प्रो.बृजकिशोर कुठियाला
भारत के राष्ट्रपति का चुनाव यह ऐसा अवसर है जब देश की राजनीतिक व्यवस्था को पुनः प्रतिष्ठा से स्थापित किया जा सकता है। वर्तमान में न केवल राजनीतिक संघर्ष, द्वेष, घृणा चरम सीमा पर है परन्तु इसकी परछाइयाँ राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक जीवन पर भी गहरा विपरीत प्रभाव डाल रही है। अनेक राजनीतिक विचारों की खिचड़ी केन्द्रीय सरकार जो करना चाहती है उसे करने में असमर्थ है। छोटे-बड़े दल ब्लेकमेल करने से हिचकते नहीं है। देश के सामने जितने मुख्य मुद्दे है उनके विषय में दो मुख्य राजनीतिक दलों में जितनी समानता है वह केन्द्रीय सरकार में शामिल दलों में भिन्नता से कहीं कम है। फिर भी राजनीति में दलीय स्वार्थ राष्ट्रीय उद्देश्यों के सामने भारी पड़ता है।
कल्पना की सीमाओं को भी लाघंता हुआ भ्रष्टाचार भारतीय समाज को घुन की तरह खा रहा है। देश की लगभग एक-तिहाई भूमि पर नक्सली, माओवादियो और पृथकतावादी शक्तियों का बोलबाला है। जिसे प्रशासन की नपुंसकता और अराजकता ही कहा जा सकता है। आधे से अधिक जनसंख्या कृषि पर निर्भर है और अपनी मेहनत और लगन से इतना अनाज उत्पन्न करके देश को देती है जिससे न केवल पूरे भारत की जनता को पर्याप्त और स्वास्थ्यवर्धक भोजन मिल सकता है परन्तु उसका निर्यात कर विदेशी मुद्रा भी अर्जित की जा सकती है। परन्तु नौकरशाही की प्राथमिकताओं में इस अनाज को सभालने सहजने व किसानों को उचित मूल्य दिलाने में कोई रूचि नहीं है। किसान आत्महत्या करता है तो बवाल नहीं उठता परन्तु एक जिलाधीश या विधायक का अपहरण हो जाता है तो पूरी व्यवस्था घुटने टेकती है और गैर-कानूनी अराष्ट्रीय कदम लेने से भी नहीं हिचकती है।
सदियों से उपेक्षित वर्ग, अनुसूचित जाति के हो या जनजाति के हो, आज जगे हुए दिखते है। विकास के लिये उत्सुक है श्रम और प्रयास करने के लिये तत्पर है। परन्तु देश उनको निजीकरण व वैश्वीकरण के बहाने बहुराष्ट्रीय कम्पनियोंं के हवाले कर रहा है।
शिक्षा जो समाज को बाँधकर रखने का एक साधन होना चाहिये वहीं आज गरीबी और अमीरी की खाई को विस्तार दे रही है। एक ओर तो सम्पन्न वर्ग की क्षमताएं, आभामण्डल, प्रभावक्षेत्र और अकांक्षाएँ विश्व के सर्वाधिक विकसित देशों के समान हो रही है और दूसरी और विपन्न वर्ग के हालात विश्व के सबसे अविकसित समाजों के स्तरों पर बने हुए है।
इन सबके बावजूद अत्यन्त शक्तिशाली सकारात्मक पक्ष भी है। राजनीतिक और नौकरशाही की विफलताओं के बावजूद देश में पिछले कुछ वर्षों में अभूतपूर्व विकास हुआ है। वैश्विक मंदी का प्रभाव अत्यन्त न्यून रहा है क्योंकि आम भारतीय बचत करता आया है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के कुछ क्षेत्रों में देश आज विश्व में सर्वश्रेष्ठ है। सुरक्षा और आक्रमण की दृष्टि से देश विश्व में शक्तिशाली और सक्षम माना जा रहा है। लगभग सभी देशों में शिक्षित भारतीय अपना स्थान बना चुके है। देश का लोकतंत्र और संसदीय प्रणाली दुर्बलताओं व बाहरी आक्रमणों के बावजूद अस्तित्व बनाये हुए है।
इस समय भारतीय समाज की सबसे बड़ी शक्ति आम आदमी है। वर्षों से वह भारतीय जो जीवन के सुख-दुःख को भाग्य और दुर्भाग्य से जोड़ता था, वह आज जागृत अवस्था में है। वह उत्सुक है आगे बढ़ने के लिये। अपने परिवार को सम्पन्न बनाने के लिये, अपने ग्राम और नगर का विकास करने के लिये और राष्ट्र को गौरव की स्थिति में लाने के लिये। वह नक्सलियों और प्रशासन दोनों से आतंकित होते हुए भी अपने जीवन को सुधारने के लिये तत्पर है। 60 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या युवा है और हर युवा और युवती अपना भविष्य संवारने के लिये कमर कसे खड़ा है और प्रौढ और बुजुर्ग अपनी सन्तानों को समाज की मुख्यधारा में शामिल होने का सपना देख रहा है।
