कर्ज संकट की आग में जल सकता है भारत

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 सतीश सिंह

स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने अमेरिका की लॉन्ग टर्म कर्ज की रेटिंग को ‘ट्रिपल ए’ से कम करके ‘एए प्लस’ कर दिया है। रेटिंग कम होने से ज्यादा खतरनाक अवस्था अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार की रफ्तार का बहुत ज्यादा सुस्त होना है। डर की वजह से सरकार एतहियाती रवैया अपनाने की नाकाम कोशिश कर रही है। यूरोप और मध्य पूर्व देशों के हालत भी अच्छे नहीं हैं। दिन प्रति दिन इन देशों में कर्ज का संकट और भी गहराता चला जा रहा है।

अब सबकुछ इन देशों की सरकार पर निर्भर करता है कि वे किस तरह से इस कर्ज संकट से मुकाबला करते हैं। हालांकि अमेरिका ने बेरोजगारी के फ्रंट पर अच्छा काम किया है। लेकिन फिलहाल उसका लाभ उसको मिलता नहीं दिख रहा है। घ्यातव्य है कि जुलाई में 75,000 के अनुमान के मुकाबले में अमेरिका ने 1,17,000 बेरोजगारों को नौकरी मुहैया करवाया है। जाहिर है कि रोजगार के बेहतर आंकड़े भी कर्ज संकट पर सकारात्मक प्रभाव नहीं डाल पा रहे हैं।

वैसे भारतीय निर्यातक भी पशोपेश  में हैं। उनको लग रहा है अगर कर्ज संकट के बादल ऐसे ही उमड़ते-घुमड़ते रहे तो निष्चित रुप से उसका नकारात्मक प्रभाव उनके निर्यात आर्डरों पर पड़ेगा।

दरअसल भारत के निर्यात का एक तिहाई हिस्सा अमेरिका, यूरोप और मध्य पूर्व के देशों में जाता है और तीसरी और चौथी तिमाही में भारतीय निर्यात पर इसका असर पड़ सकता है। क्योंकि इस मंदी से अमेरिकी डालर की हालत पतली होगी एवं भारतीय रुपया मजबूत होगा। अगर अमेरिका तथा यूरोपीय देश अपना राजस्व बढ़ाने के लिए टैक्स बढ़ाते हैं तब भी वहाँ के नागरिकों की आमदनी कम होगी और जिसका नकारत्मक प्रभाव वहाँ के आयातकों पर पड़ेगा।

ज्ञातव्य है कि 2011 की शुरुआत में यूनान की आर्थिक स्थिति खस्ताहाल थी। इस कारण वहाँ की सरकार ने कई देशों के निर्यातकों के आर्डरों को रद्द कर दिया था।

यूनान जैसी स्थिति का निर्माण इटली, कनाडा, अमेरिका इत्यादि देशों में भी हो सकता है। उल्लेखनीय है कि इन देशों में भारत विनिर्माण, पावर, फाउंड्री, टेक्सटाईल और इंजीनियरिंग जैसे उत्पादों का बड़े पैमाने पर निर्यात करता है। विगत साल दक्षिण अमेरिका और कनाडा में भारतीय इंजीनियरिंग उत्पादों के निर्यात में महत्वपूर्ण इजाफा हुआ था।

कर्ज संकट के कारण इन देशों में विविध उत्पादों की मांगों में भारी कमी आई है। पीतल और उससे बने उत्पाद भी उनमें से एक हैं। पीतल की मांग में भी जबर्दस्त गिरावट दर्ज की गई है। इसकी वजह से भारत के जामनगर के पीतल निर्माण इकाईयों में पीतल के निर्माण में तकरीबन 25-30 फीसदी की कमी आई है एवं जिसके कारण कीमत में पिछले वितीय वर्ष की तुलना में 20 फीसदी का उछाल आया है। गौरतलब है कि भारत में पीतल उद्योग लगभग 2000 करोड़ रुपयों का है और इस क्षेत्र में 5,000 विनिर्माण इकाईयां सक्रिय हैं।

बिगड़ते हालात से निपटने के लिए भारतीय निर्यातक सरकार से इंटेªस्ट सववेंशन की स्कीम को जारी रखने, विविध करों में छूट और अन्यान्य दूसरे फायदे निर्यातकों को देने की गुहार सरकार से लगा रहे हैं।

कॉपर का प्रयोग पावर सेक्टर, बिजली के कारोबार, एसी, कम्पयूटर, कार के पार्टस इत्यादि में उपयोग किया जाता है। इतना महत्वपूर्ण धातु होने के बाद भी इसके मांग में कमी देखी जा रही है और कीमत आसमान पर पहुँच रहा है। कॉपर की तरह एल्युमीनियम की जरुरत भी उद्योगों के लिए अतुलनीय है। फिर भी कर्ज संकट की वजह से अंतराष्ट्रीय स्तर पर इसकी कीमत में तेजी बना हुआ है तथा इसके डिमांड में लगातार कमी आ रही है।

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (पीएमईएसी) के अघ्यक्ष श्री सी रंगराजन का मानना है कि अमेरिकी कर्ज संकट का फिलहाल भारत पर बहुत ज्यादा नेगेटिव प्रभाव नहीं पड़ेगा।

पर यदि अमेरिका की अर्थव्यवस्था मंदी के भंवर में फंसता है तो उसका नकारात्मक असर पूरी दुनिया पर पड़ सकता है।

स्पष्ट है कि अमेरिका और यूरोप में विकास की गति निरंतर कम हो रही है। विश्लेषकों का मानना है कि अमेरिका में पहली छमाही में 1.5 फीसदी का विकास दर रह सकता है। जोकि पिछले साल के मुकाबले में काफी कम है। सम्मिलित रुप से यूरोप की विकास दर भी उत्साहजनक नहीं है। स्पेन, पोलैंड और आयरलैंड जैसे देश आज लगभग दिवालिया होने के कगार पर पहुँच चुके हैं।

अगर ऐसी स्थिति अमेरिका तथा यूरोप में बरकरार रहती है तो निष्चित रुप से विकासशील देशों का निर्यात प्रभावित होगा। इसका प्रभाव निवेष पर भी पड़ेगा। पूंजी का बहाव कम जोखिम वाले क्षेत्रों की तरफ रहने की संभावना बढ़ जाएगी। खास तौर पर उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं पर इसका असर साफ तौर देखा जा सकता है।

बावजूद इसके भारत नीतिगत फैसलों के माध्यम से निवेश के माहौल को मजबूत कर सकता है। यहाँ की विकास की दर भी बेहतर है और इसमें बेहतरी का कारण घरेलू बाजार की मजबूती है। यहाँ के सरकारी बैंकों के हालत विदेशी बैंकों की तरह खराब नहीं हैं। फर्जीवाड़े के मामले भी भारतीय बैंकों में कम देखने को मिलते हैं।

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