अनिल अनूप

मीडिया को कोई एक पक्ष कभी मजबूत नहीं कर सकता, लेकिन परस्पर विरोधी विचारधाराओं के बीच पत्रकारिता का खनन अब लाभ-हानि का सबब है। पत्रकार के पत्रकार के प्रति सम्मान की शून्यता में उगते अर्णब गोस्वामी को शिखर मानने वालों की कमी नहीं और न ही विनोद दुआ के खिलाफ हिमाचल में देशद्रोह का मुकदमा विचलित करता है, लेकिन जब एक पत्रकार के पीछे सरकारें खड़ी हो जाएं तो पता चलता है कि मीडिया का वजूद किन घोंसलों में आबाद है। इससे पहले भी मीडिया के बीच विचारधारा की प्रतिबद्धता रही है, लेकिन पत्रकारिता कभी जमघट में तबदील नहीं हुई और न ही मजमा लगा कर कोई पत्रकार मदारी बनने की कोशिश करता दिखा। पहले की प्रतिबद्धता अब पक्ष व विपक्ष में बदल गई, लिहाजा अर्णब की गिरफ्तारी का असर दूर तक एक पक्ष तैयार करता है तो सामने विपक्ष भी तैयारी करता है। यानी केंद्रीय मुद्दों के घूंसे अब पत्रकारिता के आचरण को भी स्पष्टतः बांटते हैं।
हैरानी तो यह कि अब सरकारी पदों पर बैठे लोग सीधे विचारधारा के टकराव का प्रदर्शन कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर ही अर्णब गोस्वामी के पक्ष में कुछ जिम्मेदार सरकारी ओहदेदार शिरकत कर रहे हैं, तो इसमें सवाल निर्लज्जता का नहीं सरकार में होने की बहादुरी सरीखा है। कुछ इसी तरह के नेतृत्व में पलती स्वायत्त संस्थाएं या संस्कृति-कला के विषय जब एक पक्ष बनकर खड़े हो जाएं, तो समाज में पत्रकारिता की जरूरत भी तो एक पक्ष को जिंदा रखने की विवशता है। दिल्ली में बैठे संपादकों की गिल्ड भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में फूंक मारने का साहस करती है और पत्रकार की गिरफ्तारी के प्रति संवेदना उछल-उछल कर बातूनी हो जाती है। यह विषय इस लायक है कि एक संपादक और मीडिया चैनल के मालिक की गरिमा में, पुलिसिया व्यवहार के कान खींच सके, लेकिन इससे पूर्व पत्रकारिता के व्यवहार में आई गिरावट के खिलाफ कौन खड़ा होगा। हम छाती ठोंक पत्रकार तभी हो सकेंगे, यदि रीढ़ पर सत्ता की चर्बी चढ़ी हो या विज्ञापन की मालिश से बाहुबली मीडिया का हिस्सा बनें। अर्णब गोस्वामी को पत्रकार मान लें, तो भी बहस तो उस आचरण की है जो रोजाना अपने पक्ष की वकालत में दूसरे के प्रति दंडात्मक कैसे हो सकता।
मीडिया अगर फैसला सुनाने लगे, तो तथ्यपरक होने की कसौटी का क्या होगा। अर्णब के प्रशंसक-समर्थक और दर्शक हो सकते हैं। उनका लहजा राजनीति के एक बड़े समूह के नजदीक हो सकता है, लेकिन क्या मीडिया में प्रवेश लेती नई युवा ऊर्जा का दिशा-निर्देशन इससे होगा। प्रतिबद्ध मीडिया और अर्णब मीडिया में भी अंतर है। किसी भी विचारधारा से ओत-प्रोत मीडिया के अपने संदर्भ,अपने शब्द, अपने सरोकार और जनाधार हो सकता है, लेकिन अपनी सीमा के बाहर जाकर यह आक्रामक नहीं दिखा। दूसरी ओर मीडिया की संपूर्णता केवल विचारों की जंग नहीं, सत्यता की बुलंद आवाज है। मीडिया का विपक्षी या सत्ता विरोधी रुख अगर विलक्षण न माना जाए, तो भी स्वाभाविक रहेगा और इसीलिए स्व. रूसी करंजिया से रामनाथ गोयंका तक फैली पत्रकारिता आदर्श मानी जाती रही है। ऐसे में अर्णब की गिरफ्तारी को गोयंका की विरासत में पलती रही पत्रकारिता से जोड़ना, तथ्यपूर्ण विश्लेषण नहीं होगा। जाहिर है ऐसी गिरफ्तारियों का विरोध होना चाहिए। लेकिन इसके साथ छोटे-बड़े सभी पत्रकारों का जिक्र चाहिए। गौरी लंकेश से उत्तर प्रदेश के दर्जन भर पत्रकारों के खिलाफ सत्ता के उत्पीड़न का संज्ञान चाहिए। बेशक उत्तर प्रदेश के मामलों में भारतीय प्रेस परिषद ने मुंह खोला था, लेकिन इस संस्था की आवाज सुनता ही कौन है। मीडिया को खुद अपने पर बोलना न आया, तो तमाशे होंगे और हर पत्रकार किसी कतार या भीड़ से कुछ प्रशंसक चुनकर अपनी डुगडुगी पीटता रहेगा। आज का मीडिया न झोलाछाप है और न ही सत्य तक पहुंचने का कदमताल।
कोविड काल ने बता दिया कि मीडिया सामर्थ्य और समर्थन केवल कागज के फूलों को अंगीकार करने जैसा है। तकनीकी तौर पर अब हर जिरह आम नागरिक को सोशल मीडिया में संपादक बनने का अवसर देती है। टीवी पत्रकारिता के सामने मोबाइल पर रिकार्ड हर वीडियो अपना सबूत देती है, फिर भी खुशफहमी यह है कि कोई एक चेहरा सर्वश्रेष्ठ बना रह सकता है। यह वहम या मुगालता है कि आज के युग का मीडिया अपने दुर्ग बनाकर सलामत रहेगा, जबकि जनता के पक्ष में आज भी मुद्दे जन्म लेते हैं और आज भी सत्य की राह पर खबर इंतजार करती है। पत्रकारिता के हुजूम में आगे बढ़ने के लिए टीआरपी या पाठक संख्या के फार्मूले ईजाद होते रहेंगे, लेकिन जहां कोई तेज हवाओं के सामने और घुप अंधेरों के बीच शमां बनकर जलते हुए प्रोफेशन की रोशनी बनेगा, दुनिया याद करेगी। अर्णब अपने पक्ष में बहुत सारा विरोध बटोर कर मीडिया मुगल तो कहला सकता है, लेकिन पत्रकारिता का ऐसा प्रतिनिधित्व बहुमत का पक्ष हासिल करके भी कहीं हार रहा है। विरोध अगर मीडिया की भटकी हुई राहों पर हो, तो राष्ट्र के लिए यह एक कड़ा पैगाम साबित होगा।