ऐसे में जब देश के राष्ट्रपति के चुनाव की बात आती है तो हर भारतीय के मन में आशा बनती है। उसे लगता है कि क्यों न ऐसा व्यक्ति देश के सर्वोच्च स्थान पर बैठे। जिसके कारण से उसके मन में विश्वास जगे ढांढस बंधे और आशा की किरणंे उत्पन्न हो। आम आदमी के लिये प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, सरपंच, पंच आदि तो राजनीतिक प्रेरित हो सकते है परन्तु राष्ट्रपति उसको ऐसा चाहिए जो न केवल राजनीति से ऊपर उठ सकने की क्षमता रखता हो परन्तु वह सम्प्रदाय, जाति और क्षेत्र की सीमाओं में बंधकर न सोचता हो। भारत के मानस को ऐसा राष्ट्रपति चाहिये जो एक सफल नायक हो और राष्ट्रीय अकांक्षाओं और आशाओं को फलित करने में पे्ररणा का स्त्रोत हो।
भले ही भारतीय राजनीति में 60 साल से अधिक कार्यकाल में ऐसे सर्वमान्य नायकों का निर्माण न किया हो, भले ही नौकरशाही ने महानायकों का प्रादुभीव न किया हो, परन्तु देश के सामाजिक, शैक्षणिक व प्रौद्योगिकी क्षेत्र में ऐसे महानायकों की कमी नहीं है सौभाग्य मानिये या दुर्भाग्य राष्ट्रपति का चुनाव कुल मिलाकर राजनीतिज्ञों के हाथ में है और वर्तमान राजनीति अपने नायकों के सामने समाज के महानायकों को पहचानने से इंकार करती है। विडम्बना है परन्तु सत्य है। जब भ्रष्टाचार के मुद्दे पर छोटे से गांव के नायक या कोई अध्यात्मिक बाबा देश को आन्दोलित कर सकते है तो क्या देश का समाज राजनीति को इसके लिये मजबूर नहीं कर सकता कि देश का राष्ट्रपति सर्वश्रेष्ठ नागरिकों में से कोई एक हो।
राजनीतिक जोड़ तोड़ के अनुसार छोटे दलों के नेता जिनका स्वार्थ जातिगत या स्थानीय है उनकी इच्छा अनुसार राष्ट्रपति बनने की संभावना अधिक नजर आती है। परन्तु क्या देश के दो बड़े राजनीतिक दलों को तो ऐसे दायित्वों का बोध नहीं होना चाहिये कि वे देश को ऐसा राष्ट्रपति दे जिससे आम व्यक्ति का विश्वास फिर से राजनीतिक व्यवस्था में जम सके। आज राष्ट्रपति के चुनाव के मुद्दे पर कांगे्रस और भारतीय जनता पार्टी के बीच संवादहीनता है। दोनों दलों में शायद दुर्जनों की संख्या काफी है। परन्तु सज्जन शक्ति की भी कमी नहीं है। दलगत राजनीति से निकलंे तो इस सज्जन शक्ति को भी आभास होता होगा कि इस मोड़ पर एक साहसी और सकारात्मक निर्णय पूरे राष्ट्र को प्रगति, विकास, एकता व अखण्डता के मार्ग पर ले जा सकता है। संविधान के अनुसार राष्ट्रपति तो अराजनीतिक पद है। इस पद पर ऐसा व्यक्ति ही पदासीन होना चाहिये जिसका कार्य राजनीति में न हो। यदि संविधान के शब्दों के साथ-साथ उसकी आत्मा पर भी जाये तो यह भी स्पष्ट है कि राष्ट्रपति की चुनाव प्रक्रिया भी राजनीति से मुक्त होनी चाहिये। साधारण भारतीय की जो श्रद्धा संविधान में है उसी स्तर की श्रद्धा दिखाने की मुख्य राजनीतिक दलों के सम्मुख अवसर है कि वे मतभेद भुलाकर एक होकर देश, काल और परिस्थितियों के अनुकूल सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति राष्ट्रपति के रूप में दे।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति हैं)
भले ही आप कोई सीख दे दें , इस पद पर तो कोई कठपुतली ही आएगा….ज्यादा उम्मीद दिल को तोड़ देगी.