हर वृक्ष लता से पूछा मैंने,
तुम किस कारण यहां खड़े ?
किस कारण तुम भोग रहे हो,
फल कर्मों के बहुत कड़े ?
वृक्ष लता एक सुर से बोले –
नियम भंग के दोषी हैं हम।
कठोर मिली है कारा हमको,
दूर-दूर तक छाया है तम।।
पाप रहा होगा छोटा सा,
फल भयंकर विषधर सा।
डंसता है दिन रात विषैला,
कठोर न्याय है ईश्वर का।।
किए का फल मिलना निश्चय,
इसे मनुज नहीं समझा करता।
व्यतीत करे पापों में जीवन,
तनिक नहीं- लज्जा करता।।
एक-एक क्षण कर बीत रहा है,
तामस की भेंट चढ़ा जाता।
जीवन बड़ा अनमोल रे मनवा !
अनिष्ट की ओर बढ़ा जाता।।
काम भयंकर विषधर है,
नहीं बचा दंश से कोई भी।
काम कुचाली भूचाली के,
ना बचा वेग से कोई भी।।
बहुत भयंकर डकैत देह में,
बैठा हुआ है छुप करके।
जागृत करता पापवासना,
विवेक का दीप बुझा करके।।
जितने भर भी पाप जगत में,
होता सबका मुखिया काम।
देह जलाता – गेह जलाता,
अपयश – भागी होता नाम।।
जन के सतर्क बने रहने से,
हमला कर नहीं पाता काम।
मन के जागरूक रहने से,
विध्वंस नहीं कर पाता काम।।
अनुरागी धर्म के बने रहो,
होगा निश्चय ही कल्याण।
संयम के पालन करने से,
होगा भवसागर से त्राण।।
डॉ राकेश कुमार आर्य