आर्थिकी

दीनदयाल उपाध्याय चिन्तन की प्रासंगिकता

-डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

दीनदयाल उपाध्याय जी राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे। 1950 में जब भारतीय जनसंघ का गठन हुआ तो वे जनसंघ का कार्य देखने लगे। डॉ श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था यदि मुझे दीनदयाल उपाध्याय जैसे चार कार्यकर्ता मिल जाये तो मैं देश की राजनीति बदल सकता हूं। उपाध्याय जी जोड़ने की कला में माहिर थे। शायद यही कारण था कि जब जनसंघ की स्थापना के 2 वर्ष के भीतर ही डॉ0 मुखर्जी की श्रीनगर में संदिग्ध हालात में मृत्यु हो गई तो बहुत लोगों को लगता था कि अब जनसंघ चल नहीं पायेगा, तो दीनदयाल जी ने इस आशंका को र्निमूल सिद्ध किया और जनसंघ प्रगति पथ पर बढ़ने लगा। दीनदयाल उपाध्याय राम मनोहर लोहिया के साथ मिलकर देश की राष्‍ट्रवादी शक्तियों का एक मंच तैयार करना चाहते थे। परन्तु इसे देश का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि जनसंघ के केरल अधिवशन के बाद उनकी भी मुगलसराय के पास हत्या कर दी गई। इसी दुर्योग ही कहना चाहिए कि न तो डा. श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी की हत्या पर से पर्दा उठ पाया और न ही दीनदयाल उपाध्याय की हत्या से। लेकिन दीनदयाल जी ने राष्‍ट्रवादी शक्तियों के लिए जो आधार भूमि तैयार कर दी थी उसी का सुफल था कि बीसवीं शताब्दी के अन्त तक राष्‍ट्रवादी शक्तियां देश की राजनीति की धुरी में स्थापित हो गई।

दीनदयाल जी की प्रसिद्धि का एक और कारण भी रहा। जब उन्होंने एकात्म मानववाद की अवधारणा दी तो उस पर खूब चर्चा हुई। विश्‍वविद्यालयों में, बौद्विक संस्थानों में यह गर्मागर्म बहस का विषय बना। सहमत होना या न होना अलग बात थी लेकिन एकात्म मानववाद की अवेहलना करना बौद्विक जगत के लिए मुश्किल था। दीनदयाल उपाध्याय ने मानव व्यवहार, व्यक्ति और समाज, मानव विकास के मौलिक प्रष्नों पर चिन्तन करके एकात्म मानववाद की अवधारणा स्थापित की थी। दरअसल मानव को लेकर विश्‍व भर के चिन्तकों में आदि काल से चिन्तन होता रहा है। सभी चिन्तन मानव के विकास और उसके सुख के लिए समर्पित होने का दावा करते हैं। लेकिन इस दिशा में चिन्तन करने से पहले यह भी जरूरी है कि मानव के मन को समझ लिया जाये। यदि मानव के मन की ठीक समझ आ जाये तभी तो उसके सुख व विकास के लिए रास्ते तय किये जा सकते हैं। यह काम पश्चिम में भी होता राह है और भारत में भी। पश्चिम ने मानव मन को समझने का दावा किया। ऐसे चिन्तकों ने यह निष्‍कर्ष निकाला कि मनुश्य समाजिक प्राणी है। वह अकेला नहीं रह सकता उसका सुख दुख समाज के सुख दुःख से जुड़ा हुआ है। दूसरे चिन्तकों ने इसे अमान्य किया। उन्होंने निष्‍कर्ष निकाला कि मनुष्‍य वास्तव में आर्थिक प्राणी है। उसकी सामाजिकता भी तब तक ही है जब तक इससे उसके आर्थिक हितों की पूर्ति होती है। जीवन यापन के लिए जो बुनियादी जरूरते हैं, उन्हीं की प्राप्ति मनुष्‍य का लक्ष्य है और इसी से उसे सुख मिलता है। पश्चिम के कुछ चिन्तकों ने इसे भी नकार दिया। उनके अनुसार मानव व्यवहार वस्तुतः काम से संचालित होता है बाकी सब चीजे गौण हैं। पश्चिमी चिन्तकों के ये निष्‍कर्ष ठीक हो सकते हैं परन्तु सब मिलकर ठीक हैं। एकांगी ठीक नहीं है। परन्तु पष्चिमी चिन्तक इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए उन्होंने मानव शास्त्र के जितने सिद्धांत गढ़े वे सभी किसी एक कारक को प्रमुख मान कर ही गढ़े। पूंजीवाद और साम्यवाद की अवधारणाएं वस्तुतः भौतिक कारकों को आधार बनाकर गढ़ी गई। इन अवधारणाओं और सिद्वांतों से जिस प्रकार का नुकसान हो सकता था, पश्चिम उसको भोग रहा है।

दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की अवधारणा स्थापित की। यह अवधारणा भारत के युगयुगीन सांस्कृतिक चिन्तन पर आधारित है। उपाध्याय जी मानते थे कि समाजवाद, पूंजीवाद या फिर साम्यवाद, एक शब्द में कहना हो तो अर्थवाद या भौतिकवाद मूलतः भटकाव ज्याद पैदा करता है और समाधान कम देता है। पूंजीवाद या फिर साम्यवाद के निष्चित खांचों में फिट होने के लिए मानव नहीं है। मूल अवधारणा मानववाद की होनी चाहिए और बाकी सभी वाद या सिद्धांत मानव को केन्द्र में रखकर ही रचे जाने चाहिए। लेकिन पश्चिम में इसके विपरीत हो रहा है। अर्थवाद के प्रणेताओं ने सिद्वांत गढ़ लिये है और अब मानव को विवश कर रहे हैं कि इन काल्पनिक सिद्वांतों के आधार पर स्वयं को ढालें। मानव वाद या मानव के विकास को खंड खंड करके नहीं देखा जा सकता उसके लिए एकात्म दृष्टि चाहिए। मानव को सभी प्रकार की वस्तुओं की दरकार है। उसे समाज भी चाहिए, बुनियादी जरूरतों की पूर्ति भी चाहिए, काम के क्षेत्र में संगीत साहित्य कला भी चाहिए। परन्तु ध्यान रखना चाहिए कि उसे ये सब एक साथ ही चाहिए। शायद इसलिए दीनदयाल उपाध्याय जी ने मानव के विकास अथवा मानववाद के रास्ते को एकात्म कहा है। एकात्म मानववाद मानव के सम्पूर्ण विकास की बात करता है। दीनदयाल उपाध्याय इसे पुरूशार्थ चतुष्‍ट्य की पुरातन भारतीय अवधारणा से समझाते थे। भारतीय चिन्तकों ने चार पुरूशार्थो की चर्चा की है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। परन्तु ये चारों पुरूषार्थ अलग अलग नहीं है। परस्पर गुम्फित हैं। अर्थ और काम की साधना तो मनुश्य करेगा ही लेकिन इन दोनों क्षेत्रों में कर्म करने के लिए धर्म की सीमा रेखा निश्चित है। एक बात और ध्यान में रखनी होगी कि सभी प्रकार के पुरूशार्थों की साधना करते हुए मानव जीवन का कोई न कोई लक्ष्य भी होना चाहिए। भारतीय चिन्तकों ने इसी लक्ष्य को मोक्ष कहा है।

एकात्म की अवधारणा को समझाने के लिए दीनदयाल जी संबधों का एक और उदाहरण दिया करते थे। एक ही व्यक्ति एक साथ कई सम्बन्धों को निभाता है। वह एक साथ ही पिता है, भाई है, बेटा है। ये सभी संबध एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। यही मानव प्रकृति की एकात्मता है। मनुष्‍य शिशु होता है फिर जवान होता है और अंत में बूढ़ा होता है लेकिन मनुष्‍य की ये तीनों अवस्थाएं एक सम्पूर्ण इकाई बनती हैं। पश्चिम ने शायद मानव की इस सम्पूर्णता को अन देखा किया और उसे खंडित नजरिये से देख कर विकास के मॉडल तैयार किये। दीनदयाल उपाध्याय ने इन्हीं मॉडलों के विकल्प में मानव विकास का भारतीय मॉडल दिया जिसे बौद्धिक समाज में एकात्म मानववाद के नाम से जाना जा रहा है। कुछ साल पहले की बात है। मैं तिब्बत पर हो रहे एक अन्‍तरराष्‍ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने के लिए चैक गणराज्य की राजधानी प्राग गया हुआ था। सम्मेलन का उद्घाटन चैक के पूर्व राष्‍ट्रपति जॉन हावेल ने किया था। उन्होंने अपने उद्बोधन में कहा कि हमने तो पूंजीवादी और साम्यवादी दोनों व्यवस्थाओं को देख लिया है। दोनों व्यवस्थाए हीं मूलतः अर्थवादी हैं और एकांगी हैं। जॉन हावेल शायद अप्रत्यक्ष रूप से दीनदयाल उपाध्याय के एकात्ममानववाद का ही समर्थन कर रहे थे जो कम से कम एकांगी नहीं एकात्म है।

एकात्म मानववाद की अवधारणा में दीनदयाल उपाध्याय ने आज के एकांगी विकास मॉडलों की दुःखती रग पर हाथ रखा है। मनुष्‍य जो भी क्रियाएं करता है और जिस प्रकार के भी विकास मॉडलों को लागू करता है उन सभी का अन्तिम उद्देश्‍य तो सुख या संतुष्टि प्राप्त करना ही है। अर्थवादी यह समझते हैं कि ज्यादा भोग से ही ही सुख मिलता है परन्तु दीनदयाल जी ने उदाहरण देकर कहा कि सुख मन की स्थिति पर निर्भर करता है। इसलिए विकास की समग्र अवधारणा का समर्थन किया जिसमें मन बुद्वि और शरीर तीनों के विकास का समन्वय हो।

आज जब भोगवादी विकास के सिद्वांतों से दुनियां भर में सुख क्षीण हो रहा है, संसाधनों के अनुचित प्रयोग से मानव के अस्तित्‍व पर ही संकट आ गया है तब दीनदयाल उपाध्याय की एकात्म मानववाद की प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है।