शासन-प्रशासन के बीच संघर्ष से आहत होता लोकतंत्र

0
224

– ललित गर्ग –

दिल्ली सरकार एवं उपराज्यपाल के बीच संघर्ष, तकरार एवं विवाद की स्थितियां लम्बी खिंचती चली जा रही है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है, चिन्ताजनक है। एक बार फिर चुनी हुई सरकार और प्रशासक के अधिकारों को लेकर जंग छिड़ी हुई है, सरकार स्वच्छन्दता, स्वतंत्रता एवं अधिकारों के मनचाहे उपयोग को चाहती है, लेकिन ऐसा होने से अधिकारों के दुरुपयोग की व्यापक संभावनाएं हैं और ऐसा होते हुए देखा भी गया है। सरकार के मनचाहे जायज एवं नाजायज निर्णयों पर अंकुश स्वस्थ एवं पाददर्शी शासन एवं प्रशासन की अपेक्षा है। नियंत्रण एवं अनुशासन की इन्हीं अपेक्षित स्थितियों को लेकर दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार विवाद खड़े करती है। भाषा एवं व्यवहार की सीमा एवं संयम का उल्लंघन करती है।  कुछ ऐसा ही आम आदमी पाटÊ सरकार के पहले कार्यकाल में भी हुआ था, तब मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल आरोप लगाते रहे कि उपराज्यपाल उन्हें काम नहीं करने दे रहे। उन्हें अपना सचिव तक नियुक्त नहीं करने दे रहे। अब भी ऐसे ही आरोप लगाते हुए केजरीवाल कहते हैं  उपराज्यपाल है कौन? उन्हें चुनी हुई सरकार के कामकाज में दखलंदाजी का अधिकार दिया किसने? यह बात उन्होंने विधानसभा के विशेष सत्र में कही और बाहर मीडिया के सामने भी। हम चुनी हुई सरकार है। क्या चुनी हुई सरकार का अर्थ ऐसी निरंकुशता एवं स्वच्छंदता होती है?
चुनी हुई सरकार बनाम केंद्र की तरफ से नियुक्त प्रशासक के अधिकारों की लड़ाई अब ऐसे मोड़ पर पहुंच गई लगती है, जिसमें लोकतांत्रिक मूल्य, सिद्धांत और नियम-कायदे कहीं हाशिए पर चले गए हैं। इस लड़ाई में नुकसान दिल्ली के लोगों का हो रहा है। मुख्यमंत्री का आरोप है कि उपराज्यपाल कर्मचारियों के वेतन का भुगतान नहीं होने दे रहे, योजनाओं के लिए धन नहीं दे रहे। उनके आरोप और भी है। वे अपने आरोप लगाते हुए भाषा एवं व्यवहार की सारी मर्यादाएं लांघ जाते हैं। विचित्र एवं चिन्तनीय स्थिति तो यह है कि सरकारी कामकाज में उपराज्यपाल की ओर से कथित हस्तक्षेप के आरोप के साथ केजरीवाल न सिर्फ उनके कार्यालय तक निकाले गए जुलूस में खुद शामिल होते हैं, बल्कि ऐसी भाषा में बात कहते है जिसे मर्यादा के अनुकूल नहीं कहा जा सकता। उन्होंने उपराज्यपाल पर ‘सामंती मानसिकता से ग्रस्त’ होने का आरोप तो लगाया, लेकिन खुद ही जिन शब्दों का प्रयोग किया, वह उनकी मंशा को कठघरे में खड़ा करता है।
यह निश्चित है कि दिल्ली सरकार के किसी फैसले को उपराज्यपाल की सहमति से गुजरना एक निर्धारित प्रक्रिया है। अगर इसमें किसी तरह की अड़चन है तो इस पर विचार या इसका हल भी व्यवस्था के दायरे में ही करना होगा। यह सब निश्चित है, बावजूद इसके मुख्यमंत्री पद पर होते हुए भी केजरीवाल यदि उपराज्यपाल के लिए अभद्र एवं अशालीन भाषा का प्रयोग करते हैं तो इसे लोकतंत्र का हनन ही माना जायेगा। सामान्य जनजीवन में भी सभी लोगों से सभ्य, शालीन और शिष्ट व्यवहार और बोली की अपेक्षा होती है। इसी तरह सत्ता के ढांचे में पद की गरिमा के अनुकूल बर्ताव और बोली की मर्यादा से ही लोकतंत्र जीवंत रह सकेगा। जो व्यवस्था अनुशासन आधारित संहिता से नहीं बंधती, वह विघटन की सीढ़ियों से नीचे उतर जाती है। काम कम हो, माफ किया जा सकता है, पर आचारहीनता तो सोची समझी गलती है- उसे माफ नहीं किया जा सकता।
