनो आत्मा अनित्य है,आत्मा में गति नहीं होती,
आत्मा अणु से अणु,महान से भी महा अजन्मा होती,
आत्मा जीव जंतु के हृदय रुप गुहा में अवस्थित होती,
आत्मा चित्त में स्थित स्थिर होकर भी दूर तक जाती!

हे नचिकेता! उस चैतन्य अजन्मा परब्रह्म के नगर में,
ग्यारह द्वार होते हैं दो नेत्र दो कान दो नासिका छिद्र,
एक मुख, नाभि, गुदा, एक जननेन्द्रिय और ब्रह्म रंध्र,
ये वासना में भटकाते जन्म मृत्यु देहान्तर बाहर-बाहर,
कर्मबंधन से मुक्त होकर ही प्रवेश पाते ब्रह्म के नगर!

आत्मा शयन करते हुए भी चहुंओर पहुंच जाया करती,
आत्मा शरीर में रहके अशरीरी,अनित्यों में नित्य होती,
निष्काम पुरुष अपनी इन्द्रियों के प्रसाद से आत्मा की
महिमा को देखते हैं और हो जाते हैं सर्वत्र शोक रहित!

यह आत्मा वेदाध्ययन द्वारा प्राप्त करने योग्य नहीं
और न अधिक धारणा शक्ति व श्रवण से प्राप्त होती,
बहु जन मरकर अपने ज्ञान कर्म से मानव योनि पाते,
अतिनिकृष्ट पातकी वृक्षादि स्थावर योनि में चले जाते!

सच तो यह है कि ये आत्मा जिसे स्वयं वरण करती,
उससे ही ये आत्मा प्राप्त की जाती,उसके प्रति आत्मा
स्वरुप को अभिव्यक्तकर देती,ये आत्मा चुनाव करती,
माता-पिता रुप में बाह्य स्वरुप निर्धारणार्थ दो प्राणी!

कोई भी प्राणी न तो प्राण से जीता और न अपान से,
अपितु मनुष्य उससे जीता, जिसके आश्रय से ये दोनों
शरीर में रहते और उसी आश्रय को जीव आत्मा कहते,
आत्मा उसे कहते जिसके नही होने से शरीर पात होते!

हे नचिकेता आत्मा को रथी जान,शरीर को रथ समझो,
बुद्धि को सारथी समझो और मन को लगाम मान लो,
इन्द्रियों को घोड़े मान सकते हो विषयों को उनके मार्ग,
शरीर,मन,इन्द्रिय युक्त आत्मा को विवेकी भोक्ता कहते!

हे नचिकेता! जो विवेकी मनुष्य विवेकयुक्त बुद्धि सारथी
युक्त मन को वश में रखनेवाले होते वो संसार मार्ग पार
कर के परम पद परमात्मा तत्व प्राप्ति के अधिकारी होते,
अन्यथा अविवेकी असंयत चित्त युक्त मनुष्य की इन्द्रियां,
उनके अधीन वैसे नहीं रहते जैसे सारथी अधीन दुष्ट घोड़े!

हे गौतम नचिकेता! जैसे शुद्ध जल, शुद्ध जल में मिल,
शुद्ध ही बना रहता वैसे ज्ञानवान मनुष्य की आत्मा भी,
पवित्र परमात्मा से मिलनकर पवित्र और निर्मल हो जाती,
हे वाजश्रवष् शुद्ध जल जिस पात्र में ढाल वैसा रुप लेता,
पौधे में रस प्राणियों में रक्त पर ज्ञानियों में आत्म चेता!

ॐ ही अक्षर ब्रह्म है, इस ॐअक्षर ब्रह्म को जानना ही,
आत्म ज्ञान है साधक अपनी आत्मा से करके साक्षात्कार
इसे जान पाता क्योंकि आत्मा ही ब्रह्म ज्ञान का आधार
जो इसकी इच्छा करता वही इसका हो जाता, ये आलंबन
श्रेष्ठ है, यही ॐ आलंबन है,इस पर आलंबन को जानकर
पुरुष ब्रह्मलोक में महिमा मंडित हो जाता, ॐ तत सत्!
—विनय कुमार विनायक

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