२४ जून को पूरे विश्व में इत्र के लिए प्रसिद्ध उत्तरप्रदेश के कन्नौज में होने जा रहे लोकसभा उपचुनाव में प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की धर्म-पत्नी डिम्पल यादव के सामने चुनावी रण में उतरने से पूर्व ही जिस तरह विपक्षी दलों ने डिम्पल को वाक्ओवर दे दिया है उससे लोकतंत्र में संघर्ष के पतन की पराकाष्ठा का भान होता है| डिम्पल के समक्ष कांग्रेस और बसपा ने जिस तरह घुटने टेके और भाजपा प्रत्याशी जगदेव सिंह यादव नामांकन भरने ही नहीं जा पाए, उससे डिम्पल की जीत की राह को आसान कर दिया है| अभी तक कन्नौज लोकसभा उपचुनाव के लिए डिम्पल के अलावा ८ प्रत्याशियों ने अपना नामांकन भरा है जिसमें से ३ समाजवादी पार्टी के हैं और ५ अन्य निर्दलीय| अब संभावना यह बनती नज़र आ रही है कि ९ जून को जब नामांकन वापसी के प्रत्याशियों के बीच अंदरखाने समझौते होंगे तो शायद डिम्पल कन्नौज से एकमात्र प्रत्याशी बचें और निर्वाचन आयोग को कन्नौज लोकसभा उपचुनाव को लेकर अधिक मशक्कत भी न करनी पड़े| भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में शायद यह अपनी तरह का पहला मामला है जहां या तो हार के डर से या भावी गठबंधन राजनीति की संभावनाओं के चलते सभी बड़े विपक्षी दलों ने सत्तारूढ़ दल की प्रत्याशी के समक्ष बिना संघर्ष किए ही घुटने टेक दिए|
ये वही डिम्पल हैं जो नवम्बर २००९ में फिरोजाबाद उपचुनाव में सपा से कांग्रेसी हुई राजबब्बर से हार गई थीं| दरअसल उस चुनाव को मुलायम सिंह यादव ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था| वहीं सपा के समाजवाद का चोला उतार कर कांग्रेस के गांधीवाद को अपनाने वाले राज बब्बर ने भी मुलायम से अपनी पुरानी अदावत के चलते फिरोजाबाद उपचुनाव को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था| यहाँ तक कि राहुल गाँधी को भी राज बब्बर के पक्ष में उतारकर प्रचार करना पड़ा था| लिहाजा समाजवादियों के गढ़ में परिवारवाद की हार हुई और खांटी समाजवादी को जीत मिली| उस वक्त मुलायम हार का कडवा घूँट पीकर रह गए थे किन्तु इस वर्ष हुए उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में सपा की अप्रत्याशित जीत ने मुलायम का कांग्रेस युवराज के प्रति दबा गुस्सा ठंडा कर दिया| अखिलेश मुख्यमंत्री बने और अपनी सांसदी की सीट कन्नौज को अपनी धर्म-पत्नी के लिए छोड़ दिया| यानी मुलायम कुनबा और अधिक बढ़ना छह रहा है|
फिर जहां तक डिम्पल के समक्ष प्रत्याशी न उतारने के राजनीतिक दलों के फैसले का सवाल है तो कांग्रेस की तो सियासी मजबूरी समझ आती है कि अभी उसे केंद्र सरकार की स्थिरता हेतु सपा मुखिया का साथ और हाथ दोनों चाहिए| फिर राष्ट्रपति चुनाव से लेकर एफडीआई, महंगाई, कमजोर होता रूपया, लुढ़कती अर्थव्यवस्था के बहाने ममता-पवार जैसे सहयोगियों से निपटने हेतु भी सपा का संख्याबल संप्रग सरकार की आगे भी नैय्या पार लगाने हेतु सक्षम है| जहां तक मुख्य विपक्षी दल बसपा का सवाल है