दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम अप्रत्याशित तो रहे ही, साथ ही अनेक प्रश्न भी उत्पन्न हो गये। इस चुनाव से तमाम तरह की परंपराएं टूटीं। चुनावी पंडितों, भाजपा एवं कांग्रेस को भी बिल्कुल अहसास नहीं था कि उनका यह हाल होगा? हालांकि, कांग्रेस पार्टी को ऐसी भी उम्मीद नहीं थी कि वह सत्ता में पहुंचने के करीब है किंतु ऐसी उम्मीद नहीं थी कि उसे एक भी सीट नसीब नहीं होगी। रही बात आम आदमी पार्टी की तो उसने भी सपने में नहीं सोचा था कि उसे इतनी जबर्दस्त सफलता मिलेगी।
सर्वे एजेंसियों की बात की जाए तो उनके भी दावे धरे के धरे रह गये। सर्वे एजेंसियों ने आम आदमी पार्टी की जीत की बात तो कही थी किंतु इस प्रकार के चुनाव परिणामों की उम्मीद किसी भी सर्वे एजेंसी ने कही। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि दिल्लीवासियों ने सभी को कुछ न कुछ सोचने-समझने एवं सबक लेने का अवसर दिया है।
दिल्ली चुनावों का यदि सही मायनों में विश्लेषण किया जाये तो कहा जा सकता है कि जो भी परिणाम आये हैं उसमें न तो आम आदमी पार्टी की सफलता है न ही भाजपा की विफलता। चूंकि, भारतीय जनता पार्टी को लग रहा था कि उसका 16 वर्षों तक सत्ता से दूर रहने का वनवास इस बार समाप्त हो सकता है किंतु उसकी उम्मीदों पर पानी फिर गया।
भाजपा में बार-बार यह प्रश्न उभरकर आ रहा है कि क्या दिल्ली की जनता भाजपा को सत्ता सौंपने को तैयार थी किंतु भाजपा परिस्थितियों को अपने पक्ष में करने में नाकाम साबित हुई या फिर दिल्लीवासी ‘आप’ को सत्ता सौंपने का मन बना चुके थे। प्रश्न यह भी उठ रहा है कि क्या भारतीय जनता पार्टी दिल्लीवासियों का मूड नहीं भांप पाई? क्या भाजपा कार्यकर्ताओं का सरोकार आम जनता से कम हो गया है? कुछ तो कारण जरूर हैं जिससे भाजपा को इतनी करारी शिकस्त मिली है।
वैसे भी कहा जाता है कि किसी भी जीत के तमाम कारण होते हैं किंतु हार एकदम अनाथ होती है परंतु एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि सिर्फ अपने मुताबिक ही जनता का मन परिवर्तित कर सब कुछ हासिल नहीं किया जा सकता है बल्कि जन भावनाओं के मुताबिक अपने को भी ढालना चाहिए। सिर्फ मार्केटिंग, पैसे एवं हवा की बदौलत कुछ तो किया जा सकता है किंतु बहुत कुछ नहीं किया जा सकता है। हो सकता है कि भाजपा एवं उसके कार्यकर्ताओं को लगा होगा कि प्रधानमंत्राी नरेद्र मोदी के बूते ही चुनाव में फतह हासिल हो जायेगी और वे काम कम करें या ज्यादा इससे कोई विशेष फर्क पड़ने वाला नहीं है किंतु वे भूल गये कि यह चुनाव लोकसभा का नहीं बल्कि विधानसभा का है। कार्यकर्ताओं की इस प्रकार की सोच को दिल्लीवासियों ने हो सकता है कि अहंकार के रूप में लिया हो।
चूंकि, दिल्ली नगर निगम में भाजपा की सरकार है और केन्द्र में भी सरकार है। ऐसे में यदि दिल्ली में भाजपा की सरकार बनती तो विकास कार्यों को और गति मिलती, किंतु यदि ऐसा नहीं हुआ तो संभवतः दिल्लीवासियों के मन में यह भी रहा होगा कि यदि दिल्ली में भी भाजपा की सरकार बन गई तो कहीं वह तानाशाह न हो जाये। निश्चित रूप से जनता को लगा होगा कि यदि दिल्ली की सत्ता भी भाजपा को सौंप दी तो भाजपा कार्यकर्ता अहंकारी हो सकते हैं या फिर अपने आगे वे किसी की न सुनेंगे और न ही समझेंगे।