लोकतंत्र की ताकत यही है कि इसमें नेताओं से लेकर नागरिकों तक को विचार और अभिव्यक्ति की आजादी संविधान देता है। लेकिन यही संविधान अनुशासन, नियंत्रण, जबावदेही भी तय करता है कि सीमा एवं मर्यादा में बात कहीं जाये। शासन एवं प्रशासन की ईमानदारी, पारदर्शिता एवं जबावदेही को सुनिश्चित करने के लिये हर स्तर पर नियंत्रण नहीं होकर सर्वोपरि नियंत्रण होना चाहिए। हर स्तर पर नियंत्रण रखने से, सारी शक्ति नियंत्रण को नियंत्रित करने में ही लग जाती है। नियंत्रण और अनुशासन में फर्क है। नीतिगत नियंत्रण या अनुशासन लाने के लिए आवश्यक है सर्वोपरि स्तर पर आदर्श स्थिति हो, तो नियंत्रण सभी स्तर पर स्वयं रहेगा और वास्तविक रूप में रहेगा मात्र ऊपरी तौर पर नहीं। अधिकार किसी के कम नहीं हांे। स्वतंत्रता किसी की प्रभावित नहीं हो। पर इनकी उपयोग में भी सीमा और संयम हो। कानूनी व्यवस्था में गलती करने पर दण्ड का प्रावधान है, लेकिन शासन एवं प्रशासन की व्यवस्था मंे कोई दण्ड का प्रावधान नहीं है। यही कारण है कि किसी एक व्यक्ति को संपूर्ण अधिकार देने में हिचकिचाहट रहती है। पंच-पंचायत का वक्त पुनः लौट नहीं सकता जब तक कि समाज में वैसे लोगों को पैदा करने का धरातल नहीं बने। वैसे फैसलों पर फूल चढ़ाने की मानसिकता नहीं बने। लेकिन दिल्ली सरकार ने अपने निर्णयों को लेकर अक्सर विवाद खड़े किये हैं, संदेह एवं शंकाएं पैदा की हंै।
  हर स्तर पर दायित्व के साथ आचार संहिता अवश्य हो। दायित्व बंधन अवश्य लायें। निरंकुशता नहीं। आलोचना भी हो। स्वस्थ आलोचना, पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों को जागरूक रखती है। पर जब आलोचक मौन हो जाते हैं और चापलूस मुखर हो जाते हैं, तब फलित समाज को भुगतना पड़ता है। सही है कि दिल्ली के मतदाताओं ने उन्हें चुन कर भेजा है। लेकिन तथ्य यह भी है कि जनता ने उनके पद के साथ संवैधानिक व्यवस्था के तहत कुछ जवाबदेही निभाने के लिए भी चुना है, जिसमें लोकतंत्र की गरिमा और मर्यादा कायम रखना सबसे ऊपर है। दिल्ली के शासन-प्रशासन और सरकार के ढांचे में उपराज्यपाल पद की एक भूमिका और उसके मुताबिक जिम्मेदारियां तय की गई हैं। उन्हें उनकी जिम्मेदारियां निभाने दो।
चुनी हुई सरकार बनाम उपराज्यपाल के दो पाटों के बीच की दूरी को पाटने के लिए बहुत आवश्यक है पुल बने ताकि राजनीतिक द्वंद्व एवं  विवाद को मिटाया जा सके। अभी लगता नहीं कि दोनों के बीच की तकरार खत्म होने वाली है। दरअसल, उपराज्यपाल ने कार्यभार संभालने के साथ ही जिस तरह दिल्ली सरकार की नई आबकारी नीति में हुई अनियमितता का मामला उजागर करते हुए कई अधिकारियों को बर्खास्त कर दिया और उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के ठिकानों पर छापे डाले गए, उससे दिल्ली सरकार और आम आदमी पाटÊ एकदम से आक्रोशित हो उठी। उसने भी उपराज्यपाल के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले उजागर करने का प्रयास किया। धनशोधन मामले में दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन को जेल भेज दिया गया, वह भी उसकी नाराजगी का बड़ा कारण बना। फिर उपराज्यपाल दिल्ली सरकार के फैसलों पर प्रश्नचिह्न लगाने शुरू कर दिए। उसकी फाइलें या तो बिना मंजूरी के लौटाई जाने लगीं या फिर उन्हें रोका जाने लगा। नगर निगम चुनावों के बाद महापौर चुनाव से पहले उपराज्यपाल ने अलग से सदस्यों को मनोनीत करने के अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल किया, तो आम आदमी पाटÊ बौखला गयी। नतीजतन, वह चुनाव स्थगित करना पड़ा। मुख्यमंत्री का आरोप है कि उपराज्यपाल सीधे अधिकारियों को आदेश देते हैं, उनसे फाइलें मंगा लेते हैं।
अब यह केवल तथाकथित नेताओं के बलबूते की बात नहीं रही कि वे गिरते राजनीतिक एवं प्रशासनिक मूल्यों को थाम सकें, समस्याओं से ग्रस्त राजनीतिक व राष्ट्रीय ढांचे को सुधार सकें, तोड़कर नया बना सकें। एक प्रशस्त मार्ग दें सके। सही वक्त में सही बात कहें सके। ”सिस्टम“ की रोग मुक्ति, स्वस्थ लोकतंत्र का आधार होगा। राष्ट्रीय चरित्र एवं राजनीतिक चरित्र निर्माण के लिए नेताओं को आचार संहिता से बांधना ही होगा। दो राहगीर एक बार एक दिशा की ओर जा रहे थे। एक ने पगडंडी को अपना माध्यम बनाया, दूसरे ने बीहड़, उबड़-खाबड़ रास्ता चुना। जब दोनों लक्ष्य तक पहुंचे तो पहला मुस्कुरा रहा था और दूसरा दर्द से कराह रहा था, लहूलुहान था। केजरीवालजी थक जाओ उससे पहले मुस्कुराने का मार्ग चुनो।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here