तो उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों में जिस प्रचंड बहुमत से सपा काबिज हुई उससे बसपा के हौसले कुंद हो गए हैं| अपनी संभावित हार से घबराकर बसपा नेतृत्व ने एक तरह से विधानसभा चुनाव की हार को तो स्वीकार किया ही है, साथ ही मुलायम सिंह के समक्ष आत्म-समर्पण भी कर दिया है कि बस अब बसपा सरकार के कार्यकाल में हुई धांधलियों की जांच बंद करो| यानी तुम अपना कुनबा भी बढ़ाओ और हमें भी चैन से जीने दो| वहीं भाजपा के प्रत्याशी ने नामांकन नहीं भरा| हालांकि भाजपा प्रत्याशी जगदेवसिंह यादव ने चुनाव आयोग को शिकायत दर्ज कराते हुए कहा है कि जब वे अपना नामांकन भरने जा रहे थे तो सपा कार्यकर्ताओं ने उनके साथ बदसलूकी की और नामांकन नहीं भरने दिया| ऐसी ही शिकायत निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर पर्चा दाखिल करने पहुंचे प्रभात पाण्डेय ने भी दर्ज कराई है| अब इसमें कितनी सच्चाई है यह तो चुनाव आयोग की जांच के बाद पता चलेगा पर इतना तय है कि भाजपा प्रत्याशी ने मुलायम सिंह से भाईचारे के नाते चुनाव के दूर होना ही ठीक समझा|
अब जबकि कन्नौज लोकसभा उपचुनाव को लेकर तस्वीर लगभग साफ़ हो चुकी है तो यह भी समझ लिया जाए कि आखिर अपने इतने सगे-संबंधियों के राजनीति में होने के बावजूद आखिर मुलायम सिंह को अपनी पुत्रवधू को चुनावी रण में उतारने की नौबत ही क्यूँ आन पड़ी? दरअसल आय से अधिक संपत्ति के मामले में डिम्पल पर भी आरोप हैं और यदि कारण है कि डिम्पल को मुलायम ऐसे सुरक्षित घेरे में पहुँचाना चाहते हैं जहां से आज तक किसी को राजनीतिक रूप से तो अधिक नुकसान नहीं हुआ| जहां शासन से लेकर प्रशासन तक सब कुछ आपकी मुट्ठी में होता है| डिम्पल की जीत से मुलायम डिम्पल को आगे कर सोनिया गाँधी के और भी करीब आ जायेंगे जो दोनों के सियासी हितों के संरक्षण हेतु वक्त की ज़रूरत भी है| कुल मिलाकर २४ जून को होने वाले राजनीतिक तमाशे में अब कुछ भी छुपा हुआ नहीं है|
जन्लोकपाल को लेकर जिस तरह से सारे दल एक ही भाषा बोल रहे हैं उसी तरह कन्नौज में डिम्पल के लिए खुला मैदान छोडकर गैर सपा दलों ने ये साबित क्र दिया है की वे एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं.
अब तो साफ़ है की कुनबा परस्ती,में कोई भी दल पीछे नहीं है.विपक्षिओं द्वारा कोई भी उम्मीदवार खड़ा न करना इस बात को दिखता है की यह सब अन्दर से मिलें हैं.जनता को तो इनकी नूरा कुश्ती ही देखनी है.साब एक ही थेली के चते बटे हैं.बी जे पी भी केवल दिखावा कर रही है.वर्ना पहले दिन उमीदवार की घोषणा करनी चाहिए थी .उस दिन तो मन कर दिया लेकिन आलोचना के डर से बाद में नाम घोषित किया.
यदि उसके उमीदवार को रोका गया तो उसने क्या किया सिवा एक शिकायत के.सब दिखावा है और कुछ नहीं.
सभी दलों का इतना पतन हो गया है की किसी से भी उम्मीद करना बेमानी है.
सच तो यह है कि जिसकी पूँछ उठा कर देखा ,मादा निकली,….भगवन ही बचाए तो भले ही बचाए इस मुल्क को ,