हालांकि, दिल्लीवासियों के मन में क्या था, पूर्ण रूप से इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। यह तो व्यक्तिगत रूप से मेरे मन के भाव हैं कि कहीं लोगों के मन में इस प्रकार की बातें चल तो नहीं रही थीं। वास्तव में यदि भाजपा नेताओं एवं कार्यकर्ताओं में अहंकार उत्पन्न हो रहा है तो उसे दूर करने की आवश्यकता है। हो सकता है कि नेताओं एवं कार्यकर्ताओं को ऐसा न लग रहा हो किंतु जनता को ऐसा अहसास हो रहा हो। यह सब बातें विचार के दायरे में आती हैं।
भारतीय जनता पार्टी यदि पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले अपना वोट बैंक बचाने में कामयाब रही है तो इसका मतलब यही हुआ कि जनता भाजपा से नाराज तो नहीं थी किंतु इस बार उसे मौका भी नहीं देना चाहती थी। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जनता अपनी मर्जी की मालिक है। उसे जो अच्छा लगता है वही करती है। उसे इस बात से कोई खास मतलब नहीं है कि कोई दल पैसे के दम पर अपनी कितनी मार्केटिंग कर रहा है एवं कितनी हवा बना रहा है? यदि सब कुछ ऐसे हो जाता तो ‘आप’ दिल्ली की सत्ता तक पहुंच पाने में कामयाब नहीं हो पाती।
जनता तो बेहतर विकल्प की तलाश करती है, जिसके साथ उसकी उम्मीद जुड़ती है उसके साथ हो जाती है इसलिए आम जनता से जीवंत संपर्क बहुत जरूरी है। चुनाव प्रचार के आधुनिक संसाधनों का भरपूर उपयोग निश्चित रूप से किया जाये, यह बहुत अच्छी बात है परंतु जीवंत संपर्क बनाने के लिए परंपरागत तौर-तरीके आज भी सबसे बेहतर विकल्प हैं यानी कि ‘घर-घर’ जाकर लोगों से संपर्क कर अपनी बात कहना, अपने बारे में, अपनी विचारधारा एवं नीतियों के बारे में बताना। जब कार्यकर्ता घर-घर जाता है तो उसे यह भी पता चलता रहता है कि विपक्षी दलों के लोग क्या-क्या कर रहे हैं और जनता में किस प्रकार की अफवाहें फैला रहे हैं?
यदि कार्यकर्ता घर-घर संपर्क में ज्यादा रुचि नहीं ले रहे हैं तो राजनैतिक दलों को यह सोचना चाहिए कि आखिर पार्टी के कार्यकर्ता क्या चाहते हैं? चूंकि, जनता के बीच तो कार्यकर्ता ही जाते हैं, नेता तो मात्रा मार्गदर्शन कर सकते हैं। इस प्रकार देखा जाये तो पार्टियों को दो धाराओं में कार्य करने की आवश्यता है। पहले उसका मिजाज जानने एवं समझने की आवश्यकता है जिसके लिए किया जाना है यानी आम जनता। दूसरा, उसका भी मिजाज जानने-परखने की आवश्यकता है जिसके द्वारा सब कुछ करवाया जाना है यानी कि कार्यकर्ता।
नेता एवं कार्यकर्ता के बीच कभी भी एकतरफा संवाद एवं संपर्क सफल नहीं हो सकता है। किसी भी सफलता के लिए दोनों तरफ से संपर्क एवं संवाद की आवयकता है। हो सकता है कि वक्त के मुताबिक इसमें कोई कमी आई हो। इस बात को एक उदाहरण से बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। राजनैतिक दल अपनी योजनाओं, विचारधारा एवं नीतियों को क्रियान्वित करने के लिए कार्यकर्ताओं से अपील कर रहे हैं किंतु कार्यकर्ता यदि इस बहस में उलझा हो कि वह काम क्यों करे तो कुछ भी कर पाना संभव नहीं होगा। ऐसे में यह नितांत आवश्यक है कि कार्यकर्ता का मिजाज गंभीरता से भांपा जाये एवं उसकी उम्मीदों पर खरा उतरने का प्रयास किया जाये। हालांकि, ये बातें मैं किसी विशेष दल के संदर्भ में नहीं लिख रहा हूं। हो सकता है कि इस प्रकार की स्थिति किसी दल में हो या किसी में न हो।
यदि सामान्य कार्यकर्ता की बात की जाये तो मैं उस कार्यकर्ता की बात करता हूं जिसे पार्टी से कुछ हासिल करने की चाहत नहीं है, बल्कि वह विचारधारा के आधार पर जुड़ा है। जो कार्यकर्ता कुछ मिल जाने पर प्रसन्न होकर संगठन की भाषा बोलने लग जाये और न मिलने पर नाराज हो जाये, ऐसे कार्यकर्ताओं की बात मैं नहीं कर रहा हूं। सामान्य कार्यकर्ता तो सम्मान पाकर एवं अपने छोटे-छोटे कार्यों के होने पर ही पार्टी का दामन पकड़ा रहता है। राजनधानी दिल्ली की बात की जाये तो भाजपा यदि केन्द्र सरकार की उपलब्धियों एवं आगामी योजनाओं के बारे में जनता को बताने एवं समझाने में कामयाब हो जाती तो शायद चुनाव परिणामों की तस्वीर कुछ और ही होती, सिर्फ मोदी जी का ही नाम लेकर सब कुछ हासिल नहीं किया जा सकता है।
जहां तक मेरा मानना है कि चुनाव के अंतिम समय में मोदी जी की जो रैलियां हुईं एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने चुनाव की कमान अपने हाथ में ली, यदि ऐसा नहीं हुआ होता तो संभवतः भाजपा दिल्ली में अपना मुख्य जनाधार बचा पाने में कामयाब नहीं हो पाती।
भाजपा अपना जनाधार बचा पाने में यदि कामयाब रही तो इसका श्रेय निश्चित रूप से पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को ही जाता है। चुनाव से कुछ दिनों पहले श्रीमती किरण बेदी को पार्टी की तरफ से मुख्यमंत्राी पद का प्रत्याशी बनाये जाने का फैसला भी शीर्ष नेतृत्व का एक दूरदर्शी निर्णय था। इन्हीं सब कारणों से ही भाजपा का मुख्य जनाधार बरकरार रहा। पार्टी को मात्रा तीन सीटें भले ही मिली हों, कितु जनाधार तो बरकरार है।
दिल्ली में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने चुनाव की कमान यदि अपने हाथ में ली तो निश्चित रूप से इसके बहुत ही व्यापक आधार रहे होंगे। संभवतः राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अमित शाह को इस बात की पर्याप्त जानकारी रही होगी कि दिल्ली प्रदेश का संगठन उतनी मजबूत स्थिति में नहीं है, जितनी होनी चाहिए। इस जानकारी का स्रोत भले ही संगठन के बजाय अन्य प्रकार का रहा होगा। वैसे भी सच्चाई से कब तक मुंह मोड़ा जा सकता है? यदि किसी भी राज्य या किसी भी स्तर पर संगठन कमजोर है या कोई कमी है तो उसमें सुधार तो करना ही होगा।
राजधानी दिल्ली में चुनाव 6 महीने आगे टालने का आधार भी संभवतः यह भी रहा हो कि यदि यहां के चुनाव परिणाम ठीक नहीं आये तो इसका असर महाराष्ट्र, झारखंड, हरियाणा एवं जम्मू-कश्मीर के चुनाव परिणामों पर पड़ सकता था। इस प्रकार देखा जाये तो पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने बेहद सूझ-बूझ के साथ निर्णय लिया है।
दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणामों को लेकर कुछ भी कहा जाये किंतु जहां तक मेरा मानना है कि इन चुनावों में न तो ‘आप’ को सफलता मिली है, न ही भाजपा को विफलता, यह तो जनता का निर्णय है। चूंकि, आम जनता की नजर में आम आदमी पार्टी अभी पूरी तरह जांची-परखी नहीं है, इसलिए उसे एक मौका देना जनता ने शायद वाजिब समझा किंतु वास्तविकता के धरातल पर कभी न कभी तो सभी दलों को आना ही होगा।
आज आवश्यकता इस बात की है कि राजनैतिक दल पुरानी लकीरों एवं घिसी-पिटी कार्यप्रणाली एवं तौर-तरीकों पर चलने के बजाय वक्त के मुताबिक अपने को परिवर्तित भी करते रहें। नये एवं पुराने तौर-तरीकों का सामंजस्य बहुत जरूरी है। साथ ही इस मानसिकता से भी निजात पाने की आवश्यकता है कि पार्टी का कार्यकर्ता किसी भी सूरत में अपना सर्वश्रेष्ठ कार्य करता रहेगा, क्योंकि कार्यकर्ता भी अब सब कुछ जानने-समझने लगा है। उसे झांसे में अब नहीं रखा जा सकता है, न ही उसे अब ‘बंधुआ’ मजदूर समझा जा सकता है। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि सभी स्तर से बेहद सूझ-बूझ के साथ काम करने की नितांत आवश्यकता है।
- अरूण कुमार जैन